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उत्तराखंड से हिमाचल तक पावर प्रोजेक्ट और फोरलेन निर्माण से कमजोर हो रहे पहाड़, एक्सपर्ट बोले- विकास परियोजनाओं के पोस्टमार्टम की है जरूरत

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 14, 2023, 5:21 PM IST

12 नवंबर के दिन जब पूरा देश दिवाली के जश्न में डूबा था, उस समय उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्कयारा सुरंग में मलबा गिरने से 40 मजदूर फंस गए, जिन्हें अभी तक निकाला नहीं जा सका है. इसी के साथ पूरे देश में पहाड़ी राज्यों में विकास के नाम पर अंधाधुन निर्माण को लेकर बहस छिड़ गई है. बांध, सड़क और सुरंग के लिए खोदे जा रहे पहाड़ों की वजह से उत्तराखंड और हिमाचल भूस्खलन और आपदा का दंश झेल रहा है. पढ़िए पूरी खबर...

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शिमला: पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्कयारा सुरंग में मलबा आने से 40 मजदूर अंदर फंसे हुए हैं. इस हादसे ने एक बार फिर से पहाड़ों पर अंधाधुंध निर्माण को लेकर बहस छेड़ दी है. वहीं, छोटा पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश भी हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स और फोरलेन निर्माण के कारण पहाड़ों से छेड़छाड़ का दंश झेल रहा है. हिमाचल में हर साल निर्माण के कारण कमजोर हुए पहाड़ों में भूस्खलन होता रहता है. इन हादसों में जान-माल का भारी नुकसान होता है. हिमाचल के बिलासपुर के टीहरा में भी 2015 में उत्तराखंड के सिलक्यारा टनल जैसा हादसा हो चुका है. हालांकि, उस हादसे में सुरंग के भीतर फंसे दो श्रमिकों को बचा लिया गया था. जबकि एक श्रमिक की मलबे में दबने से मौत हो गई थी. दुखद ये रहा कि मजदूर की शव 9 माह बाद मिल पाया था.

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उत्तरकाशी टनल हादसे में फंसे मजदूर

टीहरा सुरंग निर्माण के दौरान हादसा: हिमाचल में किरतपुर-नेरचौक-मनाली फोरलेन निर्माण के दौरान वर्ष 2015 में मलबा आने से तीन मजदूर सुरंग में फंस गए थे. टीहरा में सुरंग निर्माण का काम आईएल एंड एफएस कंपनी करवा रही थी. दो श्रमिकों को तो हादसे के 10 दिन बाद निकाल लिया गया था. स्थानीय लोगों का आरोप था कि ये हादसा अनियंत्रित और अवैज्ञानिक कटिंग के कारण हुआ था. हालांकि, अब टीहरा सुरंग बनकर तैयार है, लेकिन स्थानीय लोग अभी भी 2015 का हादसा नहीं भूले हैं. किरतपुर-मनाली फोरलेन के निर्माण में टीहरा सुरंग दूसरी सबसे बड़ी सुरंग है. पिछले साल सितंबर को ही इस टनल को सुचारू किया गया था. इस सुरंग की लंबाई 1265 मीटर है. वर्ष 2015 में सुरंग का एक हिस्सा धंस गया था. तब इसमें तीन श्रमिक दब गए थे. मनीराम व सतीश तोमर नामक श्रमिक दसवें दिन सुरक्षित निकाल लिए गए थे. जबकि एक श्रमिक हृदयराम की मौत हो गई थी.

