शिमला: साक्षरता सहित उच्च शिक्षा के मामले में चमकदार तस्वीर वाले राज्य हिमाचल प्रदेश में भी वाइस चांसलर जैसा पद निर्विवाद नहीं रहा है. नब्बे के दशक के बाद की स्थितियों का आकलन करें तो वीसी की कुर्सी पर विचारधारा विशेष की नियुक्ति का शोर मचता रहा है. जिस पार्टी सत्ता होती है, वीसी की पोस्ट पर उसी के समर्थक की नियुक्ति का आरोप लगता रहा है.
हिमाचल में कांग्रेस और भाजपा ही मुख्य राजनीतिक दल हैं. नब्बे के दशक के बाद यहां जिस भी पार्टी की सरकार रही, उसी ने अपने समर्थक माने जाने वाले प्रोफेसर को वीसी की कुर्सी पर बिठाया. इसका नुकसान ये हुआ कि वाइस चांसलर जैसा प्रतिष्ठित पद विवादों में आ गया.
छात्र इन आरोपों को लेकर आंदोलनरत भी रहे हैं
हिमाचल यूनिवर्सिटी का आकंलन करें तो यहां नियुक्तियों में भेदभाव, प्रश्नपत्र घोटालों और निर्माण कार्य में धांधली के आरोप लगते रहे हैं. छात्र इन आरोपों को लेकर आंदोलनरत भी रहे हैं. ये बात अलग है कि हिमाचल विश्वविद्यालय से निकले छात्र नेता प्रदेश व देश की सत्ता में अहम भूमिका में हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी का राजनीतिकरण रोकने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं रही है.
हिमाचल में निजी यूनिवर्सिटियों का दौर आया तो वहां होने वाले फर्जी डिग्री कांड से प्रदेश यूनिवर्सिटी पर भी असर पड़ा. लाखों रुपए में डिग्री बेचने के मामले सामने आए हैं. निजी यूनिवर्सिटियों पर शिकंजा कसा गया और जांच आज भी चल रही है.
पत्रकारिता में सक्रिय सीनियर जर्नलिस्ट धनंजय शर्मा का कहना है कि यदि वीसी की कुर्सी पर अकादमिक गतिविधियों को प्राथमिकता देने वालों की नियुक्ति की जाए तो ज्ञान के इस मंदिर की गरिमा बरकरार रहेगी. यदि परिवार का मुखिया बेहतर हो तो अन्य सदस्यों को वो बेहतरीन बना देता है.
योग्य व्यक्ति किसी भी किस्म के भाई-भतीजावाद को बढ़ावा नहीं देगा. वहीं, सत्ता के साथ चलने के कारण वीसी के पद की गरिमा भी कम होती है. कभी हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की कमान यानी वीसी की कुर्सी को डॉ. केसी मल्होत्रा और प्रोफेसर एचपी दीक्षित जैसे एकेडेमिशयन सुशोभित करते थे.
वीसी की नियुक्ति का अर्थ
वे अपने बेहतरीन प्रशासन और छात्रों के हित में काम करने के लिए विख्यात थे. यूनिवर्सिटी को अमूमन ज्ञान का महामंदिर कहा जाता है. यहां वीसी की नियुक्ति का अर्थ यही है कि यूनिवर्सिटी का माहौल सृजनात्मक हो और अध्ययनरत छात्र-छात्राएं आगे चलकर समाज की सेवा में योगदान दे सकें.
हिमाचल विश्वविद्यालय समरहिल शिमला में पिछले दो दशकों से वीसी का पद किसी न किसी विवाद में रहा है. कभी भर्ती में भाई-भतीजावाद तो कभी चहेतों को नियमों के खिलाफ नियुक्तियां देना. यूनिवर्सिटी के पूर्व वीसी डॉ. एडीएन वाजपेयी के कार्यकाल में भर्ती घोटाला सामने आया था. हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन ने ये मामला उठाया था.
भर्तियों में नियमों की अनदेखी
डॉ. वाजपेयी के साथ खास बात ये थी कि वे भाजपा सरकार के भी चहेते माने जाते थे और कांग्रेस ने भी उनको वीसी के पद पर बनाए रखा था. उनके कार्यकाल में आरोप लगा कि भर्तियों में नियमों की अनदेखी की गई. यूजीसी की तरफ से तय नेट, सेट की जरूरी शैक्षणिक योग्यता और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दरकिनार करते हुए एकीकृत हिमालयन अध्ययन संस्थान (आईआईएचएस) में चहेतों को लाभ दिया गया.
