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यूनिसेफ की रिपोर्ट ने किया आगाह, बच्चों की मेंटल हेल्थ का ख्याल रखना क्यों जरूरी है ?

मेंटल हेल्थ या मानसिक सेहत एक ऐसा विषय है, जिस पर भारत के आम घरों में चर्चा नहीं होती है. भारत के अधिकतर इलाकों में यह पता भी नहीं है कि मेंटल हेल्थ होती क्या है और किन कारणों से इस पर असर पड़ता है. मानसिक रूप से परेशान लोगों के लिए बस एक ही लाइन है..दिमाग खराब हो गया है.

UNICEF report
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Published : Oct 9, 2021, 5:15 PM IST

हैदराबाद : कोरोना ने वैसे तो हर उम्र और तबके के लोगों पर बुरा असर डाला है मगर बच्चों और युवाओं के मेंटल हेल्थ को ज्यादा प्रभावित किया है. 2019 में इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री के अनुसार, कोरोना महामारी से पहले भी, भारत में कम से कम 50 मिलियन बच्चे मानसिक स्वास्थ्य ( mental disorder ) के मुद्दों से प्रभावित थे. कोरोना के दौर में ऐसे बच्चों की तादाद बढी है. यूनिसेफ के अनुसार, भारत में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के 14 प्रतिशत किशोर और युवा डिप्रेशन के शिकार हैं. स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2021 के अनुसार, वैश्विक स्तर पर भी 9 से 19 साल ऐज ग्रुप के 7 में एक बच्चा मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम से जूझ रहा है. यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि 13 फीसदी बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर कोरोना का असर लंबे समय तक रहेगा.

UNICEF report
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने यूनिसेफ की रिपोर्ट जारी की थी.

41 फीसद युवा अपनी परेशानी शेयर नहीं करते

सिर्फ मानसिक रूप से परेशान युवा और बच्चों की परेशानी चिंताजनक तो है ही. उससे अधिक गंभीर विषय यह है कि भारत में केवल 41 प्रतिशत युवा ही किसी परिचित, परिवार या दोस्त से अपनी मानसिक परेशानी के बारे में बात करना या मदद लेना चाहते हैं. यानी डिप्रेशन के शिकार 59 प्रतिशत युवा या तो अपनी मेंटल स्टेटस के बारे में जानते ही नहीं या इस बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. यूनिसेफ ने जब सर्वेक्षण किया तो यह सामने आया कि जर्मनी, अमेरिका फ्रांस, जापान में समेत 21 देशों के 83 फीसदी लोग अपनी बीमारी के बारे में खुलकर डॉक्टर या लोगों से बात करना पसंद करते हैं.

UNICEF report
भारत में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के 14 प्रतिशत किशोर और युवा डिप्रेशन के शिकार हैं

मेंटल स्टेटस शेयर नहीं करते तो बुरा क्या है?

अगर आप यह मानते हैं कि कोई अपनी मेंटल स्टेटस को जाहिर नहीं करना चाहता तो बुरा क्या है? उसकी मर्जी बात करे या न करे. यह धारणा गलत है. सबसे पहले यह जान लें कि मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे लोगों को समाधान तभी मिलता है, जब वह अपनी प्रॉब्लम शेयर करता है. अपनी टेंशन शेयर करने वाले 56 से 95 प्रतिशत युवाओं ने महसूस किया कि थॉट शेयरिंग मेंटल हेल्थ के मुद्दों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है. प्रॉब्लम बताने के बाद ही इलाज की संभावना बढ़ती है.

mental disorder से देश का आर्थिक नुकसान हो रहा है

किशोरों और युवाओं की मेंटल हेल्थ के कारण देशों का आर्थिक नुकसान हो रहा है. इस कारण वैश्विक अर्थवस्था को प्रति वर्ष 387.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो रहा है. यानी अगर मानसिक परेशानी से जूझ रहे 15 से 25 के युवा अगर काम करते तो अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्था में कुल मिलाकर 387.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान देते. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2012-2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के कारण भारत में आर्थिक नुकसान 1.03 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है. सरकार नागरिकों के मेंटल हेल्थ पर चिंता तो जाहिर करती है मगर इसके समाधान पर बहुत कम खर्च करती है. मानसिक स्वास्थ्य जरूरतों और नैशनल हेल्थ फंडिंग के बीच व्यापक अंतर बना हुआ है. इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री 2017 के अनुसार, भारत ने मानसिक स्वास्थ्य पर सालाना स्वास्थ्य बजट का केवल 0.05 प्रतिशत खर्च किया है.

UNICEF report
9 से 19 ऐज ग्रुप के 7 बच्चों में से एक मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम से जूझ रहा है.