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बिलासपुर में सुरंग हादसे में हुई थी मजदूर की मौत

कमजोर पहाड़ बनते हैं मौत का कारण: हिमाचल में कई जगह पहाड़ कमजोर भी हैं. ऐसा मिट्टी, चट्टानों व स्थान विशेष में पहाड़ की बनावट के कारण है. दर्दनाक हादसों की बात की जाए तो अगस्त 2017 में मंडी के कोटरोपी में पहाड़ धंसने से एचआरटीसी की बस दब गई थी. उस हादसे में 47 लोगों की जान चली गई थी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट ने कोटरूपी हादसे की विस्तृत जांच के साथ हादसे के कारणों व परिणाम पर रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी. इस रिपोर्ट में दर्ज किया गया था कि कोटरूपी का इलाका कमजोर मिट्टी वाला है. कोटरूपी में जिस जगह हादसा हुआ था, वहां सबसे पहले 1977 में भूस्खलन हुआ था. हर दो दशक में कोटरूपी में भूस्खलन हुआ है. वर्ष 1977 के बाद वर्ष 1997 और फिर वर्ष 2017 में यहां हादसा हुआ है. इनमें वर्ष 2017 का हादसा कभी न भूलने वाले जख्म दे गया.

कुल्लू के लुगड़भट्टी में मलबे में दबे थे 65 लोग: हिमाचल के इतिहास में अब तक जो बड़े और भयावह भूस्खलन हुए हैं, उनमें कुल्लू जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर छरूड़ू के पास लुगड़भट्टी हादसा प्रमुख है. यहां 12 सितंबर 1995 को भयावह भूस्खलन में मलबे के नीचे 65 लोग दबकर मर गए थे. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट ने अपनी रिपोर्ट में 65 लोगों के जिंदा मलबे में दबने की रिपोर्ट दी है, लेकिन आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि तब हादसे में 39 लोगों की मौत हुई थी. यहां कच्चे मकान थे और श्रमिक रहते थे. पूरी पहाड़ी धंस गई थी. स्थानीय जनता का मानना है कि हादसे में सौ से अधिक लोग मारे गए थे.

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हिमाचल में अंधाधुन निर्माण से निर्माण से कमजोर हो रहे पहाड़

1968 में किन्नौर के मालिंग नाला में भारी भूस्खलन: इसके अलावा हिमाचल में 1968 में किन्नौर के मालिंग नाला में भारी भूस्खलन हुआ. उसमें एक किलोमीटर तक नेशनल हाइवे बह गया था. ये जगह अभी भी लैंडस्लाइड के नजरिए से संवेदनशील है. फिर दिसंबर 1982 में किन्नौर में शूलिंग नाला में भूस्खलन हुआ. उस हादसे में तीन पुल और डेढ़ किलोमीटर लंबी सड़क ध्वस्त हो गई. मार्च 1989 में रामपुर के झाकड़ी में आधा किलोमीटर सड़क बर्बाद हो गई. यहां की जमीन और पहाड़ियां अभी भी धंसाव की दृष्टि से संवेदनशील है.

किन्नौर का नारा है-नहीं का मतलब नहीं है: जनजातीय जिला किन्नौर हादसों को लेकर बहुत संवेदनशील है. यहां हाईड्रो प्रोजेक्ट्स ने पहाड़ों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अब स्थानीय लोगों ने नारा दिया है-नहीं का मतलब नहीं है. यानी यहां और निर्माण नहीं करने दिया जाएगा. हाईड्रो प्रोजेक्ट्स ने यहां का पारिस्थितकीय संतुलन बिगाड़ दिया है. भूवैज्ञानिक संजीव शर्मा के अनुसार किन्नौर की चट्टानें वैसे भी मजबूत नहीं हैं. किन्नौर से संबंध रखने वाले पूर्व आईएएस अफसर आरएस नेगी भी यहां आने वाली आपदाओं को जलविद्युत परियोजनाओं से जोड़ते हैं. किन्नौर में करछम-वांगतू, बास्पा, शौंग-टौंग, नाथपा-झाकड़ी जैसी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के कारण पहाड़ को नुकसान हुआ है. पूर्व आईएएस आरएस नेगी के अनुसार जिला की पहाड़ियों पर पेड़ों की संख्या भी कम हुई है. इसके अलावा अवैध निर्माण, अवैध खनन और नदी-नालों के आसपास मकानों के निर्माण से भी स्थितियां खराब हुई हैं.