परियोजना में निर्धारित पारिश्रमिक पर काम कर रहे कर्मचारियों को वित्त अधिकारी की एकल सदस्य कमेटी की सिफारिशों से सीधे पे-बैंड 15,500-39100 में नियमित कर दिया. इसके लिए वीसी ने अपनी विशेष शक्तियों जैसे 12-सी का प्रयोग किया, जो कि गलत है.
शक्तियों का केंद्रीकरण होने से बढ़ी मनमानी
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में अरसे तक सक्रिय रहे विजेंद्र मेहरा का मानना है कि यूनिवर्सिटी की एक्जीक्यूटिव काउंसिल सहित यूसी व डीसी जैसी संस्थाओं को जानबूझकर कमजोर किया गया. इससे सारी शक्तियों का केंद्रीयकरण हो गया और वीसी की पोस्ट सबसे ताकतवर हो गई.
पहले वीसी के लिए केवल और केवल अकादमिक पृष्ठभूमि देखी जाती थी. बाद में भाई-भतीजावाद शुरू हो गया. इसके यूनिवर्सिटी में अध्ययन और सृजन के संस्कार पीछे छूटते गए. भ्रष्टाचार से अर्जित धन की चकाचौंध से वीसी की पोस्ट की गरिमा कम हुई.
'पैसे लेकर भर्तियां होंने लगी'
वीसी के पास कुछ आपात शक्तियां भी होती हैं. उनका उपयोग करने की बजाय दुरुपयोग अधिक हुआ. इसके नियुक्तियों में धांधली शुरू हो गई और पैसे लेकर भर्तियां होंने लगी. मेहरा मानते हैं कि यूनिवर्सिटी में डॉ. केसी मल्होत्रा और प्रोफेसर एचपी दीक्षित के बाद माहौल बदलने लगा था. उन्होंने छात्र राजनीति की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि छात्र आंदोलन के कारण ही जीसी गुप्त, एसडी शर्मा व एडीएन वाजपेयी सरीखे कुलपतियों को हटना पड़ा.
यह पद अब राजनीति की भेंट चढ़ गया है
विश्वविद्यालयों में कुलपति पद पर होने वाली नियुक्तियों में आज के समय में राजनीति हावी हो चुकी है. हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर घनश्याम चौहान ने कहा कि पहले के समय में जहां इन पदों पर शिक्षाविदों की नियुक्ति की जाती थी जिसके पीछे का उद्देश्य था कि विश्वविद्यालय उन्नति करें और यहां पढ़ने वाले छात्रों को भी बेहतर सुविधाएं मिलने के साथ ही गुणात्मक शोध कार्य इन विश्वविद्यालयों में हो सके, लेकिन बीते कुछ समय से यह देखने को मिल रहा है कि यह पद अब राजनीति की भेंट चढ़ गया हैं.
सरकार का लगातार हस्तक्षेप विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली पर रहता है
सरकार कोई भी हो, लेकिन यही चाहती है कि कुलपति के पद पर वह अपनी पार्टी की विचारधारा से संबंधित व्यक्ति की नियुक्ति करें. इसके लिए कई बार यह भी देखा जाता है कि तय नियमों तक में बदलाव किए जाते हैं, ताकि व्यक्ति विशेष की नियुक्ति इस पद पर हो सके. इस तरह की नियुक्तियों से विश्वविद्यालय की पूरी गरिमा दांव पर लग जाती है और उसका सरकार का लगातार हस्तक्षेप विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली पर रहता है.
ईमानदारी से नहीं होती नियुक्ति
वहीं, एचपीयू के मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर आर.एल जिंटा ने भी इस बात को माना है कि विश्वविद्यालय भले ही ऑटोनोमस बॉडी होते हैं, लेकिन इसके अहम पद पर ही कि जाने वाली नियुक्ति अब उस ईमानदारी से नहीं कि जाती है जैसे पहले के समय में होती थी.
'पार्टी से जुड़ा हो या फिर सरकार की सुनता हो'
पहले के समय में कुलपति का पद गरिमापूर्ण होता था, लेकिन अब इस पद पर विशेष विचारधारा के व्यक्ति की ही नियुक्ति की जाने लगी है. जो भी सरकार सत्ता में आती है तो वह अपनी पार्टी से जुड़े व्यक्ति को इस पद का लाभ देती है. भले ही योग्यता की भी देखा जाता है, लेकिन प्राथमिकता उसी व्यक्ति को दी जाती है जो पार्टी से जुड़ा हो या फिर सरकार की सुनता हो.
इस तरह की नियुक्तियों से सरकार भी कहीं ना कहीं अपने हित साधना चाहती है और यही वजह बनती है कि आज के समय में विश्वविद्यालय में नियुक्तियों के साथ ही अन्य कई तरह की धांधलियां होने के आरोप आए दिन लगते है.
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