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कारगिल के सबसे युवा शहीद हैं हरियाणा के सिपाही मंजीत सिंह, जानें शौर्यगाथा - कारिगल हरियाणा युवा शहीद जवान

कारगिल विजय दिवस के मौके पर उस वीर योद्धा के बारे में जानिए, जो 10वीं के बाद सेना में भर्ती हो गए थे. जिन्होंने महज साढ़े 18 साल की उम्र में देश के लिए अपने प्राणों की आहूती दे दी थी.

martyr manjeet singh of ambala youngest martyr of kargil war
martyr manjeet singh of ambala youngest martyr of kargil war
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Published : Jul 23, 2020, 9:25 PM IST

Updated : Jul 24, 2020, 6:22 AM IST

अंबाला: 'तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहे ना रहे मां' ये हमारे लिए सिर्फ एक नारा हो सकता है, लेकिन ये सच्चाई है उन वीर सपूतों की जिन्होंने मां भारती की आन, बान और शान के लिए अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते कर दिया. कारगिल विजय दिवस के मौके पर ईटीवी भारत ऐसे शूरवीरों की बहादुरी की गाथा आपको सुना रहा है. जिन्होंने 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तान के नापाक इरादों को चकनाचूर कर उन्हें वापस खदेड़ दिया था.

आज हम आपको कारगिल युद्ध में शहीद हुए सबसे छोटी उम्र के सिपाही मंजीत सिंह के बारे में बता रहे हैं. जिन्होंने महज साढ़े 18 साल की उम्र में ना सिर्फ सीमा पर मोर्चा संभाला बल्कि दुश्मनों के दांत भी खट्टे किए.शहीद मंजीत सिंह अंबाला की मुलाना विधानसभा के कांसा पुर गांव के रहने वाले थे, जो 8 सिख रेजीमेंट में भर्ती हुए थे. आज भी जब शहीद मंजीत सिंह का जिक्र होता है तो उनकीं मां सुरजीत कौर की आंखों से आंसू बहने लगते हैं.

कारगिल के सबसे युवा शहीद हैं हरियाणा के सिपाही मंजीत सिंह, जानें शौर्यगाथा

सुरजीत कौर बताती हैं कि मेरा बेटा हमारी गरीबी दूर करने सेना में भर्ती हुआ था. आज हमारे पास सबकुछ है, लेकिन इस पत्थर के मकान में रहने वाला कोई नहीं है. शहीद मंजीत सिंह की मां ने बताया कि उनका बेटा हमेशा यही कहता था कि अपना पक्का मकान बनाना है.

10वीं के बाद सेना में भर्ती हुए थे शहीद मंजीत सिंह

सुरजीत कौर ने बताया कि शहीद मंजीत सिंह हालांकि 10वीं पास थे और 11वीं में दाखिला लेने जा ही रहे थे कि इस दौरान उनका भर्ती का लेटर आ गया, जिसे देख वो बेहद खुश हुए थे. उसकी टीचर ने भी उन्हें 11वीं की परीक्षा देने के लिए कहा था, लेकिन वो फिर भी सेना में भर्ती होने चले गए.

शहीद मंजीत कौर की मां ने बताया कि रंगरूटी की छुट्टी काटने के बाद मेरा बच्चा घर आया था. उसके बाद जब उसके पिता का एक्सीडेंट हुआ तब भी आया था, लेकिन उसके बाद वो नहीं उसका सामान और....(ये कहकर सुरजीत कौर रोने लगीं)

तीन भाइयों में दूसरे नंबर के बेटे थे मंजीत

शहीद के पिता गुरचरण सिंह बताते हैं कि उनके मेरे तीन बेटे थे. जिनमे से मंजीत दूसरे नंबर के थे. बड़ा बेटा भी फौज में था. जिसकी एक हादसे में मृत्यु हो गई और सबसे छोटा बेटा दुबई में रहता है. उन्होंने बताया कि जब मंजीत सिंह का शव गांव पहुंचा तो गांव में ना जाने कितनी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. उस वक्त मुख्यमंत्री चौ. बंसीलाल भी गांव आए थे. उन्होंने घर तक सड़क का रास्ता बनवाया और गांव के स्कूल का नाम शहीद मंजीत सिंह प्राथमिक माध्यमिक पाठशाला रखा.

...अब भी बाकी है एक टीस

गुरचरण सिंह बताते हैं कि सरकारों ने उनके परिवार की बहुत मदद की ही, लेकिन एक टीस जरूर है कि जिस स्कूल में उनका बेटा पढ़ा वो स्कूल उसके नाम पर रखा गया, लेकिन वो आज बंद पड़ा है. यहां तक कि शहीद के नाम के लगे बोर्ड को भी पेंट नहीं करवाया गया है.

मेहनती और होनहार थे शहीद मंजीत सिंह

शहीद के मामा सूबेदार दलजीत सिंह ने बताया कि शहीद मंजीत सिंह शुरू से ही काफी मेहनती थे. उनका मन खेतों के काम और खेलने में सबसे ज्यादा लगता था. वो न सिर्फ काम करते थे बल्कि क्या काम किया, कितना किया उसकी रिपोर्ट भी देते थे.