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फोरलेन निर्माण से बढ़ा लैंडस्लाइड का खतरा

चट्टाने खिसकने के कारण होते हैं हादसे: जुलाई 2021 में किन्नौर के बटसेरी में चट्टाने खिसकने से नौ सैलानियों की मौत हुई थी. कारण वही रहे यानी पहाड़ कमजोर हैं और चट्टानें भीं. बारिश के कारण भूस्खलन हो गया. पहाड़ से चट्टानें खिसकती हैं तो बड़े पत्थर तेज गति से नीचे आते हैं. उनकी गति किस कदर तेज होती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बड़ा पत्थर जैसे ही लोहे के पुल पर गिरा, पुल टूटकर नदी में जा गिरा. स्थानीय लोगों के अनुसार बटसेरी में पहाड़ से पत्थर कुछ समय से गिर रहे थे. पर्यावरणविद् भगत सिंह नेगी का कहना है कि दो दशक में जनजातीय जिला में कई निर्माण कार्य हुए हैं. फिर किन्नौर के मालिंग नाला आदि कच्चे पत्थर वाले इलाके हैं. यहां पहाड़ से भूस्खलन होता रहता है. किन्नौर में पागल नाला, पुरबनी झूला, लाल ढांक, टिंकू नाला, में अकसर हादसे होते रहते हैं.

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हिमाचल में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट निर्माण

ऑल वेदर रोड जैसी परियोनाओं की समीक्षा होनी चाहिए: हिमालयी पर्यावरण पर काम कर रहे भू-वैज्ञानिक डॉ. ओम प्रकाश भूरेटा के अनुसार उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड जैसी परियोनाओं की समीक्षा होनी चाहिए. हिमाचल और उत्तराखंड बेहद संवेदनशील हैं. यहां पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण से हादसे हो रहे हैं. इन हादसों से निपटने के लिए होलेस्टिक एप्रोच की जरूरत है. परियोजनाओं के लिए ब्लास्टिंग पूरी तरह से वैज्ञानिक होनी चाहिए. डॉ. भूरेटा के अनुसार उत्तराखंड में 2016 में शुरू हुई 12,000 करोड़ रुपये की चार धाम परियोजना की भी समीक्षा जरूरी है. इस परियोजना में होटल और अन्य बुनियादी ढांचे को लेकर अंधाधुंध रूप से पहाड़ कट रहे हैं. इसमें 889 किलोमीटर लंबी तथाकथित ऑल वेदर रोड परियोजना (चार धाम राजमार्ग परियोजना) को 53 परियोजनाओं में विभाजित किया गया और बिना किसी पर्यावरणीय मूल्यांकन के मंजूरी दी गई है. घोषणा करने से पहले कोई उचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नहीं किया गया था. इसी तरह रेलवे प्रोजेक्ट के लिए बनी सुरंगें भी कई गांवों के जीवन और रोजगार को खतरे में डाल रही हैं, जलस्रोत सूख गए हैं. कृषि उपज कम हो रही है और घरों में दरारें दिखाई दे रही हैं. यही हाल हिमाचल के उन इलाकों का है, जहां पर्यावरण की अनदेखी कर निर्माण कार्य किया जा रहा है.

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हिमाचल में बिछ रहा सुरंगों का जाल

अवैज्ञानिक कटिंग व पहाड़ों में ब्लास्टिंग चिंता का विषय: हिमाचल हाईकोर्ट ने भी अवैज्ञानिक कटिंग व पहाड़ों में ब्लास्टिंग को लेकर चिंता जताई है. हाईकोर्ट ने धर्मशाला, सोलन व शिमला के संदर्भ में राज्य सरकार को कई आदेश पारित किए हैं. सोलन की पहाड़ियों पर कई मंजिला निर्माण को लेकर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को फटकार भी लगाई है. परवाणु-कैथलीघाट-ढली फोरलेन निर्माण में नियमों की अनदेखी और अवैज्ञानिक कटिंग को लेकर हाईकोर्ट एक याचिका की सुनवाई कर रहा है. बरसात के दौरान ये पहाड़ियां काल का रूप लेती हैं. भूस्खलन के कारण कई हादसे हो चुके हैं.

