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अंधकार में डूबता बुनकरों का भविष्य, पेट पालने के लिए बदलना पड़ रहा अपना व्यवसाय

हैंडलूम का काम करने वाले लोगों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. कोरोना के काल में इन बुनकरों की समस्याएं और ज्यादा बढ़ गई हैं. हालांकि प्रदेश सरकार इनकी मदद के लिए कई तरह के प्रयास कर रही है, लेकिन धरातल पर कुल्लू के बुनकरों को उनका कोई लाभ नहीं मिल रहा है.

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Published : Aug 21, 2020, 10:52 PM IST

special story on Weavers in kullu
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कुल्लू: सदियों से भारत लघु उद्योगों का केंद्र रहा है, यहां पर हाथ से बनाई गई चीजों को विश्वभर में ख्याति प्राप्त है, लेकिन औद्योगीकरण की वजह लघु उद्योग अपना वजूद खोते जा रहे हैं. कुल्लू के बुनकरों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. हाथों से खड्डी में ताना-बाना बुन कर कुल्लवी शॉल, टोपी, मफलर तैयार करने वाले बुनकरों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. वहीं, अब कोरोना इन पर कहर बनकर टूटा है.

कुल्लू में बुनकरों का काम पर्यटन पर ही टिका हुआ है. जो भी पर्यटक कुल्लू घूमने के लिए आते हैं, वह अपने साथ कुल्लू से यादों के रूप में टोपी, मफलर, शॉल खरीदना नहीं भूलते. शायद यही वजह है कि आज बुनकरों का यह कारोबार सही सलामत है, लेकिन कब तक इस बात को कोई नहीं जानता.

वीडियो रिपोर्ट.

कुल्लू में बरसों से हैंडलूम का काम किया जा रहा है, लेकिन अब यह अपना अस्तित्व खोते जा रहा है. सदियों से इस काम को करती आ रही कई पीढ़ियां अपने बच्चों से यह काम नहीं करवाना चाहती, क्योंकि अब यह काम मुनाफे का नहीं, बल्कि मुसीबत का बनता जा रहा है. जिसको लेकर कुल्लू के बुनकरों ने सरकार से उन्हें बाजार उपलब्ध करवाने की मांग उठाई है.

सरकार अपने स्तर पर हैंडलूम से जुड़े लोगों की मदद करने की पूरी कोशिश कर रही है. कई स्कीमों के तहत उन्हें कारोबार शुरू करने के लिए बैंकों से ऋण मुहैया करवाया जा रहा है और खादी आयोग से उन्हें 25 से लेकर 35 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है.

सरकार भले ही अपने स्तर पर हथकरघा से जुड़े लोगों की मदद करने के दावे कर रही हो, लेकिन हकीकत यही है कि दिन-ब-दिन बुनकरों का यह कारोबार सिमटता जा रहा है. युवा इस काम से अपने हाथ पीछे खींच रहे हैं और सरकार की योजनाएं धरातल पर नाकाफी साबित हो रही हैं.

देश के प्रधानमंत्री ने भारत की जनता को आत्मनिर्भर बनने का मंत्र दिया, लेकिन पहले से ही आत्मनिर्भर लोग अपने कारोबार को छोड़ना चाहते हैं. बुनकरों की बात करें तो उन्हें अपनी महेनत का सही मोल नहीं मिल रहा और ना ही सरकार उन्हें उचित बाजार उपलब्ध करवा रही है.

कुल्लू: सदियों से भारत लघु उद्योगों का केंद्र रहा है, यहां पर हाथ से बनाई गई चीजों को विश्वभर में ख्याति प्राप्त है, लेकिन औद्योगीकरण की वजह लघु उद्योग अपना वजूद खोते जा रहे हैं. कुल्लू के बुनकरों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. हाथों से खड्डी में ताना-बाना बुन कर कुल्लवी शॉल, टोपी, मफलर तैयार करने वाले बुनकरों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. वहीं, अब कोरोना इन पर कहर बनकर टूटा है.

कुल्लू में बुनकरों का काम पर्यटन पर ही टिका हुआ है. जो भी पर्यटक कुल्लू घूमने के लिए आते हैं, वह अपने साथ कुल्लू से यादों के रूप में टोपी, मफलर, शॉल खरीदना नहीं भूलते. शायद यही वजह है कि आज बुनकरों का यह कारोबार सही सलामत है, लेकिन कब तक इस बात को कोई नहीं जानता.

वीडियो रिपोर्ट.

कुल्लू में बरसों से हैंडलूम का काम किया जा रहा है, लेकिन अब यह अपना अस्तित्व खोते जा रहा है. सदियों से इस काम को करती आ रही कई पीढ़ियां अपने बच्चों से यह काम नहीं करवाना चाहती, क्योंकि अब यह काम मुनाफे का नहीं, बल्कि मुसीबत का बनता जा रहा है. जिसको लेकर कुल्लू के बुनकरों ने सरकार से उन्हें बाजार उपलब्ध करवाने की मांग उठाई है.

सरकार अपने स्तर पर हैंडलूम से जुड़े लोगों की मदद करने की पूरी कोशिश कर रही है. कई स्कीमों के तहत उन्हें कारोबार शुरू करने के लिए बैंकों से ऋण मुहैया करवाया जा रहा है और खादी आयोग से उन्हें 25 से लेकर 35 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है.

सरकार भले ही अपने स्तर पर हथकरघा से जुड़े लोगों की मदद करने के दावे कर रही हो, लेकिन हकीकत यही है कि दिन-ब-दिन बुनकरों का यह कारोबार सिमटता जा रहा है. युवा इस काम से अपने हाथ पीछे खींच रहे हैं और सरकार की योजनाएं धरातल पर नाकाफी साबित हो रही हैं.

देश के प्रधानमंत्री ने भारत की जनता को आत्मनिर्भर बनने का मंत्र दिया, लेकिन पहले से ही आत्मनिर्भर लोग अपने कारोबार को छोड़ना चाहते हैं. बुनकरों की बात करें तो उन्हें अपनी महेनत का सही मोल नहीं मिल रहा और ना ही सरकार उन्हें उचित बाजार उपलब्ध करवा रही है.

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