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337 साल पुराने लवी मेले को लगी कोरोना की नजर, कभी काबुल-कंधार से लेकर तिब्बत तक थी इसकी धूम

सदियों से मनाए जा रहे इस मेले की धूम काबुल, कंधार, तिब्बत और उज्बेकिस्तान तक रही है. शिमला जिला के तहत सतलुज नदी के किनारे बसे रामपुर के खाते में लवी मेले का इतिहास और वर्तमान दर्ज है. वैसे इस मेले का इतिहास करीब साढ़े तीन सदी पुराना है. मेला हर साल नवंबर महीने में आयोजित किया जाता है.

लवी मेला रामपुर
लवी मेला
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Published : Nov 7, 2020, 10:32 PM IST

शिमला: मेले महज मनोरंजन और कारोबार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका विस्तार संस्कृतियों का विस्तार कहा जाता है. हिमाचल का लवी मेला भी एकसाथ कई संस्कृतियों के रंग लिए हुए है. कोरोना के कारण इस बार मेले की रौनक बेशक कम होगी, लेकिन इसकी स्मृतियों की चमक लगातार निखरती जाएगी.

सदियों से मनाए जा रहे इस मेले की धूम काबुल, कंधार, तिब्बत और उज्बेकिस्तान तक रही है. शिमला जिला के तहत सतलुज नदी के किनारे बसे रामपुर के खाते में लवी मेले का इतिहास और वर्तमान दर्ज है. वैसे इस मेले का इतिहास करीब साढ़े तीन सदी पुराना है. मेला हर साल नवंबर महीने में आयोजित किया जाता है. वर्तमान सदी की बात करें तो वर्ष 1985 में हिमाचल प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुखिया वीरभद्र सिंह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया था.

चामूर्थी घोड़ों की रहती है डिमांड

यहां हर साल करोड़ों रुपए के सूखे मेवों और अन्य सामानों का कारोबार होता है. इस दफा कोरोना संकट के कारण मेला कई बंदिशों के साथ रस्मी तौर पर संपन्न होगा. वैसे मेले का मुख्य आकर्षण चामूर्थी किस्म के घोड़े रहते हैं. ये घोड़े पहाड़ी इलाकों की परिस्थितियों के हिसाब से उपयोगी होते हैं. विख्यात चामुर्थी नस्ल के घोड़े हिमाचल के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों, मुख्य रूप से बर्फीली स्पीति घाटी में सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के समय से पाए जाते हैं.

यह नस्ल भारतीय घोड़ों की छह प्रमुख नस्लों में से एक है. चामूर्थी घोड़े अधिक ऊंचाई वाले बर्फीले इलाकों में अपने पांव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है. इन घोड़ों का उपयोग तिब्बत, लद्दाख और स्पीति में सामान ढोने के लिए किया जाता रहा है. युद्ध के समय ये उपयोगी साबित होते हैं. देश-विदेश से भी सैलानी लवी मेले के आकर्षण में खिंचे चले आते हैं. इस मेले में ऊनी कपड़ों, सूखे मेवों, शहद, विभिन्न धातुओं के बर्तनों, खेती के औजारों, सेब, चिलगोजा, सूखी खुमानी, अखरोट, ऊन और पशमीना आदि का कारोबार प्रमुख रूप से होता है.

इतिहास में झांक कर देखें तो इस मेले का लवी नाम यहां के पारंपरिक ऊनी वस्त्र लोइये से पड़ा है. पहाड़ी इलाकों में पुरुष ऊन से बना एक पारंपरिक कोट पहनते हैं, जिसे लोइया कहा जाता है. शायद इसी कारण मेले का नाम लवी पड़ा.

