करनाल: जानवरों के गोबर से वैसे तो बहुत सी संस्थायें उत्पाद बना रही हैं लेकिन पहली बार इस तरह के प्रोडक्ट वैज्ञानिक तौर पर बनाने की पहल हरियाणा के राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (NDRI) ने किया है. एनडीआरआई ने गोबर से दिये समेत आकर्षण कलाकृति (NDRI making products from cow dung) तैयार करने की शुरुआत की है. वैज्ञानिकों के अनुसार ये ऐसी कोशिश है जिसे बहुत से लोग स्वरोजगार के रूप में भी अपना सकते हैं. साथ ही पर्यावरण संरक्षण को भी इससे मजबूती मिलेगी.
गाय का गोबर हमारे घरों में पुराने समय से रीति रिवाजों और धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा रहा है. लेकिन अब इसी गोबर से आकर्षक मूर्तियां और दिए बनाए जा सकेंगे. गाय की देसी नस्लें साहिवाल, थारपारकर और गिर के गोबर से निर्मित इन कलाकृतियों से एक तरफ जहां रोजगार पैदा होगा वहीं दूसरी तरफ पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहीं होगा. गोबर के द्वारा वैज्ञानिक तरीके से बनाये जा रहे ये उत्पाद पूरी तरह से प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल हैं. इससे बनने वाली मूर्तियों को जल में विसर्जित करने पर पानी को नुकसान होने के बजाय जलीय वनस्पतियों को खाद के रूप में खुराक मिलती है.
राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान के जलवायु प्रतिरोधी पशुधन अनुसंधान केंद्र (Climate Resistant Livestock Research Center) के प्रभारी डॉक्टर आशुतोष ने बताया कि हमने गाय के गोबर से नई कलाकृतियां बनाने की शुरुआत की है. इसके लिए हमने महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत अलग-अलग राज्यों से सांचे खरीदे हैं. अलग-अलग मिट्टी के साथ गोबर को मिलाकर ये उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं. छोटे-बड़े हर साइज के दीपक और गणेश जी मूर्ति बनाने की शुरुआत की है. इसमे हमें काफी हद तक सफलता भी मिली है.
डॉक्टर आशुतोष ने कहा कि गणेश जी की प्लेन मूर्ति बनाकर हम स्वरोजगार करने वाली महिलाओं को देंगे. ये महिलाएं उस पर रंग और कलाकृति बनाकर बाजार में महंगे दाम पर बेच सकती है. इससे उन्हें आमदनी होगी और वो आत्मनिर्भर बनेंगी. हमारे बनाये गये सभी उत्पाद पर्यावरण सुरक्षित हैं. जैसे ही इसे पानी में डाला जाता है ये घुल जाते हैं और वहां के जलीय जीव समेत वनस्तपितयों को खाद मिलती है. इन उत्पादों से कार्बन डाई ऑक्साइड का कोई विसर्जन नहीं होता.
डॉक्टर आशुतोष के मुताबिक पके हुए मिट्टी के बर्तन की तुलना में ये ज्यादा बेहतर हैं क्योंकि पकी मिट्टी गलती नहीं है. मोहनजोदड़ों समेत पुरानी सभ्यताओं की खुदाई में जो मिट्टी के बर्तन मिल रहे हैं वो सब पकी मिट्टी के हैं. यानि पकाने पर मिट्टी खराब भी हो जाती है और उसके बर्तन हजारों साल तक नष्ट नहीं होते. दूसरी तरफ 1 क्विंटल मिट्टी को 900 डिग्री सेंटीग्रेड पर पकाने के लिए 553 किलोग्राम लकड़ी लगती है. जितने ज्यादा मिट्टी के बर्तन होंगे उसे पकाने के लिए उतनी ज्यादा लकड़ी की जरूरत पड़ेगी. इस प्रक्रिया में हजारों पेड़ों की बलि चढ़ानी पड़ती है.
मिट्टी को पकाने के लिए लकड़ी महंगी भी पड़ती है. 1 क्विंटल लकड़ी जलाने पर 175 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. वहीं हमारे द्वारा गोबर से बनाये गये दिए 10 मिनट में पानी के साथ मिल जाते हैं. इसको पकाने के लिए ना तो पेड़ काटने की जरूरत है और ना ही कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन. ये उत्पाद पूरी तरस से पर्यावरण के साथी हैं और इससे स्वरोजगार के नये रास्ते भी खुलते हैं.