शिमला: हिमाचल प्रदेश में मानसून सीजन के दौरान अक्सर बाढ़ का खतरा पैदा होता है. हिमाचल में मुख्य रूप से सतलुज नदी के किनारे बसे क्षेत्र बाढ़ की दृष्टि से संवेदनशील हैं. कुल्लू, चंबा और शिमला में अक्सर बादल फटने की घटनाएं भी सामने आती हैं.
पानी के स्तर की नियमित तौर पर निगरानी
राज्य सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग मानसून से पहले बाढ़ की स्थिति की समीक्षा करता है. बाढ़ के संभावित खतरे वाले इलाकों में बचाव की अग्रिम व्यवस्था करता है. हिमाचल में वर्ष 2005 आपदा की दृष्टि से दुखद साबित हुआ था. तब तिब्बत में बनी पारछू झील के टूटने से भयानक नुकसान हुआ था. उसके बाद से सेंट्रल वाटर कमीशन सेटेलाइट के जरिए हिमालयन रीजन में बन रही झीलों पर नजर रखता है. इसके अलावा पानी के स्तर की भी नियमित तौर पर निगरानी की जाती है. इसकी रिपोर्ट प्रतिदिन प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को भेजी जाती है. हिमाचल में सेंट्रल वाटर कमीशन के चीफ इंजीनियर पीयूष रंजन ने बताया कि प्रतिदिन गेज डाटा राज्य सरकार को भेजा जाता है. इसके तहत नदी के पिछले 24 घंटे का व्यवहार स्टडी किया जाता है.
हिमाचल में सामने आते हैं ऐसे दो तरह के खतरे
सीमाई क्षेत्र होने के कारण हिमाचल में तिब्बत का काफी असर रहता है. ऐसे में तिब्बत क्षेत्र में पानी का व्यवहार, वहां बनी प्राकृतिक झीलें और वेटलैंड की जानकारी चीन की तरफ से साझा की जाती है. हिमाचल में पंचायतों के लिए आपदा प्रबंधन का मास्टर प्लान बनाने वाली टीम की सदस्य मानसी रघुवंशी के अनुसार मानसून के दौरान हिमाचल में दो तरह के खतरे पेश आते हैं. पहला खतरा नदियों के जलस्तर बढ़ने से आसपास की आबादी को संभावित होता है. इसके अलावा पहाड़ी इलाकों में भारी बारिश के कारण भूस्खलन के रूप में बड़ा खतरा बना रहता है. इसके अलावा छोटे-छोटे नाले भी कई बार नुकसान का कारण बनते हैं.
पारछू झील टूटने से हुआ था भारी नुकसान
भारी बारिश से भूस्खलन का खतरा कुल्लू, मंडी, चंबा, शिमला और किन्नौर में अधिक रहता है. मानसी के अनुसार इन खतरों के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करके वहां समय से पहले आपदा प्रबंधन के उपाय किए जाने चाहिए. इसमें स्थानीय प्रशासन और जिला प्रशासन का सबसे अहम रोल है. अगर हिमाचल में बाढ़ के कारण बड़े नुकसान हो पर नजर डाली जाए तो सबसे भयानक हादसा पारछू झील के टूटने से ही पेश आया था. इसके अलावा मैदानी इलाकों में स्वां नदी और कांगड़ा जिले के छोटे-बड़े नालों में उफान से किनारे के क्षेत्रों में फसल आदि का नुकसान होता है. भारी बारिश के कारण सरकारी संपत्ति को भी नुकसान होता है.
बाढ़ से हिमाचल में होता है करोड़ों का नुकसान
2 वर्ष पूर्व बादल फटने और भारी बरसात से हिमाचल में 79 लोगों की मृत्यु हुई थी. तब 1,138 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ था. यही नहीं लोक निर्माण विभाग, बिजली बोर्ड, सिंचाई एवं पेयजल परियोजनाओं और खेती को भी नुकसान होता है. वर्ष 2018 में सितंबर महीने में 3 दिन के दौरान ही 220 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था. उस समय लाहौल घाटी में 368 लोग फंस गए थे. कुछ विदेशी नागरिकों सहित 12 लोगों को एयरलिफ्ट करना पड़ा था. ऐसे में कहा जा सकता है कि मानसून सीजन के दौरान हिमाचल को कई तरह का नुकसान होता है. वर्ष 2018 में 537 करोड़ रुपए का नुकसान तो केवल सड़कों को ही हुआ था. सतलुज घाटी में वर्ष 2000 में आई बाढ़ ने हिमाचल को 800 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाया था.
