शिमला: देश-दुनिया में लगातार घटता भूमि जल स्तर भविष्य के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है. जल ही जीवन है, जल है तो कल है जैसे नारों के साथ कई संस्थाएं और सरकारें पानी बचाने की मुहिम का दावा तो करती हैं, लेकिन हकीकत किसी से छिपी नहीं है. सवाल है कि क्या जल संरक्षण वाकई मुश्किल है, जिन्हें जल संरक्षण रॉकेट साइंस लगता है उनके लिए शिमला का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज सबसे बेहतरीन उदाहरण है. जिस जल संरक्षण के लिए सरकारें माथापच्ची कर रही हैं. उसके लिए अंग्रेजों ने 132 बरस पहले ही एक ऐसा सिस्टम तैयार कर लिया था जो आज भी काम कर रहा है.
शिमला की खूबसूरती में चार चांद लगा रही ये ऐतिहासिक इमारत- आईआईएएस (IIAS) की इमारत शिमला की खूबसूरती में साल 1888 से चार चांद लगा रही है. देश-विदेश के कई छात्र यहां एडवांस स्टडीज के लिए आते हैं और हर साल लाखों पर्यटक इस इमारत और इसके आस-पास की खूबसूरती का दीदार करने आते हैं. आईआईएएस (IIAS) के आस-पास की हरियाली यहां पहुंचने वाले हर शख्स को सुकून देती है.
132 साल पुराना रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम- साल 1888 में ब्रिटिश काल में जब इस इमारत का निर्माण हुआ तो इसकी पहचान तत्कालीन वॉयसराय लॉर्ड डफलिन के घर के रूप में थी. वॉयसराय लॉज से होते हुए इस इमारत को आज इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के नाम से जानते हैं. 1888 में इस इमारत के निर्माण के साथ ही यहां एक रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाया गया, जिसके तहत इमारत के आस-पास जमीन के नीचे बड़े-बड़े टैंकों का निर्माण किया गया. जिन्हें इमारत में लगी उन पाइपों से जोड़ा गया. जिनके जरिए बारिश के वक्त छत पर इकट्ठा होने वाला पानी इन टैंक्स में भर जाए ताकि बारिश के वक्त छत में इकट्ठा होकर पाइप के जरिए बहकर बर्बाद होने वाले पानी को भविष्य में इस्तेमाल के लिए इकट्ठा किया जा सके.
30 एकड़ की हरियाली की होती है सिंचाई- इन टैंकों में इकट्ठा होने वाले बारिश के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि आईआईएएस (IIAS) करीब 99 एकड़ में फैला है, जिसमें से करीब 30 एकड़ पर बाग, बगीचे हैं. जिसकी सिंचाई साल भर इस बारिश के पानी से होती है. बरसात में इकट्ठा होने वाला ये पानी पूरे साल संस्थान के 30 एकड़ में फैली हरियाली को बरकरार रखने के लिए किया जाता है.
आज भी काम करता है सिस्टम- IIAS का निर्माण कार्य 1884 में शुरू हुआ और 1888 में ये इमारत बनकर तैयार हुई. लोक निर्माण विभाग के एक वास्तुकार हेनरी इरविन ने इसे डिजाइन किया और इस इमारत के निर्माण के साथ ही तय किया गया की पहाड़ी पर बने इस भवन में एक वर्षा जल संग्रहण सिस्टम बनाया जाएगा. इंडो गौथिक शैली में बनी इस इमारत में बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए छह टैंक बनाए गए हैं, जिनमें से चार बड़े टैंकों में बारिश का पानी इकट्ठा किया जाता है और इनकी क्षमता 12 लाख गैलन है. वक्त-वक्त पर इस सिस्टम को अपग्रेड भी किया गया. कभी यहां सिंचाई के लिए पाइपों का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन अब बगीचे के एक बड़े हिस्से को फव्वारों से सींचा जाता है. ये फव्वारे अब इस सिस्टम का हिस्सा हैं. ये सिस्टम पिछले 132 बरस से यहां अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है.
2018 के जल संकट में भी कारगर- साल 2018 में हिमाचल की राजधानी शिमला में जल संकट गहराया था. उस वक्त की गर्मियों में देश-विदेश के पर्यटक शिमला पहुंचे थे. जिसके चलते इस जल संकट ने इंटरनेशनल मीडिया में भी सुर्खियां बटोरी थी. IIAS के बागवानी विभाग के अधिकारी बताते हैं कि साल 2018 में भी यहां बने जल संरक्षण सिस्टम ने अपनी भूमिका अदा की. उस साल भी बारिश का पानी टैंकों में इकट्ठा किया गया और साल भर उसका इस्तेमाल सिंचाई के लिए किया गया. ये अंग्रेजों की दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि जल संकट के दौर में भी यहां की हरियाली बरकरार रही. सोचिये अगर ये सिस्टम न होता तो इस हरियाली को बरकरार रखने के लिए कितने पानी का इस्तेमाल होता और हो सकता है कि पानी की कमी के कारण ये हरियाली भी दम तोड़ देती.