कई साल पुराना है इतिहास

सन 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था, लेकिन 1911 के करीब तत्कालीन बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह के समय तिब्बत के राजा के साथ हुई संधि के बाद इस मेले का महत्व और बढ़ गया. उस समय मेले में काबुल, कंधार, तिब्बत, देशों के कारोबारी यहां आते थे. उस समय वस्तुओं का आदान-प्रदान कारोबार का मुख्य हिस्सा था. दोनों राजाओं की संधि के अनुसार तिब्बत और बुशहर के व्यापारी निर्भय होकर अपना सामना (ऊन और पश्मीना ) दोनों क्षेत्रों में बेच सकते थे. संधि के बाद लवी मेले को व्यापारिक रंग मिला. व्यापारी बेरोकटोक तिब्बत से आने-जाने लगे और मेले में पश्मीना, पट्टू, दुपट्टे, शिलाजीत, बादाम, चिलगोजा, सूखे मेवे, पहाड़ी चाय ,काला जीरा ,सेब आदि का क्रय-विक्रय करने लगे.

दूसरे देशों के कारोबारी अपने साथ सूखे मेवे, ऊन, पश्मीना आदि लाते थे. बदले में यहां से राशन, नमक और गुड़ आदि खरीद कर ले जाते थे. वर्तमान समय में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों हरियाणा, पंजाब आदि से अधिकांश कारोबारी आते रहे हैं. स्थानीय स्तर पर किन्नौर, रामपुर आदि के लोग अपने उत्पाद लेकर मेले में आते हैं. वर्ष 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने दो साल बाद यानी वर्ष 1985 में लवी मेले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर प्रदान किया था.

लवी मेले को लगी कोरोना की नजर

हलांकि इस बार अन्य मेले और त्योहारों की तरह लवी मेले को भी कोरोना की नजर लगी है. अंतरराष्ट्रीय लवी मेले का अयोजन इस बार रामपुर में सूक्ष्म स्तर पर ही किया जाएगा.

इस बार मेले में शिमला, किन्नौर, कुल्लू व मंडी जिले के लोग अपने उत्पाद बेचने के लिए आ सकते हैं, जिसमें स्थानीय व साथ लगते जिलों के व्यापारी अपनी सहभागिता सुनिश्चित करेंगे. यह मेला 11 से 14 नवंबर तक ही आयोजित किया जाएगा. मेले में आने वाले व्यापारियों को कॉलेज ग्राउंड पाट बंगला में निशुल्क बैठने की अनुमति दी जाएगी.

शिमला: मेले महज मनोरंजन और कारोबार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका विस्तार संस्कृतियों का विस्तार कहा जाता है. हिमाचल का लवी मेला भी एकसाथ कई संस्कृतियों के रंग लिए हुए है. कोरोना के कारण इस बार मेले की रौनक बेशक कम होगी, लेकिन इसकी स्मृतियों की चमक लगातार निखरती जाएगी.

सदियों से मनाए जा रहे इस मेले की धूम काबुल, कंधार, तिब्बत और उज्बेकिस्तान तक रही है. शिमला जिला के तहत सतलुज नदी के किनारे बसे रामपुर के खाते में लवी मेले का इतिहास और वर्तमान दर्ज है. वैसे इस मेले का इतिहास करीब साढ़े तीन सदी पुराना है. मेला हर साल नवंबर महीने में आयोजित किया जाता है. वर्तमान सदी की बात करें तो वर्ष 1985 में हिमाचल प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुखिया वीरभद्र सिंह ने इसे अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया था.

चामूर्थी घोड़ों की रहती है डिमांड

यहां हर साल करोड़ों रुपए के सूखे मेवों और अन्य सामानों का कारोबार होता है. इस दफा कोरोना संकट के कारण मेला कई बंदिशों के साथ रस्मी तौर पर संपन्न होगा. वैसे मेले का मुख्य आकर्षण चामूर्थी किस्म के घोड़े रहते हैं. ये घोड़े पहाड़ी इलाकों की परिस्थितियों के हिसाब से उपयोगी होते हैं. विख्यात चामुर्थी नस्ल के घोड़े हिमाचल के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों, मुख्य रूप से बर्फीली स्पीति घाटी में सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के समय से पाए जाते हैं.

