शिमला: जिस रेल लाइन को बिछाने में अंग्रेजी हुकूमत के बड़े-बड़े धुरंधर इंजीनियर्स के पसीने छूट गए, उसे देवभूमि हिमाचल के एक मस्तमौला साधु ने अपनी छड़ी के सहारे पूरा कर दिया. एक शताब्दी से भी अधिक पुराने ऐतिहासिक और अब हैरिटेज रेलवे ट्रैक के तौर पर दुनिया भर में पहचान रखने वाले कालका-शिमला रेल मार्ग का जिक्र बाबा भलखू के नाम बिना अधूरा है.
अंग्रेज इंजीनियर बरोग एक जगह सुरंग निकालते समय नाकाम साबित हुए. सुरंग के दोनों छोर मिले नहीं नाराज अंग्रेज सरकार ने उन पर एक रुपए जुर्माना किया. असफलता और जुर्माने से खुद को अपमानित महसूस कर बरोग ने आत्महत्या कर ली बाद में बाबा भलखू ने अपनी छड़ी के सहारे ट्रैक का सर्वे किया.
बाबा भलखू अपनी छड़ी के साथ आगे-आगे और अंग्रेज इंजीनियर उनके पीछे-पीछे चले. इस तरह सुरंग नंबर 33 पूरी हुई, जिसके बाद वो रेलवे के इतिहास में बाब भलखू का नाम अमर हो गया. शिमला गजट में दर्ज है कि अंग्रेज हुकूमत ने बाबा भलखू को पगड़ी और मैडल के साथ सम्मानित किया था. कुल 103 सुरंगों वाले कालका-शिमला रेल मार्ग का इतिहास रोमांच से भरपूर है. इस ऐतिहासिक रेल ट्रैक के निर्माण में बाबा भलखू के योगदान पर नजर डालना अपने आप में हैरान कर देने वाला है.
क्या है सबसे लंबी सुरंग का इतिहास और बाबा भलखू का योगदान:
कालका-शिमला रेलवे ट्रैक के निर्माण के दौरान सुरंग नंबर 33 बनाई जा रही थी. इस स्थान पर अंग्रेज इंजीनियर कर्नल बरोग सुरंग निर्माण में लगे इंजीनियरों व श्रमिकों की अगुवाई कर रहे थे. गलती से इस सुरंग के दोनों छोर नहीं मिल पाए. अंग्रेज सरकार ने कर्नल बरोग पर एक रुपए जुर्माना किया.
नाकामी की शर्मिंदगी झेलते हुए कर्नल बरोग ने आत्महत्या कर ली. उसके बाद चीफ इंजीनियर एचएस हैरिंगटन ने सुरंग निर्माण की जिम्मेदारी ली. चायल के झाजा गांव के रहने वाले फकीर बाबा भलखू की दिव्य क्षमता से परिचित अंग्रेज हुकूमत ने उनका सहयोग लिया.
बाबा भलखू के पास एक छड़ी थी, जिसके सहारे वे पहाड़ और चट्टानों को ठोक-ठोक कर उस स्थान को चिन्हित करते, जहां से सुरंग निकल सकती थी. हैरत की बात यह रही कि बाबा भलखू के सारे अनुमान सौ फीसदी सच हुए. सुरंग के दोनों छोर मिल गए बाद में सुरंग का नामकरण कर्नल बरोग के नाम पर किया गया.
इसे सुरंग नंबर 33 कहा जाता है. तीन साल के अंतराल में ही 1143.61 मीटर सुरंग बन गई. इसके निर्माण पर 8.40 लाख रुपये खर्च हुए थे. यहां बता दें कि जिस सुरंग के दो छोर नहीं मिल पाए थे, वो मौजूदा सुरंग से कुछ ही दूरी पर है. यह भी दिलचस्प है कि बरोग सुरंग लंबे अरसे तक भारत की दूसरी सबसे लंबी रेल सुरंग रही.कालका-शिमला रेल मार्ग में कुल 889 पुल व 103 सुरंगें हैं, लेकिन इस समय सुरंगों की संख्या 102 है, क्योंकि सुरंग नंबर 43 भूस्खलन में ध्वस्त हो चुकी है.
चायल के झाजा गांव के रहने वाले थे बाबा भलखू
बाबा भलखू सोलन जिला के मशहूर पर्यटन स्थल चायल के समीप झाजा गांव के रहने वाले थे. उनके बारे में कई आख्यान मिलते हैं. बाबा भलखू दिव्य दृष्टि से संपन्न साधु माने जाते थे. उनके बारे में एक दिलचस्प किस्सा बताया जाता है. बाबा भलखू की जटाएं काफी लंबी और उलझी हुई थीं जब बाबा भलखू को पता चला कि सिर में जुएं पड़ी हैं तो उन्हें निकालने की बजाय उन्होंने सिर में शहद और गुड़ आदि डाल दिया.
उनसे पूछने पर बाबा ने कहा, ये भी इसी सृष्टि के जीव हैं, इन्हें भूखा क्यों रखा जाए. उनके देहावसान का किसी को कोई पता नहीं. इलाके के पुराने लोग बताते हैं कि अपने अंतिम समय में बाबा भलखू वृंदावन चले गए थे और उसके बाद उनका कोई पता नहीं चला.
मशहूर पर्यटन स्थल चायल में बाबा भलखू की प्रतिमा स्थापित की गई है. यहां उनकी स्मृति में मेला भी आयोजित किया जाता है. इलाके के लोग गर्व के साथ बाबा भलखू को याद करते हैं. बाबा भलखू पर हिमाचल के विख्यात कवि स्वर्गीय मधुकर भारती ने बेहद प्रभावशाली कविता रची थी उसकी कुछ पंक्तियां इस तरह हैं..
अपनी लाठी भांज मेरे पूर्वज.
और खींच दे एक ऐसी यात्रा का मार्ग.
जो ले चले हमें.
आकाश की ऊंचाइयों तक.
आत्मा की गहराइयों तक.
इस कविता का पाठ कालका-शिमला रेल मार्ग को समर्पित कई साहित्यिक गोष्ठियों में किया जा चुका है. शिमला में पुराने बस अड्डे के समीप बाबा भलखू की याद में रेल म्यूजियम बनाया गया है. यहां कालका-शिमला रेल लाइन से संबंधित पुराने चित्र और बाबा भलखू की प्रतिमा स्थापित की गई है.
यह संग्रहालय जुलाई 2011 में शुरू किया गया था. इसका जिम्मा उत्तर रेलवे के पास है. कालका-शिमला रेलवे ट्रैक को वर्ष 2003 में 100 साल पूरे हो गए थे. साल 2008 में यूनेस्को ने इस ट्रैक को अब यह ट्रैक विश्व विरासत घोषित किया गया है।