शिमला: हिमाचल प्रदेश के लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मुहैया करवाने वाले सेब-बागवानी क्षेत्र में इस साल स्कैब और आकस्मिक पतझड़ रोग से बागवान परेशान हैं. विशेषज्ञों की मानें तो ये पिछले कुछ दशकों के मुकाबले स्कैब और पतझड़ रोग का इस साल सबसे बड़ा हमला देखा गया है.
बावजूद इसके प्राकृतिक खेती से बागवानी कर रहे किसानों के बगीचों में स्कैब का प्रकोप बहुत कम पाया गया है. प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना की राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई की ओर से प्रदेश में स्कैब की स्थिति की जांच में पाया गया कि रासायनिक विधि से बागवानी कर रहे बागवानी की तुलना में प्राकृतिक खेती विधि के बागीचों में पतझड़ और स्कैब रोग बहुत कम आया है.
विशेषज्ञों की टीम ने शिमला जिला के चार ब्लाॅकों चिढ़गांव, रोहड़ू, जुब्बल और ठियोग का दौरा किया है. इस दौरान टीम ने पाया कि स्कैब का प्रभाव पत्तियों में औसतन 10-12 फीसदी और फलों में महज 5 फीसदी प्रकोप देखा गया है. जबकि आकस्मिक पतझड़ रोग का प्रभाव प्राकृतिक खेती विधि के बगिचों में औसतन 15 फीसदी दर्ज हुआ है.
बागवानी विकास अधिकारी डाॅ. किशोर शर्मा ने बताया कि हमारी टीम ने निरीक्षण के दौरान प्राकृतिक खेती विधि और रसायनिक खेती विधि दोनों के बागिचों का दौरा कर फल और पौधों की गहनता से जांच कर डाटा एकत्रित किया है. उनका कहना है कि प्राकृतिक खेती विधि वाले बागिचों में स्कैब और आकस्मिक पतझड़ रोग का बहुत कम प्रभाव देखा गया है.
प्राकृतिक विधि के आदान ज्यादा कारगर
बागवानी विकास अधिकारी डाॅ. किशोर शर्मा ने बताया कि प्राकृतिक खेती विधि की दवाइयों में देसी गाय के गोबर व मूत्र के साथ ऐसी देसी वनस्पतियों का प्रयोग किया जो ऐंटी फंगल एक्टीविटिज को बढ़ा देती हैं. उन्होंने बताया कि सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि के जीवामृत, सप्तधान्यांकुर, देसी गाय के दूध से बनी खट्टी लस्सी और जंगल की कंडी इत्यादि आदानों में फंगस को रोकने के साथ ऐसे अवयव होते हैं, जो पौधों की प्रतिरक्षा क्षमता को कई गुणा बढ़ा देती हैं. जिससे पौधों में कम बीमारियां आ रही हैं.
इसके अलावा उन्होंने बताया कि राज्य परियोजना कार्यान्वयन इकाई की ओर से बागवानों को समय-समय पर प्राकृतिक दवाईयों का स्प्रे शेड्यूल जारी किया गया था, जिसकी वजह से किसानों ने उसे अपनाया और पौधों की प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाकर पौधों में आने वाली बीमारियों से बचाव हो गया.
हिमाचल प्रदेश में 6 हजार सेब बागवान अपना चुके हैं प्राकृतिक खेती विधि
दो वर्ष पहले प्रदेश में शुरू की गई सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि को 55 हजार से अधिक किसान-बागवान अपना चुके हैं. इसमें से 6 हजार सेब बागवान अपने बागिचों में इस खेती विधि से सेब उत्पादन कर रहे हैं. इसमें से शिमला जिला के 4450 सेब बागवानों ने अपने 2 से 52 बीघा तक के बगीचों में प्राकृतिक खेती विधि को अपनाया है.
रोहड़ू के शक्तिनगर के बागवान सुभाष शादरू और समोली के बागवान रविंद्र चौहान का कहना है कि वे पिछले दो सालों से प्राकृतिक खेती विधि के तहत बागवानी कर रहे हैं. उनके बागीचों में स्कैब और आकस्मिक पतझड़ रोग बहुत कम आया है, जबकि आस-पास के बागिचों में इस रोग से बागवानों को बहुत अधिक नुकसान उठाना पड़ा है. इसके अलावा शिमला जिला की अन्य जगहों पर रसायनिक खेती विधि के मुकाबले में प्राकृतिक खेती विधि रोग नियंत्रण में अधिक कारगर साबित हुई है.
सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की विधि
प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के कार्यकारी निदेशक प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल का कहना है कि सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि को प्रदेश में शुरू किए हुए अभी दो वर्ष का समय हुआ है, लेकिन इन दो वर्षाें में किसान-बागवानों को बेहतरीन परिणाम देखने को मिल रहे हैं. प्रदेश में 55 हजार से अधिक किसान इस खेती विधि को अपना चुके हैं. इस खेती विधि को अपनाने वाले किसानों की आय में 25 से 400 फीसदी तक की वृद्धी पाई गई है.
इसके अलावा किसान-बागवानों के फसलों और बागिचों में कीट-बीमारियों का प्रकोप भी रसायनिक खेती के मुकाबले कम पाया गया है. स्कैब और पतझड़ रोग नियंत्रण में प्राकृतिक खेती कारगर साबित हुई है. इससे पहले पीले रतुअे का भयंकर प्रकार प्रदेश भर में गेहूं की फसल पर हुआ था, लेकिन इस प्राकृतिक विधि से किसी भी गेहूं के खेत में इस रोग का प्रकोक 10 फीसदी से उपर नहीं पाया गया.
कार्यकारी निदेशक प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल ने सभी बागवानों से आग्रह किया है कि यद्यपि सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि में इन सभी बिमारियों का समुचित ईलाज है, लेकिन प्राकृतिक खेती वाले बागीचे आस-पास के रसायनिक खेती वाले बागीचों से घीरे हैं. जिनमें बीमारियों का प्रकोप अधिक है, इसलिए इन बीमारियों का प्रकोप प्राकृतिक खेती विधि वाले बागीचों में आने की संभावनाएं लगातार बनी रहेंगी. अगस्त माह में 7-10 दिन के अंतराल पर दिए गए सुझावों पर अवश्य अमल करें. इसके अलावा यदि बीमारियां आती हैं तो ब्लॉक स्तर पर तैनात आतमा के अधिकारियों से संपर्क जरूर करें.
पत्तों का पतझड़ रोग
सेब का आकस्मिक पतझड़ रोग मारसानिना कोरोनेरिया (फफूंद) के कारण होता है.
लक्षणः
- जून के आरम्भ में सेब की पत्तियों के निचले भाग में गोल आकार के हरे धब्बे बनने लगते हैं. फिर धीरे-2 एक-दूसरे से मिलते हुए, भूरे रंग के बड़े आकार के बन जाते हैं. पतियों का अन्य भाग पीला पड़ जाता है. धीरे-2 पतियां एक दम नीचे गिर जाती हैं, तथा फल टहनियों पर ही झूलते रहते हैं.
सेब का पपड़ी रोग (एप्पल स्कैब)
यह रोग वेनचुरिया इनइक्वालिस नामक फफूंद द्वारा हाता है.
लक्षणः
- आजकल के जैसे मौसम में पत्तियों पर छोटे-2 गोले, जैतून-हरे रंग के धब्बे आदि नजर आये तो समझो बगीचे में स्कैब का प्रकोप आ रहा है. ये धब्बे धीरे-2 भूरे-काले पड़ते है तथा आपस मे मिलकर बड़े धब्बों में बदल जाते हैं. पत्तियां अपना आकार बदल देती हैं और समय से पहले गिरने लगती हैं ।
रोकथामः
- 5 बीघा के बगीचे में सेब के पौधों पर निम्न छिड़काव करें. जीवामृत 20 लीटर 10 लीटर खट्टी लस्सी को 170 लीटर पानी में डालकर पहला छिड़काव करें. 15 दिन के बाद जीवामृत 20 लीटर 180 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें. 15 दिन के बाद खट्टी लस्सी 6-8 लीटर या सौंठास्त्र को 200 लीटर पानी में मिलाकर या जंगल की कंडी बिना पानी मिलाकर छिड़काव करें. 15 दिन के बाद 4- जीवामृत 20 लीटर $ 10 लीटर खटटी लस्सी को 170 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें. 15 दिन के बाद 5- जीवामृत 20 लीटर 180 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें.
