कुल्लू: कुछ लोग सुविधाओं का रोना रोते हैं और सरकारी तंत्र से शिकायतें करते रहते हैं. आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है, जिसे सच कर दिखाया है देवभूमि कुल्लू के आनी ब्लॉक की शिल्ली पंचायत के दीपक ठाकुर ने. दीपक अपनी मेहनत और लगन से ज्ञान का ऐसा दीप जलाया है कि उसकी रोशनी से कई बागीचों में उजाला फैल गया है. बेशक सरकार के कानों तक दीपक ठाकुर की सफलता का शोर नहीं पहुंचा हो, लेकिन कुल्लू के इस लाल ने सफलता का एक पाठ रच दिया है, जिसे पढ़कर कोई भी कामयाबी की राह पर चल सकता है.
दीपक ठाकुर ने न तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है और न ही वे किसी मल्टीनेशनल इंजीनियरिंग कंपनियों के संपर्क में हैं, लेकिन उन्होंने ऐसी मशीनें तैयार (kullu deepak invent machine) कर दी है, जिनके जरिए वे बागवानी के काम आसानी से कर पा रहे हैं. दीपक ठाकुर एक दुर्गम गांव में रहते हैं और उनका बागीचा भी जटिल व दुर्गम इलाके में है. यहां सेब का तुड़ान करने से लेकर अन्य कार्य इतने मुश्किल भरे हैं. जिसे बयान नहीं किया जा सकता है. इन्हीं जटिल कार्यों को दीपक ठाकुर ने अपनी इनोवेटिव सोच से तैयार मशीनों से सुगम कर दिया है.
कुल्लू की आनी तहसील के शिल्ली पंचायत के बाईधार गांव में रहने वाले दीपक ठाकुर का मेहनती जीवन हर किसी के लिए प्रेरणा स्रोत हैं. चालीस वर्ष के दीपक ठाकुर दो दशक से बागवानी से जुड़े हैं. बागवानी उनके लिए जुनून की तरह है. आज से 18 साल पहले पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने सीधा बागीचे का रुख किया. दीपक ठाकुर का बागीचा सड़क से काफी दूर स्थित है और वहां जाने के लिए दो घंटे पैदल रास्ता तय करना होता है. बागीचा भी ऊंचाई पर स्थित है और खड़ी चढ़ाई चढ़ते वक्त शरीर पसीने से भीग जाता है. ऐसी स्थिति में बागीचे में पैदा सेब की ढुलाई किस कदर मुश्किल होगी, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.
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दीपक के अनुसार इन्हीं मुश्किलों ने उन्हें अविष्कार की तरफ जाने की प्रेरणा दी. सड़क के बिना बगीचे से उत्पाद को मंडियों तक पहुंचाना टेढ़ी खीर थी. बाईधार गांव की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि वहां आम तरह का विलेज रोपवे स्थापित (ropeway installed by deepak in kullu) करना असंभव था. उस समय पहला लक्ष्य उत्पाद को सड़क तक पहुंचाना था. इस जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने सोलह साल पहले यानी वर्ष 2002 में टॉवर से गुजरने वाले रोपवे का डिजाइन किया. चूंकि ऐसे रोपवे में काफी पैसा लगता, लिहाजा इफेक्टिव और कम लागत वाला रोपवे तैयार करने के तरीकों पर विचार किया.
दीपक ने इस रोपवे को ऐसे डिजाइन किया कि मार्केट में उपलब्ध साजो-सामान से ये दस गुणा कम खर्च तैयार किया जा सके. सोलह साल से ये रोपवे चल रहा है. इस रोपवे का अधिकतर सामान और कलपुर्जे दीपक ने घर पर ही तैयार किए. इसके लिए पहले ही दीपक ने सारी मशीनें खरीद कर घर में ही स्थापित कर ली थीं. उस समय यानी 2002-03 में यह 11 लाख की लागत से तैयार हो गया था.
दीपक ने इस सफलता की कहानी को आगे बढ़ाने का निश्चय किया. उन्होंने पाया कि बगीचे से गोदाम तक सेब पहुंचाने में काफी श्रम व समय लगता है. दीपक ने रोपवे तैयार करने के लिए जो मशीनें खरीदी थी, उन्हीं की सहायता से करीब 40 हजार रुपए का खर्च कर कबाड़ का इस्तेमाल किया और एक ऑल टैरेन व्हीकल बना डाला. यह व्हीकल ढलानों और चार फीट चौड़ी कच्ची सड़क पर आसानी से चल सकता है. यही नहीं, चार सौ किलोग्राम भार उठाने की क्षमता रखता है. इसमें सेब के 11 क्रेट्स आ जाते हैं. यह 2 से 3 लीटर पेट्रोल कंज्यूम कर दिन भर काम करने में सक्षम है.
साल 2012 में दीपक ने सघन बागवानी में हाथ आजमाने की सोची. इसके लिए उन्होंने एम-9, एम-7 व एमएम-106 के करीब चार हजार रूटस्टॉक खरीदे. इसके लिए स्पोर्ट अथवा वायर ट्राइलिसिस की जरूरत होती है, चूंकि ये खुद अपनी जड़ों पर खड़े नहीं रह सकते, इसलिए उन्हें सीधी लाइनों में लगाने की जरूरत होती है. दीपक के बगीचे की जमीन ऊबड़-खाबड़ और पथरीली थी. यहां आधुनिक तरीके से सीधी लाइनों में श्रमिकों की मदद से प्लांटेशन करना खर्चीला काम था. इसके साथ ही मुश्किलों से भरा भी. दीपक ने इसका तोड़ निकाला और रूट स्टॉक को एक नर्सरी की तरह एक ही जगह इकट्ठा लगा दिया.