ये भी पढ़िए: अनलॉक में भी सूने पड़े हैं चंडीगढ़ के धोबी घाट, संकट में लॉन्ड्री बिजनेस के लोग

8 मई 1999 से शुरू हुआ कारगिल युद्ध 26 जुलाई को खत्म हुआ था. 60 दिन चले इस युद्ध में भारत ने अपने कई वीर सपूत गवाए, लेकिन जवानों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर भारत माता का शीश दुश्मनों के आगे झुकने नहीं दिया. कारगिल युद्ध भारतीय सेना के साहस और जांबाजी का ऐसा उदाहरण है जिस पर देश के हर एक नागरिक को गर्व है और ईटीवी भारत भी कारगिल विजय दिवस के मौके पर उन सभी शूरवीरों को नमन करता है.

अंबाला: 'तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहे ना रहे मां' ये हमारे लिए सिर्फ एक नारा हो सकता है, लेकिन ये सच्चाई है उन वीर सपूतों की जिन्होंने मां भारती की आन, बान और शान के लिए अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते कर दिया. कारगिल विजय दिवस के मौके पर ईटीवी भारत ऐसे शूरवीरों की बहादुरी की गाथा आपको सुना रहा है. जिन्होंने 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तान के नापाक इरादों को चकनाचूर कर उन्हें वापस खदेड़ दिया था.

आज हम आपको कारगिल युद्ध में शहीद हुए सबसे छोटी उम्र के सिपाही मंजीत सिंह के बारे में बता रहे हैं. जिन्होंने महज साढ़े 18 साल की उम्र में ना सिर्फ सीमा पर मोर्चा संभाला बल्कि दुश्मनों के दांत भी खट्टे किए.शहीद मंजीत सिंह अंबाला की मुलाना विधानसभा के कांसा पुर गांव के रहने वाले थे, जो 8 सिख रेजीमेंट में भर्ती हुए थे. आज भी जब शहीद मंजीत सिंह का जिक्र होता है तो उनकीं मां सुरजीत कौर की आंखों से आंसू बहने लगते हैं.

कारगिल के सबसे युवा शहीद हैं हरियाणा के सिपाही मंजीत सिंह, जानें शौर्यगाथा

सुरजीत कौर बताती हैं कि मेरा बेटा हमारी गरीबी दूर करने सेना में भर्ती हुआ था. आज हमारे पास सबकुछ है, लेकिन इस पत्थर के मकान में रहने वाला कोई नहीं है. शहीद मंजीत सिंह की मां ने बताया कि उनका बेटा हमेशा यही कहता था कि अपना पक्का मकान बनाना है.

10वीं के बाद सेना में भर्ती हुए थे शहीद मंजीत सिंह

सुरजीत कौर ने बताया कि शहीद मंजीत सिंह हालांकि 10वीं पास थे और 11वीं में दाखिला लेने जा ही रहे थे कि इस दौरान उनका भर्ती का लेटर आ गया, जिसे देख वो बेहद खुश हुए थे. उसकी टीचर ने भी उन्हें 11वीं की परीक्षा देने के लिए कहा था, लेकिन वो फिर भी सेना में भर्ती होने चले गए.

शहीद मंजीत कौर की मां ने बताया कि रंगरूटी की छुट्टी काटने के बाद मेरा बच्चा घर आया था. उसके बाद जब उसके पिता का एक्सीडेंट हुआ तब भी आया था, लेकिन उसके बाद वो नहीं उसका सामान और....(ये कहकर सुरजीत कौर रोने लगीं)

तीन भाइयों में दूसरे नंबर के बेटे थे मंजीत

शहीद के पिता गुरचरण सिंह बताते हैं कि उनके मेरे तीन बेटे थे. जिनमे से मंजीत दूसरे नंबर के थे. बड़ा बेटा भी फौज में था. जिसकी एक हादसे में मृत्यु हो गई और सबसे छोटा बेटा दुबई में रहता है. उन्होंने बताया कि जब मंजीत सिंह का शव गांव पहुंचा तो गांव में ना जाने कितनी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. उस वक्त मुख्यमंत्री चौ. बंसीलाल भी गांव आए थे. उन्होंने घर तक सड़क का रास्ता बनवाया और गांव के स्कूल का नाम शहीद मंजीत सिंह प्राथमिक माध्यमिक पाठशाला रखा.

...अब भी बाकी है एक टीस

गुरचरण सिंह बताते हैं कि सरकारों ने उनके परिवार की बहुत मदद की ही, लेकिन एक टीस जरूर है कि जिस स्कूल में उनका बेटा पढ़ा वो स्कूल उसके नाम पर रखा गया, लेकिन वो आज बंद पड़ा है. यहां तक कि शहीद के नाम के लगे बोर्ड को भी पेंट नहीं करवाया गया है.

मेहनती और होनहार थे शहीद मंजीत सिंह

शहीद के मामा सूबेदार दलजीत सिंह ने बताया कि शहीद मंजीत सिंह शुरू से ही काफी मेहनती थे. उनका मन खेतों के काम और खेलने में सबसे ज्यादा लगता था. वो न सिर्फ काम करते थे बल्कि क्या काम किया, कितना किया उसकी रिपोर्ट भी देते थे.

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8 मई 1999 से शुरू हुआ कारगिल युद्ध 26 जुलाई को खत्म हुआ था. 60 दिन चले इस युद्ध में भारत ने अपने कई वीर सपूत गवाए, लेकिन जवानों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर भारत माता का शीश दुश्मनों के आगे झुकने नहीं दिया. कारगिल युद्ध भारतीय सेना के साहस और जांबाजी का ऐसा उदाहरण है जिस पर देश के हर एक नागरिक को गर्व है और ईटीवी भारत भी कारगिल विजय दिवस के मौके पर उन सभी शूरवीरों को नमन करता है.

Last Updated : Jul 24, 2020, 6:22 AM IST
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