बच्चों और युवाओं की मानसिक सेहत क्यों बिगड़ी

  1. यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, कोरोना के कारण 2020-2021 के बीच भारत में क्लास 6 तक के 286 मिलियन से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जा पाए. डिजिटल क्लासेज में सिर्फ 60 फीसदी बच्चे पढ़ सके.
  2. घरों के आसपास कोरोना के कारण हुई मौतों, बीमारी की घटनाओं और बचाव के तौर-तरीकों ने भी बच्चों के मेंटल हेल्थ पर प्रभाव डाला.
  3. अचानक बदली दिनचर्या, नए तौर-तरीके, मनोरंजन और आउटडोर एक्टिविटी की कमी ने भी उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया.
  4. जिन परिवारों की आय कोरोना के कारण प्रभावित हुई, उनमें बच्चों की मानसिक सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव डाला.
  5. जो बच्चे घर में या आसपास महिलाओं से मारपीट या हिंसा यानी घरेलू दुर्व्यवहार के साक्षी बने, वह भी अवसाद के शिकार हो गए.
  6. युवा कोरोना काल में अपने भविष्य के लिए भयभीत और चिंतित रहे. इसका पढ़ाई और करियर पर सीधा असर पड़ा.

जानिए इलाज नहीं हुआ तो क्या होगा ?

अगर बच्चों और युवाओं की मेंटल हेल्थ की चिंता नहीं की गई वह अटेंशन डिफेसिट हाइपर एक्टिविटी डिस्ऑर्डर (ADHD) के शिकार हो जाएंगे. यह ऐसी बीमारी है, जिसमें ध्यान की कमी या अत्यधिक सक्रियता आ जाती है. इसके अलावा डिप्रेशन, विहेवियर और ईटिंग डिस्ऑर्डर और सिज़ोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारी के शिकार हो सकते हैं. इसके अलावा मेंटल हेल्थ में गड़बड़ी के कारण ही बच्चे और किशोर खुदकुशी करते हैं. दुनिया में हर साल 10 से 19 साल के 46,000 बच्चे और किशोर आत्महत्या कर लेते हैं.

UNICEF
photo courtesy - UNICEF

प्रारंभिक इलाज तो परिवार में ही मिलता है

यूनीसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बच्चे शुरुआती दिनों से आनुवांशिकी, अनुभव और पर्यावरण के कारण प्रभावित होते हैं. पालन-पोषण, स्कूली शिक्षा, रिश्तों की गुणवत्ता, हिंसा या दुर्व्यवहार के संपर्क में आने, भेदभाव, गरीबी, मानवीय संकट बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को जीवन भर के लिए आकार देते हैं. इसलिए बच्चों को सुरक्षा और प्यार की भावना के साथ पालना जरूरी है.

हैदराबाद : कोरोना ने वैसे तो हर उम्र और तबके के लोगों पर बुरा असर डाला है मगर बच्चों और युवाओं के मेंटल हेल्थ को ज्यादा प्रभावित किया है. 2019 में इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री के अनुसार, कोरोना महामारी से पहले भी, भारत में कम से कम 50 मिलियन बच्चे मानसिक स्वास्थ्य ( mental disorder ) के मुद्दों से प्रभावित थे. कोरोना के दौर में ऐसे बच्चों की तादाद बढी है. यूनिसेफ के अनुसार, भारत में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के 14 प्रतिशत किशोर और युवा डिप्रेशन के शिकार हैं. स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2021 के अनुसार, वैश्विक स्तर पर भी 9 से 19 साल ऐज ग्रुप के 7 में एक बच्चा मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम से जूझ रहा है. यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि 13 फीसदी बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर कोरोना का असर लंबे समय तक रहेगा.

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केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने यूनिसेफ की रिपोर्ट जारी की थी.

41 फीसद युवा अपनी परेशानी शेयर नहीं करते

सिर्फ मानसिक रूप से परेशान युवा और बच्चों की परेशानी चिंताजनक तो है ही. उससे अधिक गंभीर विषय यह है कि भारत में केवल 41 प्रतिशत युवा ही किसी परिचित, परिवार या दोस्त से अपनी मानसिक परेशानी के बारे में बात करना या मदद लेना चाहते हैं. यानी डिप्रेशन के शिकार 59 प्रतिशत युवा या तो अपनी मेंटल स्टेटस के बारे में जानते ही नहीं या इस बारे में बात नहीं करना चाहते हैं. यूनिसेफ ने जब सर्वेक्षण किया तो यह सामने आया कि जर्मनी, अमेरिका फ्रांस, जापान में समेत 21 देशों के 83 फीसदी लोग अपनी बीमारी के बारे में खुलकर डॉक्टर या लोगों से बात करना पसंद करते हैं.