पानी बचाना रॉकेट साइंस नहीं है- आज कई सरकारें और संस्थाएं बारिश के पानी को बचाने के लिए कई मास्टर प्लान और करोड़ों का बजट खर्च कर रही हैं. मैदानी इलाकों के मुकाबले पहाड़ों पर जल संचयन मुश्किल माना जाता है, लेकिन IIAS में 100 साल पहले बनाया गया सिस्टम बताता है कि बारिश का बचाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है और ज्यादातर इमारतों इस आसान तकनीक से बारिश के पानी को संचय किया जा सकता है. यहां पर इमारत से कुछ दूरी पर पानी के टैंकों का निर्माण किया गया ताकि इमारत के ढांचे को कोई नुकसान न हो. जमीन के नीचे बने पानी के टैंको को इमारत में लगी उन पाइपों से जोड़ा गया. ताकि बारिश के वक्त छत पर इकट्ठा होने वाला पानी इन पाइपों के सहारे जमीन के नीचे बने टैंक में इकट्ठा हो सके.
जल है तो कल है- बारिश का पानी एकमात्र जरिया है जिसका बेहतर ढंग से संचयन कर इस्तेमाल किया जा सकता है. हर साल बारिश का करीब 80 फीसदी से ज्यादा पानी यूं ही बह जाता है. जिसमें से एक बड़े हिस्से को इकट्ठा करके इस्तेमाल किया जा सकता है. बारिश के पानी बहता है तो वो गंदा भी होता है कई जगह बारिश का पानी नुकसान भी पहुंचाता है और बारिश के पानी के बह जाने के बाद इसे इस्तेमाल करने लायक बनाया जाता है. इससे बेहतर है कि छत पर स्टोर करने से लेकर पानी के टैंक बनाकर बारिश के पानी को इकट्ठा कर लें ताकि उसका इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर किया जा सके.
पानी बचाने के लिए नीति और नीयत जरूरी- कुल मिलाकर आईआईएएस (IIAS) में जल संरक्षण का 132 साल पुराना सिस्टम आज भी कारगर साबित हो रहा है और ये सिस्टम एक मिसाल है जो बताता है कि पानी बचाना इतना मुश्किल नहीं है. हिमाचल जल प्रबंधन निगम के पूर्व एमडी धर्मेंद्र गिल बताते हैं कि आईआईएएस (IIAS) में लगे जल संरक्षण के सिस्टम में सीमित संसाधनों का इस्तेमाल हुआ है. बारिश का पानी बचाने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल कुछ सरकारें और संस्थान कर रहे हैं वो सिस्टम पिछले 132 साल से शिमला की आईआईएएस (IIAS) में काम कर रहा है. इसलिये जल संरक्षण के लिए बेहतर नीति और अच्छी नीयत की जरूरत है.
विश्व जल दिवस का इतिहास-1992 में, रियो डी जिनेरियो में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुआ. उसी वर्ष, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव अपनाया, जिसके द्वारा प्रत्येक वर्ष के 22 मार्च को विश्व जल दिवस घोषित किया गया, इसे 1993 में शुरू किया गया. इसके बाद इसे अन्य समारोहों और आयोजनों से जोड़ा दिया गया. इसके तहत जल क्षेत्र में सहयोग का अंतरराष्ट्रीय वर्ष 2013, और सतत विकास के लिए पानी पर कार्रवाई के लिए वर्तमान अंतरराष्ट्रीय दशक 2018-2028 शामिल है. ये इस बात की पुष्टि करते हैं कि पानी और स्वच्छता के उपाय गरीबी में कमी, आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए अहम हैं.
इसे क्यों मनाया जाता है- विश्व जल दिवस एक अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षण दिवस है. इसका मकसद दुनिया भर के लोगों को पानी से संबंधित मुद्दों के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने और फर्क करने के लिए कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करना भी है. वहीं 2021 में, कोरोना वायरस महामारी या कोविड-19 के चलते लोगों द्वारा हाथ धोने और स्वच्छता पर अतिरिक्त ध्यान दिया जा रहा है. इसके अलावा जल की कमी, जल प्रदूषण, अपर्याप्त जल आपूर्ति, स्वच्छता की कमी और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी शामिल है.