एक बीघा के लिए जीवामृत बनाने के लिए आवश्यक सामग्री
पानी-40 लीटर, देसी गाय का मूत्र- 2 लीटर, देसी गाय का गोबर- 2 किलोग्राम, गुड़- 200 ग्राम, बेसन- 200 ग्राम, बड़े पेड़ के तने के पास की मिट्टी- 50 ग्राम.
बनाने की विधि
प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी में 40 लीटर पानी डाले. पानी में 2 किलोग्राम गाय का गोबर व 2 लीटर गोमूत्र एवं 200 ग्राम गुड़ मिलाएं. इसके बाद 200 ग्राम बेसनए 50 ग्राम मेड़ की मिट्टी डालें और सभी को डंडे से मिलाएं. इसके बाद प्लास्टिक की टंकी या सीमेंट की टंकी को जालीदार कपड़े या बोरी से बंद कर दें. इस तैयार घोल को रोजाना 3 दिन तक सुबह-शाम घड़ी की सूई की दिशा में 2-3 मिनट तक घोलेंगे और तीन दिन के बाद यह तैयार हो जाएगा. तैयार जीवामृत का प्रयोग दो सप्ताह तक किया जा सकता है.
सप्तधान्यांकुर बनाने की विधिः
एक छोटी कटोरी लें और इसमें तिल के 200 ग्राम साबुत दाने डाल दें. अब इसमें इतना पानी डालें की सारे तिल पानी में डूब जाएं. इसके बाद इसे घर के अंदर 24 घंटे के लिए रख दें. दूसरे दिन सुबह, एक और बड़ा कटोरा लें. इसमें बारी-बारी से मूंग, उड़द, रौंगी, मसूर, गेहूं और चना के साबुत दानें 100-100 ग्राम के हिसाब से डालकर मिला दें.
इसके बाद इस कटोरे में इतना पानी डालें कि सभी दाने पानी में डूब जाएं. अगले दिन सातों प्रकार के भीगे दाने पानी से निकाल लें. उसके बाद इन सभी को एक गीले कपड़े में पोटली बनाकर अंकुरण के लिए घर के अंदर टांग दें. जिस पानी में सातों प्रकार के दाने भिगोए थे उसको सुरक्षित रखें. जिस दिन पोटली में रखे दानों में से एक सेंटीमीटर अंकुर बाहर निकल आएंगे, उस दिन उन्हें पोटली से निकालकर, सिल्ल-बट्टे में पीसकर इनकी चटनी बनाऐं.
अब एक ड्रम में 40 लीटर पानी, 2 लीटर गोमूत्र तथा दानों को भिगोने के बाद बचे हुए पानी को मिला दें. इसके बाद उंगलियों से सिल्ल-बट्टे में बनाई हुई चटनी को भी इसमें मिला दें. घोल को लकड़ी के डंड़े से घड़ी की सूई दिशा में 2-3 मिनट के लिए घुमाकर बोरी से ढ़क दें. इसे 2 घंटे छाया में रखने के बाद कपड़े से छान लें.
5 बीघा के लिए जंगल की कंडी की निर्माण विधी
गाय के सूखे गोबर का पाउडर बनाकर इसे एक कपड़े की पोटली में बांधे. इसके बाद इस पोटली को रस्सी की सहायता से एक 200 लीटर पानी की टंकी में लटका कर 48 घंटे तक रहने दें. इस दौरान पोटली को दिन में दो-तीन बार अच्छे से पानी में निचोड़ लें और वापस वैसे ही रहने दें. 48 घंटे के बाद यह तैयार है और इसका प्रयोग फसल पर 48 घंटे के भीतर कर लें.
सोंठास्त्र की निर्माण विधी
एक पतीले में 2 लीटर पानी और उसमें 200 ग्राम सौंठ पाउडर डालें. इसको अच्छे से मिलाकर तब तक उबालें तब तक की यह घटकर आधा न हो जाए. दूसरे पतीले में 2 लीटर दूध लें और इसे एक उबाली आने के बाद ठंडा होने के लिए रख लें. इसके बाद इस दूध की मलाई निकाल लें और दूध निकाले हुए इस दूध और आधे बचे सौंठ के घोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर 48 घंटे के भीतर फसल पर स्प्रे कर लें.
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