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हिमाचल में लगेंगी स्वदेशी एंटी हेल गन, कम होगा ओलावृष्टि से होने वाला नुकसान

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Published : Jan 14, 2022, 9:23 PM IST

ओलावृष्टि होने से हर साल हिमाचल प्रदेश में करीब 400 से 500 करोड़ का नुकसान होता है. ओलावृष्टि के कारण सेब के साथ-साथ अन्य फसलें भी खराब (Damage due to hailstorm in Himachal) होती हैं. जिसका खामियाजा किसानों और बागवानों को भुगतना पड़ता है, लेकिन आईआईटी बॉम्बे के वैज्ञानिकों ने पानी की बूंदों को ओले में बदलने की प्रक्रिया को रोकने की तकनीक वाली 'हेल गन' ईजाद कर ली है. जिसकी मदद से फसलों को खराब होने से बचाया जा सकेगा.

anti hail gun will be installed in Himachal
हिमाचल में लगेंगी स्वदेशी एंटी हेल गन.

शिमला: ओलावृष्टि की वजह से हर साल हिमाचल प्रदेश के किसानों व बागवानों को करोड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है. सेब उत्पादकों को ओलावृष्टि से फसल खराब होने का डर हमेशा सताता रहता है. एक अनुमान के मुताबिक ओलावृष्टि (Damage due to hailstorm in Himachal) से हर साल करीब करीब 500 करोड़ का नुकसान होता है. इसी नुकसान को कम करने के लिए आईआईटी बॉम्बे और हिमाचल की डॉ. वाई एस परमार बागवानी विश्वविद्यालय नौणी के साझा प्रयासों से स्वदेशी एंटी हेल गन विकसित की जा रही है.

एंटी हेल गन क्या होती है- एंटी हेल गन (anti hail gun) एक ऐसी मशीन है, जो आघात तरंगें उत्पन्न कर आकाश में ओलावृष्टि में बाधा उत्पन्न करती हैं. लंबे, स्थिर ढांचे वाली यह मशीन कुछ मीटर ऊंचे उल्टे टावर के समान दिखाई देती है. इसमें एक शंक्वाकार लंबी और संकीर्ण नली लगी होती है, जिसका मुख आकाश की ओर होता है. इसके निचले कक्ष में एसिटिलीन गैस एवं वायु का विस्फोटक मिश्रण भरा होता है, जो दागे जाने पर आघात तरंगें पैदा करता है. ये तरंगें आकाश में उपस्थित जल की बूंदों को ओले में परिवर्तित होने से रोकती हैं.

कैसे करती है काम- विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग अध्यक्ष डॉ. एसके भारद्वाज ने बताया कि हवाई जहाज के गैस टरबाइन इंजन और मिसाइल के रॉकेट इंजन की तर्ज पर इस तकनीक में प्लस डेटोनेशन इंजन का इस्तेमाल किया गया है. इसमें एलपीजी और हवा के मिश्रण को हल्के विस्फोट के साथ दागा जाता है. इस हल्के विस्फोट से एक शॉक वेव तैयार होती है. यह शॉक वेव करीब 22 फुट लंबी एंटी हेल गन के माध्यम से वायुमंडल में जाती है और बादलों के अंदर का स्थानीय तापमान बढ़ा देती है.

एंटी हेल गन आरंभिक प्रयोगों से विस्फोट तरंग उत्पन्न 1100 मी/एस या 3960 किमी प्रति घंटे की गति से यात्रा करती है, जो एलपीजी-एयर मिश्रण के लिए 1200 मीटर/सेकंड के सी-जे (चैपमैन-जौगेट) वेग के करीब है. वैज्ञानिकों का कहना है कि हेल गन के प्रयोग में अभी 1 शॉट में 0.24kg गैस का उपयोग हो रहा है और अगर एक सिलेंडर की बात की जाए तो करीब 500 से 600 शॉट निकल रहे हैं.