सतलुज बेसिन पर झीलों की संख्या में 16 प्रतिशत
हिमाचल की नदियों के बेसिन पर झीलों की संख्या पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रही है. सतलुज, रावी और चिनाब इन तीनों प्रमुख नदियों के बेसिन पर ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों की संख्या भी बढ़ रही है और उनका आकार भी. पूर्व में जब विज्ञान, पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकी परिषद के क्लाइमेंट चेंज सेंटर शिमला ने झीलों और उनके आकार का विस्तार से अध्ययन किया था, तब यह खतरे सामने आए. तत्कालीन अध्ययन से पता चला था कि सतलुज बेसिन पर झीलों की संख्या में 16 प्रतिशत, चिनाब बेसिन पर 15 प्रतिशत और रावी बेसिन पर झीलों की संख्या में 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. प्रदेश में जुलाई से सितंबर महीने में सतर्कता बरता जरूरी है. कारण यह है कि हिमाचल ऐसे दुख के पहाड़ को जून 2005 में झेल चुका है. तब तिब्बत के साथ बनी पारछू झील ने तबाही मचाई थी जिसमें सैकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था.
शिमला, मंडी, बिलासपुर और कांगड़ा में बाढ़ ने नुकसान किया था. पहाड़ी प्रदेश हिमाचल में सतलुज नदी के बेसिन में 2017 में 642 झीलें थीं जो 2018 में बढकर 769 हो गई थीं. इसी तरह चिनाब में 2017 में 220 और 2018 में 254 झीलें बनीं. रावी नदी के बेसिन पर यह आंकड़ा 54 और 66 झीलों का रहा है. इसी तरह ब्यास नदी पर 2017 में 49 और 2018 में 65 झीलें बन गईं. सतलुज बेसिन पर 769 में से 49 झीलों का आकार 10 हेक्टेयर से अधिक हो गया है. कुछ झीलों का क्षेत्रफल तो लगभग 100 हेक्टेयर भी आंका गया. इसी तरह अध्ययन से पता चला कि यहां 57 झीलें 5 से 10 हेक्टेयर और 663 झीलें 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्र में हैं. हिमालयन रीजन में चिनाब बेसिन पर भी 254 में से चार झीलों का आकार 10 हेक्टेयर से ज्यादा है. इसके अलावा रावी नदी के बेसिन पर 66 झीलों में से 3 का आकार 10 हेक्टेयर से अधिक है.
ग्लेशियरों से जुड़े अध्ययनों को गंभीरता से ले रही सरकार
हिमाचल सरकार के मुख्य सचिव अनिल खाची के अनुसार राज्य सरकार ग्लेशियरों से जुड़े अध्ययनों को गंभीरता से ले रही है. साथ ही नदियों के बेसिन पर झीलों के आकार को लेकर भी स्थिति का आंकलन किया जा रहा है. पारछू झील का निर्माण भी कृत्रिम रूप से हुआ था. हिमाचल के क्षेत्रफल का 4.44 फीसदी हिस्सा ग्लेशियर से ढंका है. इस रीजन में कम से कम 20 गलेशियर खतरे का कारण बन सकते हैं. हिमाचल में स्थित केंद्रीय जल आयोग के अधिकारी भी तिब्बत से निकलने वाली पारछू नदी पर नजर रखते हैं. आयोग सतलुज बेसिन में पांच निगरानी केंद्रों में जलस्तर को मापता है. यह एक्शन हर साल जून से अक्टूबर तक होता है लेकिन उत्तराखंड के जोशीमठ के नजदीक ग्लेशियर टूटने से आई आपदा के बाद से सतलुज पर अब नए सिरे से नजर रखी जा रही है. विशेष रूप से शलखर साइट पर स्पीति और पारछू के जलस्तर की निगरानी का कार्य हो रहा है.
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