कांगड़ा/बैजनाथ: धौलाधार के आंचल में राष्ट्रीय उच्चमार्ग पर समुद्र तल से 1000 मीटर ऊंचाई पर भगवान शिव की बैजनाथ नगरी स्थित है. कल-कल की आवाज करती बिनवा खड्ड के किनारे स्थित बैजनाथ कस्बे में पर्यटन वधर्म का अनूठा संगम है.
बैजनाथ में स्थित ऐतिहासिक शिव मंदिर की विश्व मानचित्र पर अपनी एक अलग ही पहचान है. बैजनाथ शिव मन्दिर नौंवी शताब्दी का बना हुआ है. शिखराकार शैली से बने इस मन्दिर की शिल्पकला अपने आप में अनूठी है मन्दिर का सबंध में रावण की तपस्या से भी जोड़ा जाता है. इस कारण यहां पिछले चार दशकों से दशहरा तक नहीं मनाया जाता है.
मन्दिर की शिल्पकला को देखते हुए यहां विदेशी पर्यटकों का आना लगा रहता है. मन्दिर में एक ही चट्टान को तराश कर बनाया गया नंदी बैल भी आकर्षण का केन्द्र है. लंकापति रावण की तपोस्थली के रूप में बैजनाथ नगरी में अंचभित करने वाली दो बातें हैं. एक तो यह कि बैजनाथ कस्बे में लगभग 800 व्यापारिक संस्थान हैं परन्तु कस्बे में कोई भी सुनार की दुकान नहीं.
'सोना काला फिर जाता है'
ऐसा कहा जाता है कि यहां सोने की दुकान करने वाले का सोना काला फिर जाता है जिसके चलते उन दुकानदारों को अपनी दुकानें बंद करनी पड़ती हैं और दूसरी यह कि बुराई पर अच्छाई का प्रतीक माना जाने वाला दुशहरा जहां पूरे भारत देश में धूमधाम से मनाया जाता है और जगह-जगह रामलीला का मंचन होता है वहीं, बैजनाथ में न तो रामलीला का मंचन किया जाता है और न ही यहां रावण का पुतला जलाया जाता है.
ऐसा कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति बैजनाथ में रावण का पुतला जलाता है तो उस व्यक्ति पर कोई घोर विपत्ति आन पड़ती है या काल का ग्रास बन जाता है. निर्माण के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण नौंवी शताब्दी में मयूक और अहूक नाम के दो भाईयों ने करवाया था.
शिवलिंग का इतिहास रावण के तप से जोड़ा जाता है
मन्दिर के गर्भ गृह में स्थित शिवलिंग का इतिहास रावण के तप से जोड़ा जाता है. ऐसा माना जाता है कि यह वही शिवलिंग है, जिसे रावण तप कर लंका ले जा रहा था, लेकिन इस जगह लघु शंका के दौरान रावण ने इस शिवलिंग को एक चरवाहे को पकड़ा दिया था.
काफी समय तक रावण के न लौटने पर इस चरवाहे ने इस शिवलिंग को यहीं जमीन पर रख दिया और यह शिवलिंग यहीं स्थापित हो गया. ऐसा भी कहा जाता है कि जब रावण तप करने के पश्चात कैलाश पर्वत से इस शिवलिंग को लंका ले जाने से पूर्व भगवान शिव ने रावण से वचन लिया था कि वह रास्ते में इस शिवलिंग को न रखे. अन्यथा जहां भी वह शिवलिंग को रखेगा वह वहीं स्थापित हो जाएगा.
इसके बाद नौंवी शताब्दी में इसका निर्माण दो व्यापारी भाईयों ने करवाया था. कांगड़ा के अंतिम शासक राजा संसार चंद ने भी मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया था. 1905 के भूकंप में केवल यही मन्दिर ऐसा था जिसे आंशिक रूप से नुकसान हुआ था.
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