महंगी होती है विदेशी एंटी हेल गन- वर्तमान में प्रदेश में जिस विदेशी एंटी हेल गन का प्रयोग किया जा रहा है, उसकी कीमत लगभग 2 से 3 करोड़ रुपये हैं. मौजूदा समय में शिमला जिले में करीब 20, कुल्लू और मंडी जिले के ऊपरी इलाकों में भी कृषि और बागवानी विभाग ने एंटी हेल गन स्थापित किया है. देश में तैयार की जा रही गन को ट्रायल आधार पर प्रदेश में 8 से 10 स्थानों पर स्थापित किया जाएगा. जिससे इसकी लागत में कमी आएगी.

सस्ती होगी स्वदेशी एंटी हेल गन- एंटी हेल गन विदेशों से खरीदने पर ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती थी, लेकिन इस गन को सस्ते दामों में देश में ही तैयार किया जा रहा है. यदि इस गन का ट्रायल सफल रहता है तो जिले के अन्य क्षेत्रों में भी इसे लगाने की योजना है. गन को लगाने समेत इस तकनीक का शुरुआती खर्च करीब 10 लाख होगा. इसके बाद बागवानों को सिर्फ एलपीजी गैस का ही खर्च उठाना पड़ेगा.

ओलावृष्टि से किसानों बागवानों को नुकसान- पहाड़ी राज्यों में ओलावृष्टि से किसानों-बागवानों को नुकसान झेलना पड़ रहा है. इस वर्ष भी ओलावृष्टि से टमाटर, शिमला मिर्च, गेहूं समेत प्लम, आडू और सेब की फसल को करीब दो करोड़ का नुकसान हुआ है. दरअसल, ओलों से बचाव के लिए एंटी हेल नेट लगाने से भी खास फर्क नहीं पड़ा.

वायुमंडल में ऐसे बनते हैं ओले- बता दें कि बादलों में जब ठंड बढ़ती है तो वायुमंडल में जमा पानी की बूंदें जमकर बर्फ का आकार ले लेती हैं. इसके बाद यह बर्फ गोले के आकार में जमीन पर गिरती हैं. इन्हें ही ओला कहते हैं. पहाड़ों में मार्च से मई के बीच ओलावृष्टि के चलते सभी फसलें, सब्जी और फल खराब हो जाते हैं. सेब, बादाम, चेरी, अखरोट और करीब 40 से 50 हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली गुच्छी (पहाड़ी मशरूम) आदि फसलों को सबसे अधिक नुकसान होता है.

बागवानों ने खुद लगाई थी एंटी हेल गन- हिमाचल में सेब को आर्थिकी (apple business in himachal) का साधन माना जाता है. सेब की अच्छी फसल होने की वजह से यहां के बागवान समृद्ध हैं. अपनी सेब की फसलों को को ओलावृष्टि से बचाने के लिए कोटखाई तहसील की बाघी और रतनाड़ी पंचायतों के बागवानों ने खुद पहल की और सेब उत्पादन में अग्रणी देशों में शुमार न्यूजीलैंड में ओलों से बचाव के लिए प्रयोग की जाने वाली एंटी हेल गन को करीब डेढ़ करोड़ रुपये में खरीद कर अपने इलाके में स्थापित किया. पहली बार एंटी हेल गन बनाने वाले न्यूजीलैंड के माइक ईगर ने ही बागवानों को इसे चलाने की ट्रेनिंग दी थी.

ओलावृष्टि की दृष्टि से संवेदनशील है यह इलाका- बाघी और रतनाड़ी इलाका ओलावृष्टि के लिहाज से संवेदनशील है. कुछ वर्ष पहले यहां ओलों ने सेब की पूरी पैदावार तबाह कर दी थी. करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ था. यहां एंटी हेल नेट भी अधिक कामयाब नहीं हुए. कारण यह रहा कि वर्ष 2013 में बर्फबारी अधिक हुई और नेट पर बर्फ टिकने के कारण वे बर्बाद हो गए.

