नई दिल्ली: दिल्ली के नेशनल जूलॉजिकल पार्क में पिछले करीब 6 साल से जिराफ नहीं है. यहां के जिराफ की बुजुर्ग होने के कारण 6 साल पहले मृत्यु हो गई थी. दिल्ली के जू में जिराफ लाने के लिए देश भर के अन्य चिड़ियाघरों से संपर्क किया गया, लेकिन कहीं से भी नहीं मिल पा रहा है. दिल्ली नेशनल जूलॉजिकल पार्क के अधिकारियों ने अफ्रीका की विभिन्न संस्थाओं से कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत जिराफ लाने का प्रयास किया. अफ्रीका से जिराफ तो मिल रहा है लेकिन लाने का खर्च हवाई या समुद्री मार्ग से करीब तीन करोड़ रुपये आ रहा है.
भारत में कोलकाता, मैसूर, पुणे जैसे 11 शहरों के जू में सिर्फ 30 जिराफ हैं. दिल्ली के नेशनल जूलॉजिकल पार्क की डायरेक्टर आकांक्षा महाजन का कहना है कि देश के जू से संपर्क किया गया था लेकिन अभी कहीं से भी जिराफ नहीं मिल पा रहे हैं. एक जोड़ी जिराफ लाने पर ही फायदा होता है, जिससे प्रजनन हो और उनकी संख्या भी बढ़े. अफ्रीका से सीएसआर के तहत जिराफ तो मिल रहा है लेकिन उनके यहां लाने का ट्रांसपोर्टेशन का खर्च करीब तीन करोड़ रुपये है. यह राशि बहुत ज्यादा है. सेंट्रल जू अथारिटी से दिल्ली के जू में जिराफ लाने की बात चल रही है.
इसलिए करोड़ों रुपये का आता है खर्च: जू के अधिकारियों के मुताबिक, अफ्रीका से मेल और फीमेल जिराफ लाने का खर्च इसलिए महंगा है क्योंकि जिस दिन से जिराफ को लाने के लिए पिंजरा बनना शुरू होगा उसी दिन से कर्मचारियों का खर्च देना होता है. इसके बाद जिराफ को पिंजरे में डालने की आदत डाली जाती है, ताकि वह आराम से रहें. ज्यादातर इंटरनेशनल ट्रांसपोर्टर हैं. जो जानवरों को एक से दूसरे देश में लाते हैं. जो डालर में भुगतान लेते हैं. जिराफ के स्वास्थ्य की पूरी जांच होती है. डॉक्टर साथ में रहते हैं.
विदेश से जिराफ लाने के बाद उन्हें 21 दिन तक क्वारंटाइन में रखा जाता है. स्वास्थ्य की फिर जांच होती है, ताकि जू के अन्य किसी जानवर में कोई संक्रमण न फैले. इतना ही नहीं जिराफ के साथ उस देश से कई महीने का भोजन भी लाया जाता है. इसमें स्थानीय भोजन मिलकर दिया जाता है, ताकि जानवर स्थानीय भोजन खाने लगें. इन सब कारणों से विदेश से जिराफ या अन्य जानवर लाने का खर्च करोड़ों में पहुंच जाता है.