चंबा: सर्दियों के मौसम में बर्फ से ढके पहाड़ों पर जिंदगी के लिए परीक्षा की घड़ी है. किन्नौर से लेकर सिरमौर तक इन बर्फीले पहाड़ों में बर्फबारी अपने साथ कई मुसीबतें लाती है, लेकिन ये मौसम सबसे कड़ी परीक्षा गद्दियों की लेता है. गद्दी समुदाय हिमाचल की जनजातियों में से एक है. सर्दी की शुरुआत इनके लिए पहाड़ों से नीचे उतरने की घंटी बजाती है और ये अपने मवेशियों के साथ चोटियों से नीचे उतरने लगते हैं.
गद्दियों के पास बहुतायत में भेड़ और बकरियां होती हैं जिन्हें ये माल कहते हैं. बारिश, आंधी और बर्फबारी जैसी कठिन परिस्थितियों में खुद को अपने पशुधन यानि माल के साथ महफूज रखना ये बखूबी जानते हैं. चंबा जिला के जनजातीय क्षेत्र भरमौर में मुख्यत: गद्दी समुदाय का निवास स्थान है. हजारों फीट ऊंची चारागाहों पर अपना ज्यादातर वक्त गुजारने वाले गद्दियों की जिंदगी में चुनौतियों के पहाड़ हैं.
साल के अधिकतर वक्त परिवार से दूर भेड़-बकरियों के साथ किसी अंजान और सुनसान पहाड़ पर गुजारना पड़ता है. सर्दियों की दस्तक के साथ पहाड़ की चोटियों से शुरू हुआ सफर हर बीतते रोज के साथ निचले इलाकों की ओर पहुंचता है. कुल मिलाकर ठहराव नाम की चीज इनकी जिंदगी में नहीं होती.
हर साल अक्तूबर से गद्दी समुदाय के पलायन का सिलसिला शुरू होता है. सर्दियों के सीजन में पलायन का ये सिलसिला सदियों से चला आ रहा है. भरमौर, सिरमौर की ऊंची पहाड़ियों से ये भेड़ पालक बर्फबारी से पहले कांगड़ा, बिलासपुर, हमीरपुर, ऊना, सोलन जैसे निचले इलाकों की ओर रुख करते हैं और सर्दियां खत्म होने तक निचले इलाकों में ही रहते हैं.
अप्रैल महीने में जब पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगती है तो गद्दी अपनी भेड़-बकरियों के साथ घर वापसी की तैयारी करते हैं, जिसके साथ शुरू होता है पहाड़ों की तलहटी से चोटी पर पहुंचने का सफर. हांलाकि गद्दी समुदाय का ये व्यवसाय अब सरकारी उपेक्षा के चलते चौपट होने के कगार पर है. समुदाय तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए अपने इस पुश्तैनी धंधे को किसी तरह चलाए हुए है.
गद्दी समुदाय के पुरुष साल के करीब10 महीने खानाबदोश की जिंदगी गुजारते हैं और गर्मियों के गिने चुने दिन ही परिवार के साथ गुजार पाते हैं. पुरुषों की गैर मौजूदगी में घर की कमान महिलाओं के हाथ होती है. बच्चों का पालन-पोषण करने से लेकर बर्फबारी जैसी कठिन परिस्थितियों से ये महिलाएं हर साल गुजरती हैं.
समय बीतने के साथ-साथ गद्दी समुदाय अपने धंधे को धीरे-धीरे छोड़ते जा रहे हैं. प्रदेश सरकार की तरफ से कोई रियायत ना मिलने से सुमदाय में रोष है. नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के पारंपरिक धंधे को छोड़कर बाहर के राज्यों में पढ़ाई और नौकरी के लिए रुख कर रही हैं.
पहाड़ की चोटी से निचले इलाकों तक गद्दियों का ये सफर सालों से यूं ही चलता आ रहा है न तो इस सफर से ये थके हैं और ना ही अपने इस खानाबदोश जीवन का इन्हें कोई मलाल है, लेकिन बढ़ते शहरीकरण और सरकारी अनदेखी ने इनके भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
हर साल पहाड़ों के अनंत सफर पर निकलने वाले ये गद्दी सरकारी मदद की भी गुहार लगा रहे हैं. इन्हें लगता है कि अगर जल्द कुछ नहीं किया गया तो इन पहाड़ों को किसी नदी की तरह नापता ये समुदाय किसी ठहरे हुए तालाब में तब्दील हो जाएगा.