ये भी पढ़ें: Silkyara Tunnel accident: उत्तरकाशी के सिलक्यारा टनल हादसे की जांच करेगी 6 सदस्यीय कमेटी, सीएम ने की रेस्क्यू की समीक्षा

शिमला: पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्कयारा सुरंग में मलबा आने से 40 मजदूर अंदर फंसे हुए हैं. इस हादसे ने एक बार फिर से पहाड़ों पर अंधाधुंध निर्माण को लेकर बहस छेड़ दी है. वहीं, छोटा पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश भी हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स और फोरलेन निर्माण के कारण पहाड़ों से छेड़छाड़ का दंश झेल रहा है. हिमाचल में हर साल निर्माण के कारण कमजोर हुए पहाड़ों में भूस्खलन होता रहता है. इन हादसों में जान-माल का भारी नुकसान होता है. हिमाचल के बिलासपुर के टीहरा में भी 2015 में उत्तराखंड के सिलक्यारा टनल जैसा हादसा हो चुका है. हालांकि, उस हादसे में सुरंग के भीतर फंसे दो श्रमिकों को बचा लिया गया था. जबकि एक श्रमिक की मलबे में दबने से मौत हो गई थी. दुखद ये रहा कि मजदूर की शव 9 माह बाद मिल पाया था.

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उत्तरकाशी टनल हादसे में फंसे मजदूर

टीहरा सुरंग निर्माण के दौरान हादसा: हिमाचल में किरतपुर-नेरचौक-मनाली फोरलेन निर्माण के दौरान वर्ष 2015 में मलबा आने से तीन मजदूर सुरंग में फंस गए थे. टीहरा में सुरंग निर्माण का काम आईएल एंड एफएस कंपनी करवा रही थी. दो श्रमिकों को तो हादसे के 10 दिन बाद निकाल लिया गया था. स्थानीय लोगों का आरोप था कि ये हादसा अनियंत्रित और अवैज्ञानिक कटिंग के कारण हुआ था. हालांकि, अब टीहरा सुरंग बनकर तैयार है, लेकिन स्थानीय लोग अभी भी 2015 का हादसा नहीं भूले हैं. किरतपुर-मनाली फोरलेन के निर्माण में टीहरा सुरंग दूसरी सबसे बड़ी सुरंग है. पिछले साल सितंबर को ही इस टनल को सुचारू किया गया था. इस सुरंग की लंबाई 1265 मीटर है. वर्ष 2015 में सुरंग का एक हिस्सा धंस गया था. तब इसमें तीन श्रमिक दब गए थे. मनीराम व सतीश तोमर नामक श्रमिक दसवें दिन सुरक्षित निकाल लिए गए थे. जबकि एक श्रमिक हृदयराम की मौत हो गई थी.

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बिलासपुर में सुरंग हादसे में हुई थी मजदूर की मौत

कमजोर पहाड़ बनते हैं मौत का कारण: हिमाचल में कई जगह पहाड़ कमजोर भी हैं. ऐसा मिट्टी, चट्टानों व स्थान विशेष में पहाड़ की बनावट के कारण है. दर्दनाक हादसों की बात की जाए तो अगस्त 2017 में मंडी के कोटरोपी में पहाड़ धंसने से एचआरटीसी की बस दब गई थी. उस हादसे में 47 लोगों की जान चली गई थी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट ने कोटरूपी हादसे की विस्तृत जांच के साथ हादसे के कारणों व परिणाम पर रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी. इस रिपोर्ट में दर्ज किया गया था कि कोटरूपी का इलाका कमजोर मिट्टी वाला है. कोटरूपी में जिस जगह हादसा हुआ था, वहां सबसे पहले 1977 में भूस्खलन हुआ था. हर दो दशक में कोटरूपी में भूस्खलन हुआ है. वर्ष 1977 के बाद वर्ष 1997 और फिर वर्ष 2017 में यहां हादसा हुआ है. इनमें वर्ष 2017 का हादसा कभी न भूलने वाले जख्म दे गया.