यह नस्ल भारतीय घोड़ों की छह प्रमुख नस्लों में से एक है. चामूर्थी घोड़े अधिक ऊंचाई वाले बर्फीले इलाकों में अपने पांव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है. इन घोड़ों का उपयोग तिब्बत, लद्दाख और स्पीति में सामान ढोने के लिए किया जाता रहा है. युद्ध के समय ये उपयोगी साबित होते हैं. देश-विदेश से भी सैलानी लवी मेले के आकर्षण में खिंचे चले आते हैं. इस मेले में ऊनी कपड़ों, सूखे मेवों, शहद, विभिन्न धातुओं के बर्तनों, खेती के औजारों, सेब, चिलगोजा, सूखी खुमानी, अखरोट, ऊन और पशमीना आदि का कारोबार प्रमुख रूप से होता है.

इतिहास में झांक कर देखें तो इस मेले का लवी नाम यहां के पारंपरिक ऊनी वस्त्र लोइये से पड़ा है. पहाड़ी इलाकों में पुरुष ऊन से बना एक पारंपरिक कोट पहनते हैं, जिसे लोइया कहा जाता है. शायद इसी कारण मेले का नाम लवी पड़ा.

कई साल पुराना है इतिहास

सन 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था, लेकिन 1911 के करीब तत्कालीन बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह के समय तिब्बत के राजा के साथ हुई संधि के बाद इस मेले का महत्व और बढ़ गया. उस समय मेले में काबुल, कंधार, तिब्बत, देशों के कारोबारी यहां आते थे. उस समय वस्तुओं का आदान-प्रदान कारोबार का मुख्य हिस्सा था. दोनों राजाओं की संधि के अनुसार तिब्बत और बुशहर के व्यापारी निर्भय होकर अपना सामना (ऊन और पश्मीना ) दोनों क्षेत्रों में बेच सकते थे. संधि के बाद लवी मेले को व्यापारिक रंग मिला. व्यापारी बेरोकटोक तिब्बत से आने-जाने लगे और मेले में पश्मीना, पट्टू, दुपट्टे, शिलाजीत, बादाम, चिलगोजा, सूखे मेवे, पहाड़ी चाय ,काला जीरा ,सेब आदि का क्रय-विक्रय करने लगे.

दूसरे देशों के कारोबारी अपने साथ सूखे मेवे, ऊन, पश्मीना आदि लाते थे. बदले में यहां से राशन, नमक और गुड़ आदि खरीद कर ले जाते थे. वर्तमान समय में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों हरियाणा, पंजाब आदि से अधिकांश कारोबारी आते रहे हैं. स्थानीय स्तर पर किन्नौर, रामपुर आदि के लोग अपने उत्पाद लेकर मेले में आते हैं. वर्ष 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने दो साल बाद यानी वर्ष 1985 में लवी मेले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर प्रदान किया था.

लवी मेले को लगी कोरोना की नजर

हलांकि इस बार अन्य मेले और त्योहारों की तरह लवी मेले को भी कोरोना की नजर लगी है. अंतरराष्ट्रीय लवी मेले का अयोजन इस बार रामपुर में सूक्ष्म स्तर पर ही किया जाएगा.

इस बार मेले में शिमला, किन्नौर, कुल्लू व मंडी जिले के लोग अपने उत्पाद बेचने के लिए आ सकते हैं, जिसमें स्थानीय व साथ लगते जिलों के व्यापारी अपनी सहभागिता सुनिश्चित करेंगे. यह मेला 11 से 14 नवंबर तक ही आयोजित किया जाएगा. मेले में आने वाले व्यापारियों को कॉलेज ग्राउंड पाट बंगला में निशुल्क बैठने की अनुमति दी जाएगी.

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