शिमलाः शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ के चुनाव होने चाहिए या नहीं, ये बहस बहुत पुरानी है और आज भी इस पर जोरदार बहस चलती रहती है. छात्र संघ चुनाव को लोकतंत्र की पहली सीढ़ी भी कहा जाता है. तो अगर ये बात सत्य है तो क्या हम लोकतंत्र की पहली सीढ़ी को दरकिनार कर रहें हैं, अगर हां तो इसका जीता जागता उदाहरण हिमाचल भी हो सकता है.
जयराम ठाकुर की कैबिनेट में छह मंत्री भी स्टूडेंट पॉलिटिक्स की देन है. मौजूदा सरकार के छह मंत्रियों में सुरेश भारद्वाज, विपिन सिंह परमार, राजीव सहजल, गोविंद ठाकुर, वीरेंद्र कंवर और बिक्रम ठाकुर का नाम शामिल है.
छात्र संघ चुनाव हैं प्रतिबंधितः हिमाचल में वर्ष 2014 से छात्र संघ चुनाव सरकार ने प्रतिबंधित कर दिए हैं. ऐसे में कॉलेज में अप्रत्यक्ष तरीके से केंद्रीय छात्र संघ का गठन हो रहा है और छात्र नेता नहीं निकल पा रहे हैं.
एनएसयूआइ व एबीवीपी से जो भी नेता आज प्रमुख दलों में सक्रिय हैं, वे छात्र संघ चुनाव में पहले विजयी रह चुके हैं. इससे पहले वर्ष 1994 में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा जो 2000 में बहाल हुआ. दोनों समय प्रदेश में कांग्रेस सरकार थी.
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छात्र राजनीति ने कैसे हिमाचल और देश की राजनीति को प्रभावित किया है. इसे जानने के लिए एक नजर डालते हैं हिमाचल की छात्र राजनीति से प्रदेश व देश की राजनीति में अपना डंका बजाने वाले नेताओं का.
जेपी नड्डाः जेपी नड्डा का सफर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से आरंभ हुआ. वो हिमाचल यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के अध्यक्ष रहे. अब वे भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष बन चुके हैं. 1983-84 नड्डा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में एबीवीपी के कार्यकर्ता रह चुके हैं.
ये वो वक्त था जब एबीवीपी शिमला यूनिवर्सिटी में पैर जमाने की कोशिश कर रही थी लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिल पा रही थी. पार्टी ने नड्डा को पटना से शिमला भेजने का सोचा. नड्डा की मेहनत का ही कमाल था कि कैंपस में पहली बार एबीवीपी की सीट से वो अध्यक्ष चुने गए.
नड्डा बिहार में जेपी आंदोलन से निकले नेता हैं और पटना में ही उन्होंने अपना राजनीतिक करियर 1977-79 में शुरू किया था. बाद में 1980-81 में वे शिमला आ गए. उनके कौशल से प्रभावित होकर एबीवीपी ने 1986 में उन्हें दिल्ली में काम दिया और उन्हें एबीवीपी की दिल्ली यूनिट का नेशनल सेक्रेटरी और ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी बनाया गया.
जयराम ठाकुरः मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने सियासी सफर की बुनियाद छात्र राजनीति से ही रखी. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता से शुरू हुआ उनका सफर हिमाचल प्रदेश के सीएम तक चला हुआ है. 1986 में वे एबीवीपी के प्रदेश सचिव बने थे.
इसके बाद लंबे समय तक वे एबीवीपी जम्मू-कश्मीर इकाई के संगठन सचिव रहे. 1993 में छात्र राजनीति से होते हुए बीजेपी युवा मोर्चा के पहले प्रदेश सचिव फिर प्रदेश अध्यक्ष बने. इसी साल पहली बार जंजैहली सीट से चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी से चुनाव हार गए.
अगली बार 1998 में फिर चुनाव लड़े और शानदार जीत हासिल की. 2003 के चुनावों में जीत दर्ज की. 2007 में जीत की हैट्रिक बनाई और प्रदेश सरकार में मंत्री बने. इस दौरान 2012 और फिर अब 2017 में भी चुनाव में जीत हासिल की.
राकेश सिंघाः ठियोग से माकपा की टिकट पर जीतते आ रहे राकेश सिंघा भी छात्र राजनीति से ही सक्रीय रहे हैं. छात्र राजनीति से ही वो वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे. सक्रिय राजनीति में सिंघा 1985 में पहली बार शिमला नगर निगम में पार्षद के तौर पर चुने गए. इसके बाद 1993 में शिमला से विधायक बने लेकिन एक कानूनी मामले में हुई सजा के बाद उनके चुनाव को निरस्त कर दिया गया था.