कुल्लू के लुगड़भट्टी में मलबे में दबे थे 65 लोग: हिमाचल के इतिहास में अब तक जो बड़े और भयावह भूस्खलन हुए हैं, उनमें कुल्लू जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर छरूड़ू के पास लुगड़भट्टी हादसा प्रमुख है. यहां 12 सितंबर 1995 को भयावह भूस्खलन में मलबे के नीचे 65 लोग दबकर मर गए थे. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट ने अपनी रिपोर्ट में 65 लोगों के जिंदा मलबे में दबने की रिपोर्ट दी है, लेकिन आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि तब हादसे में 39 लोगों की मौत हुई थी. यहां कच्चे मकान थे और श्रमिक रहते थे. पूरी पहाड़ी धंस गई थी. स्थानीय जनता का मानना है कि हादसे में सौ से अधिक लोग मारे गए थे.

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हिमाचल में अंधाधुन निर्माण से निर्माण से कमजोर हो रहे पहाड़

1968 में किन्नौर के मालिंग नाला में भारी भूस्खलन: इसके अलावा हिमाचल में 1968 में किन्नौर के मालिंग नाला में भारी भूस्खलन हुआ. उसमें एक किलोमीटर तक नेशनल हाइवे बह गया था. ये जगह अभी भी लैंडस्लाइड के नजरिए से संवेदनशील है. फिर दिसंबर 1982 में किन्नौर में शूलिंग नाला में भूस्खलन हुआ. उस हादसे में तीन पुल और डेढ़ किलोमीटर लंबी सड़क ध्वस्त हो गई. मार्च 1989 में रामपुर के झाकड़ी में आधा किलोमीटर सड़क बर्बाद हो गई. यहां की जमीन और पहाड़ियां अभी भी धंसाव की दृष्टि से संवेदनशील है.

किन्नौर का नारा है-नहीं का मतलब नहीं है: जनजातीय जिला किन्नौर हादसों को लेकर बहुत संवेदनशील है. यहां हाईड्रो प्रोजेक्ट्स ने पहाड़ों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. अब स्थानीय लोगों ने नारा दिया है-नहीं का मतलब नहीं है. यानी यहां और निर्माण नहीं करने दिया जाएगा. हाईड्रो प्रोजेक्ट्स ने यहां का पारिस्थितकीय संतुलन बिगाड़ दिया है. भूवैज्ञानिक संजीव शर्मा के अनुसार किन्नौर की चट्टानें वैसे भी मजबूत नहीं हैं. किन्नौर से संबंध रखने वाले पूर्व आईएएस अफसर आरएस नेगी भी यहां आने वाली आपदाओं को जलविद्युत परियोजनाओं से जोड़ते हैं. किन्नौर में करछम-वांगतू, बास्पा, शौंग-टौंग, नाथपा-झाकड़ी जैसी बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के कारण पहाड़ को नुकसान हुआ है. पूर्व आईएएस आरएस नेगी के अनुसार जिला की पहाड़ियों पर पेड़ों की संख्या भी कम हुई है. इसके अलावा अवैध निर्माण, अवैध खनन और नदी-नालों के आसपास मकानों के निर्माण से भी स्थितियां खराब हुई हैं.