UNICEF report
भारत में 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के 14 प्रतिशत किशोर और युवा डिप्रेशन के शिकार हैं

मेंटल स्टेटस शेयर नहीं करते तो बुरा क्या है?

अगर आप यह मानते हैं कि कोई अपनी मेंटल स्टेटस को जाहिर नहीं करना चाहता तो बुरा क्या है? उसकी मर्जी बात करे या न करे. यह धारणा गलत है. सबसे पहले यह जान लें कि मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे लोगों को समाधान तभी मिलता है, जब वह अपनी प्रॉब्लम शेयर करता है. अपनी टेंशन शेयर करने वाले 56 से 95 प्रतिशत युवाओं ने महसूस किया कि थॉट शेयरिंग मेंटल हेल्थ के मुद्दों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है. प्रॉब्लम बताने के बाद ही इलाज की संभावना बढ़ती है.

mental disorder से देश का आर्थिक नुकसान हो रहा है

किशोरों और युवाओं की मेंटल हेल्थ के कारण देशों का आर्थिक नुकसान हो रहा है. इस कारण वैश्विक अर्थवस्था को प्रति वर्ष 387.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो रहा है. यानी अगर मानसिक परेशानी से जूझ रहे 15 से 25 के युवा अगर काम करते तो अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्था में कुल मिलाकर 387.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान देते. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, 2012-2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के कारण भारत में आर्थिक नुकसान 1.03 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है. सरकार नागरिकों के मेंटल हेल्थ पर चिंता तो जाहिर करती है मगर इसके समाधान पर बहुत कम खर्च करती है. मानसिक स्वास्थ्य जरूरतों और नैशनल हेल्थ फंडिंग के बीच व्यापक अंतर बना हुआ है. इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री 2017 के अनुसार, भारत ने मानसिक स्वास्थ्य पर सालाना स्वास्थ्य बजट का केवल 0.05 प्रतिशत खर्च किया है.

UNICEF report
9 से 19 ऐज ग्रुप के 7 बच्चों में से एक मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम से जूझ रहा है.

बच्चों और युवाओं की मानसिक सेहत क्यों बिगड़ी

  1. यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, कोरोना के कारण 2020-2021 के बीच भारत में क्लास 6 तक के 286 मिलियन से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जा पाए. डिजिटल क्लासेज में सिर्फ 60 फीसदी बच्चे पढ़ सके.
  2. घरों के आसपास कोरोना के कारण हुई मौतों, बीमारी की घटनाओं और बचाव के तौर-तरीकों ने भी बच्चों के मेंटल हेल्थ पर प्रभाव डाला.
  3. अचानक बदली दिनचर्या, नए तौर-तरीके, मनोरंजन और आउटडोर एक्टिविटी की कमी ने भी उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया.
  4. जिन परिवारों की आय कोरोना के कारण प्रभावित हुई, उनमें बच्चों की मानसिक सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव डाला.
  5. जो बच्चे घर में या आसपास महिलाओं से मारपीट या हिंसा यानी घरेलू दुर्व्यवहार के साक्षी बने, वह भी अवसाद के शिकार हो गए.
  6. युवा कोरोना काल में अपने भविष्य के लिए भयभीत और चिंतित रहे. इसका पढ़ाई और करियर पर सीधा असर पड़ा.

जानिए इलाज नहीं हुआ तो क्या होगा ?

अगर बच्चों और युवाओं की मेंटल हेल्थ की चिंता नहीं की गई वह अटेंशन डिफेसिट हाइपर एक्टिविटी डिस्ऑर्डर (ADHD) के शिकार हो जाएंगे. यह ऐसी बीमारी है, जिसमें ध्यान की कमी या अत्यधिक सक्रियता आ जाती है. इसके अलावा डिप्रेशन, विहेवियर और ईटिंग डिस्ऑर्डर और सिज़ोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारी के शिकार हो सकते हैं. इसके अलावा मेंटल हेल्थ में गड़बड़ी के कारण ही बच्चे और किशोर खुदकुशी करते हैं. दुनिया में हर साल 10 से 19 साल के 46,000 बच्चे और किशोर आत्महत्या कर लेते हैं.

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प्रारंभिक इलाज तो परिवार में ही मिलता है

यूनीसेफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बच्चे शुरुआती दिनों से आनुवांशिकी, अनुभव और पर्यावरण के कारण प्रभावित होते हैं. पालन-पोषण, स्कूली शिक्षा, रिश्तों की गुणवत्ता, हिंसा या दुर्व्यवहार के संपर्क में आने, भेदभाव, गरीबी, मानवीय संकट बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को जीवन भर के लिए आकार देते हैं. इसलिए बच्चों को सुरक्षा और प्यार की भावना के साथ पालना जरूरी है.

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