सतपाल सिंह सत्तीः वर्तमान में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती भी एबीवीपी में सक्रिय रहे हैं. सत्ती भी छात्र राजनीति से सक्रिय राजनीति में आए हैं. 1988 में वो एबीवीपी में शामिल हुए. सत्ती 1991-93 तक एबीवीपी के राष्ट्रीय सचिव रहे और 2003, 2007 व 2012 में ऊना से विधायक चुने गए.
सुरेश भारद्वाजः सुरेश भारद्धाज कॉलेज के दौरान छात्र आन्दोलन में सक्रिय रहे, वे एबीवीपी के राष्ट्रीय सचिव रह चुके हैं. आपातकाल (1975-77) के दौरान कई बार जेल गए. 1977 में हिमाचल प्रदेश लोकतांत्रिक मोर्चा के संयोजक रहे. 1978-81 तक जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे.
विपिन सिंह परमारः विपिन परमार भी एबीवीपी के राष्ट्रीय सचिव रहे चुके हैं. वो कॉलेज व यूनिवर्सिटी समय में छात्र राजनीति में काफी सक्रिय रहे. इसके अलावा वर्तामान सरकार के कई मंत्री गोविंद ठाकुर व बिक्रम सिंह सहित राजीव सहजल भी छात्र राजनीति से ही निकलकर कैबिनेट मंत्री तक पहुंचे हैं. अपने छात्र काल में ये सभी गर्मागर्म बहस में शामिल होते रहे हैं.
सुखविंद्र सिंह सुक्खूः सुक्खू ने 1991 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से एमए, एलएलबी पूरी की. सुखविंद्र सिंह सुक्खू 1989-95 तक एनएसयूआई के प्रदेशाध्यक्ष रहे.
NSUI से निकले नेताः एनएसयूआइ के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अतुल शर्मा, कुलदीप राठौर, केवल सिंह पठनिया, विवेक कुमार, यदोपति ठाकुर, रिंपल चौधरी, अरुण शर्मा, प्रदेशाध्यक्ष करुण, एनएसयूआइ के पूर्व महासचिव अजय सोलंकी व विनोद सुलतान ऐसे नेता है जो एनएसयूआइ में छात्र राजनिती कर प्रदेश में पहचान बना चुके हैं.
एबीवीपी से विधायक तक का सफरः विधायक रणधीर शर्मा, विधायक सुरेश भारद्वाज, पूर्व मंत्री नरेंद्र बरागटा, विधायक गोविंद ठाकुर, पूर्व सांसद सुरेश चंदेल, विधायक वीरेंद्र कंवर, विधायक विजय अग्निहोत्री, विधायक विनोद, पूर्व विधायक विपिन परमार, पूर्व विधायक प्रवीण शर्मा जैसे नेता भी छात्र संघ की देन है.
SFI से निकले नेताः एसएफआइ से कामरेड तारा चंद व पूर्व विधायक राकेश सिंघा ही विधानसभा तक पहुंच पाए हैं. इसके अलावा टिकेंद्र पंवर ऐसे नेता हैं जो नगर निगम शिमला में पूर्व उप महापौर रहे हैं. ऐसे कई नेता छात्र जीवन में एसएफआइ में सक्रिय थे जो आज पंचायती राज संस्थाओं में विजयी हैं.
ऐसा नहीं है कि छात्र नेताओं ने छात्र संघ चुनाव बहाली को लेकर कोई आंदोलन या कोशिश नहीं की, कई बार छात्र दलों ने इसके लिए आवाज उठाई लेकिन उन्हे कामयाबी नहीं मिली. ये सही है कि छात्र संघ लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता है, क्योंकि इससे छात्रों का राजनीतिक प्रशिक्षण होता है और नेतृत्व शक्ति विकसित होती है. छात्र संघ चुनाव के विरोध में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से ये आरोप लगाए जाते हैं कि इसमें धनबल और लड़ाई-झगड़ों का बोलबाला हो गया है. जिससे पढ़ाई का माहौल प्रभावित होता है.
भारत में छात्र आंदोलनों का इतिहासः छात्रों ने हमेशा समाज-परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. गौरतलब है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया. महात्मा गांधी के आह्वान पर लाखों छात्रों ने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया था.
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कई शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ चुनाव में अपराध की घटनाएं बड़ी है. जो चिंता का विषय है लेकिन रोग को दूर करने के बजाए रोगी को मारना, न्याय नहीं है. यहां सवाल उठता है कि क्या लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हिंसा नहीं होती. तो फिर छात्र संघ चुनाव पर ही क्यों रोक लगाए जाती हैं.
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