हिमाचल में 5 हजार करोड़ का सालाना सेब कारोबार- हिमाचल देश का एप्पल बाउल के नाम से जाना जाता है. यहां हर साल पांच हजार करोड़ रुपये के सेब का उत्पादन होता है. हिमाचल में विदेशी स्पर किस्मों का सेब पैदा किया जाता है. साथ ही, परंपरागत रॉयल किस्म भी उगाई जाती है. प्रदेश में सबसे अधिक सेब शिमला जिले में पैदा किया जाता है. इसके अलावा मंडी, कुल्लू, किन्नौर, चंबा जिले में भी सेब उगाया जाता है.

ये भी पढ़ें: पहाड़ी फसलों को बचाएगी IIT बॉम्बे की एंटी 'हेल गन', ओलावृष्टि से नहीं होगा 500 करोड़ का नुकसान

शिमला: ओलावृष्टि की वजह से हर साल हिमाचल प्रदेश के किसानों व बागवानों को करोड़ों रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है. सेब उत्पादकों को ओलावृष्टि से फसल खराब होने का डर हमेशा सताता रहता है. एक अनुमान के मुताबिक ओलावृष्टि (Damage due to hailstorm in Himachal) से हर साल करीब करीब 500 करोड़ का नुकसान होता है. इसी नुकसान को कम करने के लिए आईआईटी बॉम्बे और हिमाचल की डॉ. वाई एस परमार बागवानी विश्वविद्यालय नौणी के साझा प्रयासों से स्वदेशी एंटी हेल गन विकसित की जा रही है.

एंटी हेल गन क्या होती है- एंटी हेल गन (anti hail gun) एक ऐसी मशीन है, जो आघात तरंगें उत्पन्न कर आकाश में ओलावृष्टि में बाधा उत्पन्न करती हैं. लंबे, स्थिर ढांचे वाली यह मशीन कुछ मीटर ऊंचे उल्टे टावर के समान दिखाई देती है. इसमें एक शंक्वाकार लंबी और संकीर्ण नली लगी होती है, जिसका मुख आकाश की ओर होता है. इसके निचले कक्ष में एसिटिलीन गैस एवं वायु का विस्फोटक मिश्रण भरा होता है, जो दागे जाने पर आघात तरंगें पैदा करता है. ये तरंगें आकाश में उपस्थित जल की बूंदों को ओले में परिवर्तित होने से रोकती हैं.

कैसे करती है काम- विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग अध्यक्ष डॉ. एसके भारद्वाज ने बताया कि हवाई जहाज के गैस टरबाइन इंजन और मिसाइल के रॉकेट इंजन की तर्ज पर इस तकनीक में प्लस डेटोनेशन इंजन का इस्तेमाल किया गया है. इसमें एलपीजी और हवा के मिश्रण को हल्के विस्फोट के साथ दागा जाता है. इस हल्के विस्फोट से एक शॉक वेव तैयार होती है. यह शॉक वेव करीब 22 फुट लंबी एंटी हेल गन के माध्यम से वायुमंडल में जाती है और बादलों के अंदर का स्थानीय तापमान बढ़ा देती है.

एंटी हेल गन आरंभिक प्रयोगों से विस्फोट तरंग उत्पन्न 1100 मी/एस या 3960 किमी प्रति घंटे की गति से यात्रा करती है, जो एलपीजी-एयर मिश्रण के लिए 1200 मीटर/सेकंड के सी-जे (चैपमैन-जौगेट) वेग के करीब है. वैज्ञानिकों का कहना है कि हेल गन के प्रयोग में अभी 1 शॉट में 0.24kg गैस का उपयोग हो रहा है और अगर एक सिलेंडर की बात की जाए तो करीब 500 से 600 शॉट निकल रहे हैं.

महंगी होती है विदेशी एंटी हेल गन- वर्तमान में प्रदेश में जिस विदेशी एंटी हेल गन का प्रयोग किया जा रहा है, उसकी कीमत लगभग 2 से 3 करोड़ रुपये हैं. मौजूदा समय में शिमला जिले में करीब 20, कुल्लू और मंडी जिले के ऊपरी इलाकों में भी कृषि और बागवानी विभाग ने एंटी हेल गन स्थापित किया है. देश में तैयार की जा रही गन को ट्रायल आधार पर प्रदेश में 8 से 10 स्थानों पर स्थापित किया जाएगा. जिससे इसकी लागत में कमी आएगी.