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फोरलेन निर्माण से बढ़ा लैंडस्लाइड का खतरा

चट्टाने खिसकने के कारण होते हैं हादसे: जुलाई 2021 में किन्नौर के बटसेरी में चट्टाने खिसकने से नौ सैलानियों की मौत हुई थी. कारण वही रहे यानी पहाड़ कमजोर हैं और चट्टानें भीं. बारिश के कारण भूस्खलन हो गया. पहाड़ से चट्टानें खिसकती हैं तो बड़े पत्थर तेज गति से नीचे आते हैं. उनकी गति किस कदर तेज होती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक बड़ा पत्थर जैसे ही लोहे के पुल पर गिरा, पुल टूटकर नदी में जा गिरा. स्थानीय लोगों के अनुसार बटसेरी में पहाड़ से पत्थर कुछ समय से गिर रहे थे. पर्यावरणविद् भगत सिंह नेगी का कहना है कि दो दशक में जनजातीय जिला में कई निर्माण कार्य हुए हैं. फिर किन्नौर के मालिंग नाला आदि कच्चे पत्थर वाले इलाके हैं. यहां पहाड़ से भूस्खलन होता रहता है. किन्नौर में पागल नाला, पुरबनी झूला, लाल ढांक, टिंकू नाला, में अकसर हादसे होते रहते हैं.

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हिमाचल में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट निर्माण

ऑल वेदर रोड जैसी परियोनाओं की समीक्षा होनी चाहिए: हिमालयी पर्यावरण पर काम कर रहे भू-वैज्ञानिक डॉ. ओम प्रकाश भूरेटा के अनुसार उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड जैसी परियोनाओं की समीक्षा होनी चाहिए. हिमाचल और उत्तराखंड बेहद संवेदनशील हैं. यहां पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण से हादसे हो रहे हैं. इन हादसों से निपटने के लिए होलेस्टिक एप्रोच की जरूरत है. परियोजनाओं के लिए ब्लास्टिंग पूरी तरह से वैज्ञानिक होनी चाहिए. डॉ. भूरेटा के अनुसार उत्तराखंड में 2016 में शुरू हुई 12,000 करोड़ रुपये की चार धाम परियोजना की भी समीक्षा जरूरी है. इस परियोजना में होटल और अन्य बुनियादी ढांचे को लेकर अंधाधुंध रूप से पहाड़ कट रहे हैं. इसमें 889 किलोमीटर लंबी तथाकथित ऑल वेदर रोड परियोजना (चार धाम राजमार्ग परियोजना) को 53 परियोजनाओं में विभाजित किया गया और बिना किसी पर्यावरणीय मूल्यांकन के मंजूरी दी गई है. घोषणा करने से पहले कोई उचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नहीं किया गया था. इसी तरह रेलवे प्रोजेक्ट के लिए बनी सुरंगें भी कई गांवों के जीवन और रोजगार को खतरे में डाल रही हैं, जलस्रोत सूख गए हैं. कृषि उपज कम हो रही है और घरों में दरारें दिखाई दे रही हैं. यही हाल हिमाचल के उन इलाकों का है, जहां पर्यावरण की अनदेखी कर निर्माण कार्य किया जा रहा है.

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हिमाचल में बिछ रहा सुरंगों का जाल

अवैज्ञानिक कटिंग व पहाड़ों में ब्लास्टिंग चिंता का विषय: हिमाचल हाईकोर्ट ने भी अवैज्ञानिक कटिंग व पहाड़ों में ब्लास्टिंग को लेकर चिंता जताई है. हाईकोर्ट ने धर्मशाला, सोलन व शिमला के संदर्भ में राज्य सरकार को कई आदेश पारित किए हैं. सोलन की पहाड़ियों पर कई मंजिला निर्माण को लेकर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को फटकार भी लगाई है. परवाणु-कैथलीघाट-ढली फोरलेन निर्माण में नियमों की अनदेखी और अवैज्ञानिक कटिंग को लेकर हाईकोर्ट एक याचिका की सुनवाई कर रहा है. बरसात के दौरान ये पहाड़ियां काल का रूप लेती हैं. भूस्खलन के कारण कई हादसे हो चुके हैं.

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