कुल्लू: हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है. यहां इस त्योहार को दशमी कहते हैं. जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है. उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव इस बार 50 साल पुराने रूप में नजर आएगा. इस बार दशहरा उत्सव में न तो व्यापारिक गतिविधियां होंगी और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम. सिर्फ देवता और उनके रथ ही ढालपुर मैदान की शोभा बढ़ाएंगे.
पिछले साल लगी कोरोना की बंदिशों के बाद प्रशासन ने इस बार मेला आयोजित करने का निर्णय लिया है. प्रशासन ने इस साल 332 देवी-देवताओं को निमंत्रण भेजा गया है. 15 से 21 अक्टूबर तक कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव को लेकर सालभर देवी-देवता और आमजन इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं. दशहरा उत्सव का आयोजन 1660 से लगातार किया जा रहा है. साल 2020 में दशहरा उत्सव में देव परपंराओं का निर्वहन करने के लिए मात्र सात देवी-देवताओं को बुलाया गया था. जबकि दशहरा में 11 देवी-देवता शामिल हुए थे. भले ही दशहरा में देवी-देवताओं को निमंत्रण देने की परंपरा 1961 के बाद शुरू हुई. इसके बाद से ही नजराना देने का दौर भी शुरू हुआ.
शांति और विजय के प्रतीक इस उत्सव में रथयात्रा का मार्ग बदलने के कारण 1971 में विवाद हुआ था. इस वजह से उस दौरान गोली चलने से एक व्यक्ति की मौत हुई थी. इस विवाद की वजह से भगवान रघुनाथ जी दो साल तक मेले में शामिल नहीं हुए. कुल्लू जिले में करीब 2000 से अधिक देवी-देवता प्रतिष्ठापित हैं. ऐसे में अभी जिले के कई देवी-देवता दशहरा उत्सव में भाग नहीं लेते हैं. इसमें कुल्लू की लगघाटी और महाराजा कोठी सहित दूर-दराज इलाके आनी निरमंड के कई देवी-देवता नहीं आते हैं. इस देव महाकुंभ में शामिल होने के लिए जिले के देवी-देवता सोने का श्रृंगार कर कुल्लू पहुंचते हैं. आम दिनों में देवी-देवता चांदी के जेवरों का श्रृंगार करते हैं. इस वर्ष भी जिलेभर से देवी-देवता दशहरा उत्सव में भाग लेंगे.
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव 15 से 21 अक्टूबर तक मनाया जाएगा. वहीं, आनी व निरमंड से दशहरा उत्सव में भाग लेने के लिए करीब 200 किलोमीटर दूर से देवता पहुंचते हैं. दशहरा उत्सव में देव मिलन की अनूठी परंपरा वहन होती है. इस बार प्रशासन ने 332 देवी-देवताओं को निमंत्रण भेजा है. ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार बैठने को लेकर काफी गहमागहमी हो सकती है. अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव के आयोजन के पीछे भी एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है. इसका आयोजन कुल्लू के राजा जगत सिंह के शासनकाल में आरंभ हुआ. राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 तक शासन किया. उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी. इसके बाद राजधानी को राजा जगत सिंह ने सुल्तानपुर में स्थापित की.
राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था और एक दिन राजा जगत सिंह धार्मिक स्नान के लिए मणिकर्ण तीर्थ स्थान पर जा रहे थे. किसी ने राजा को यह झूठी सूचना दी कि दुर्गादत्त के पास एक पाथा (डेढ़ किलो) सच्चे मोती हैं, जो आपके राज महल से चुराए हैं. उसके बाद राजा ने बिना सोचे-समझे आदेश दिया कि दुर्गादत्त ने मोती नहीं लौटाए तो उसे परिवार सहित समाप्त किया जाए. इस पर दुर्गादत्त ने ठान लिया कि वह राजा के सैनिकों के पहुंचने से पहले ही परिवार सहित जीवन लीला समाप्त कर लेगा और दुर्गादत्त ने परिवार को घर में बंद कर आग लगा दी वहीं, खुद घर के बाहर खड़ा होकर अपना मास काटकर आग में फैकता रहा और कहता रहा, ‘ले राजा तेरे मोती.
इस दौरान राजा जगत सिंह पास से ही गुजर रहे थे. सारा मामला देखकर उन्हें पश्चाताप हुआ और बाद में ब्राह्मण की मौत के दोष के चलते राजा को कुष्ठ रोग हो गया. कुष्ठ रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक प्योहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाट भगवान रघुनाथ को सौंप देंगे तो उन्हें इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी.
राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा. दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकरड़ाह पहुंचे. माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं. वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया.
राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबरदार बने. कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया. इससे राजा को कुष्ट रोग से मुक्ति मिल गई. राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की. तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के हर इलाके से पधारे देवी-देवताओं का महा सम्मेलन यानी दशहरा मेले का आयोजन अनवरत चला आ रहा है.
साल 1966 में दशहरा उत्सव को राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा दिया गया और 1970 को इस उत्सव अंतरराष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा तो हुई, लेकिन मान्यता नहीं मिली. इसके बाद करीब 47 साल बाद यानी 2017 में इसे अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा प्राप्त हुआ है. दशहरा उत्सव के दौरान राज परिवार प्राचीन परम्पराओं का निर्वाहन करता है. भगवान रघुनाथ की पूजा, हार-श्रृंगार, नरसिंह भगवान की जलेब के साथ लंका दहन की प्राचीन परम्परा भी निभाई जाती है. भाजपा नेता और पूर्व सांसद और पूर्व विधायक महेश्वर सिंह भगवान रघुनाथ के मुख्य छड़ीबरदार हैं.
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा पर्व के पहले दिन दशहरे की मुख्य देवी हिडिंबा मनाली से कुल्लू आती हैं. इन्हें राजघराने की देवी माना जाता है. कुल्लू के प्रवेशद्वार पर देवी का स्वागत किया जाता है और उनका राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में प्रवेश होता है. हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं. इसके बाद ढालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है.
रथयात्रा के दौरान लकड़ी के रथ में भगवान रघुनाथ की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता और देवी हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है. पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है. रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है. राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना हो जाते हैं. दशहरा उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं, जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं.
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