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सड़क न होने की वजह से दीपक ने एक ऐसी खनन वाली मशीन बनानी थी, जिसका सामान आसानी से सड़क से दूर बगीचे में पहुंचाया जा सके. इसके लिए दीपक ने ढाई टन क्षमता वाली एक खनन मशीन का डिजाइन तैयार किया, जिसे वे आसानी से घर पर ही बना सकते थे. इसके लिए दीपक ने दिल्ली से ऑर्डर पर हाइड्रोलिक सिलेंडर, हाइड्रोलिक पंप, कंट्रोल वाल्व और हौज पाइप आदि सामान मंगवाया. इसके अतिरिक्त सारा ढांचा कबाड़ से घर पर ही तैयार कर दिया. दिल्ली से सामान आने के बाद बीस दिन के अंतराल में ही मशीन तैयार कर दी गई. साल 2012 में मशीन तैयार करने में ढाई लाख रुपए लगे. बाद में कुछ और सुधार किया तो ये लागत तीन लाख पहुंच गई.
दीपक बताते हैं कि अब ये मशीन अपनी लागत से कहीं अधिक कमा कर दे चुकी है. समय व श्रम की बचत अलग से है. इसी मशीन की मदद से सघन बागवानी का सपना पूरा हो पाया और पूरे बगीचे में अपनी ऑल टैरेन व्हीकल चलाने के लिए रोड भी इसी के जरिए बन पाया. दीपक इससे आगे के सफर का जिक्र करते हैं. उन्होंने साल 2010 में सेब की ग्रेडिंग के लिए मशीन खरीदी. उस मशीन की ग्रेड करने की एक दिन में क्षमता सौ पेटी थी. उन्हें ग्रेड किए हुए सेब को कलेक्शन ट्रे से पैकर्स तक पहुंचाना होता था. इससे भी श्रम व समय अधिक लगता था. दीपक ने अपने ही स्तर पर मशीन में सुधार किया और सौ पेटी ग्रेडिंग करने वाली मशीन अब एक हजार पेटी प्रतिदिन ग्रेड करने लगी. यही नहीं, दीपक ने इसमें अतिरिक्त फीचर जोड़े जिससे सारा सेब ग्रेड होकर अलग-अलग पैकर्स तक खुद पहुंच जाता है. यही नहीं, सेब ढेरियों में इकट्ठा होता है, जिससे पैकर्स को भी बैठकर ढेरी से छांटने और सेब पैक करने में आसानी होती है.
दीपक के अविष्कार यहीं नहीं रुके. इसके अलावा उन्होंने सेब की पेटियों को स्पैन तक उठाने के लिए 16 पेटियों को एक बार में उठाने वाली लिफ्ट तैयार की. ये लिफ्ट 40 मिनट में 550 पेटियों उठाने की क्षमता रखती थी, लेकिन लिफ्ट तक पेटियां पहुंचाने और लोड-अनलोड करने के लिए अधिक लेबर की जरूरत पड़ती थी. दीपक ने इसके लिए एक चेन कन्वेयर लगा दी. अब दो ही लोगों से काम निकल जाता है. एक लोड करने के लिए और दूसरा अनलोड करने के लिए. दीपक लिफ्ट का प्रयोग अब सी-ग्रेड के सेब की बोरियों को उठाने के लिए करते हैं.
दीपक का आगामी लक्ष्य अब सेब बागीचों को ओलों से बचाने का है. एंटीहेल नेट के इस्तेमाल को वे एक आसान, सस्ते व टिकाऊ तरीके के रूप में स्थापित करने में जुटे हैं. यही नहीं, दीपक ठाकुर स्प्रे के लिए विदेशी तकनीक पर एक स्प्रे करने वाले व्हीकल को भी डिजाइन कर रहे हैं. यह तकनीक हिमाचल की भौगौलिक स्थिति के अनुरूप होगी. इसमें बिना किसी सीधी पंक्ति के बागीचों में भी (सिडलिंग पर पारंपरिक तरीके से लगे पेड़) उनमें भी काम कर सके. इस तरीके से बगीचों में भी एक ही आदमी स्प्रे कर सकेगा. वे एक चिप्पर श्रेडर का निर्माण भी करना चाहते हैं, ताकि पौधों की काट-छांट के बाद काटी गई टहनियों को जलाना ना पड़े. बल्कि उसके बारीक टुकड़े कर जमीन में ही डाला जाए. हरी टहनियों को जलाने से जो वातावरण प्रदूषित होता है, वो इससे रुक सकेगा. साथ ही टहनियों में मौजूद कीमती न्यूट्रिएंट्स फिर से जमीन में पहुंच जाएंगे.
दीपक ठाकुर की इस लगन और मेहनत को सलाम करने के लिए आसपास के बागवान उनके कर्म क्षेत्र में पहुंचते हैं. दु:ख की बात है कि किसानी-बागवानी वाले प्रदेश में दीपक का हौसला बढ़ाने के लिए न तो व्यवस्था आगे आई न ही नौकरशाही और राजनेता. दीपक ठाकुर को हालांकि इसे लेकर कोई शिकायत नहीं है, लेकिन वे चाहते हैं कि प्रदेश के दुर्गम इलाकों के बागवान अपनी मुश्किलों को खुद आसान करें और सरकार भी उनकी मदद के लिए आगे आए. वास्तव में दीपक ठाकुर जैसे श्रमशील लोग ही इस पहाड़ी प्रदेश की पूंजी है.