सस्ती होगी स्वदेशी एंटी हेल गन- एंटी हेल गन विदेशों से खरीदने पर ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती थी, लेकिन इस गन को सस्ते दामों में देश में ही तैयार किया जा रहा है. यदि इस गन का ट्रायल सफल रहता है तो जिले के अन्य क्षेत्रों में भी इसे लगाने की योजना है. गन को लगाने समेत इस तकनीक का शुरुआती खर्च करीब 10 लाख होगा. इसके बाद बागवानों को सिर्फ एलपीजी गैस का ही खर्च उठाना पड़ेगा.

ओलावृष्टि से किसानों बागवानों को नुकसान- पहाड़ी राज्यों में ओलावृष्टि से किसानों-बागवानों को नुकसान झेलना पड़ रहा है. इस वर्ष भी ओलावृष्टि से टमाटर, शिमला मिर्च, गेहूं समेत प्लम, आडू और सेब की फसल को करीब दो करोड़ का नुकसान हुआ है. दरअसल, ओलों से बचाव के लिए एंटी हेल नेट लगाने से भी खास फर्क नहीं पड़ा.

वायुमंडल में ऐसे बनते हैं ओले- बता दें कि बादलों में जब ठंड बढ़ती है तो वायुमंडल में जमा पानी की बूंदें जमकर बर्फ का आकार ले लेती हैं. इसके बाद यह बर्फ गोले के आकार में जमीन पर गिरती हैं. इन्हें ही ओला कहते हैं. पहाड़ों में मार्च से मई के बीच ओलावृष्टि के चलते सभी फसलें, सब्जी और फल खराब हो जाते हैं. सेब, बादाम, चेरी, अखरोट और करीब 40 से 50 हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली गुच्छी (पहाड़ी मशरूम) आदि फसलों को सबसे अधिक नुकसान होता है.

बागवानों ने खुद लगाई थी एंटी हेल गन- हिमाचल में सेब को आर्थिकी (apple business in himachal) का साधन माना जाता है. सेब की अच्छी फसल होने की वजह से यहां के बागवान समृद्ध हैं. अपनी सेब की फसलों को को ओलावृष्टि से बचाने के लिए कोटखाई तहसील की बाघी और रतनाड़ी पंचायतों के बागवानों ने खुद पहल की और सेब उत्पादन में अग्रणी देशों में शुमार न्यूजीलैंड में ओलों से बचाव के लिए प्रयोग की जाने वाली एंटी हेल गन को करीब डेढ़ करोड़ रुपये में खरीद कर अपने इलाके में स्थापित किया. पहली बार एंटी हेल गन बनाने वाले न्यूजीलैंड के माइक ईगर ने ही बागवानों को इसे चलाने की ट्रेनिंग दी थी.

ओलावृष्टि की दृष्टि से संवेदनशील है यह इलाका- बाघी और रतनाड़ी इलाका ओलावृष्टि के लिहाज से संवेदनशील है. कुछ वर्ष पहले यहां ओलों ने सेब की पूरी पैदावार तबाह कर दी थी. करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ था. यहां एंटी हेल नेट भी अधिक कामयाब नहीं हुए. कारण यह रहा कि वर्ष 2013 में बर्फबारी अधिक हुई और नेट पर बर्फ टिकने के कारण वे बर्बाद हो गए.

हिमाचल में 5 हजार करोड़ का सालाना सेब कारोबार- हिमाचल देश का एप्पल बाउल के नाम से जाना जाता है. यहां हर साल पांच हजार करोड़ रुपये के सेब का उत्पादन होता है. हिमाचल में विदेशी स्पर किस्मों का सेब पैदा किया जाता है. साथ ही, परंपरागत रॉयल किस्म भी उगाई जाती है. प्रदेश में सबसे अधिक सेब शिमला जिले में पैदा किया जाता है. इसके अलावा मंडी, कुल्लू, किन्नौर, चंबा जिले में भी सेब उगाया जाता है.

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