नई दिल्ली: आजादी के 76 साल बाद भी हिंदी भाषा को अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. इतने वर्षों के बाद भी हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का संघर्ष जारी है. कोई कहता है कि हिंदी को नाम की जरूरत नहीं है. वहीं, हिंदी भाषा के जानकारों का मानना है कि इसको पहचान की जरूरत नहीं है.
'हिंदी को फर्क पड़ता है!'
इन सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए दिल्ली के लोदी रोड स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में 'हिंदी को फर्क पड़ता है!' विषय पर परिचर्चा हुई. राजकमल प्रकाशन समूह और इंडिया हैबिटेट सेंटर की साझा पहल के तहत विचार-गोष्ठी की मासिक शृंखला 'सभा' की गई. परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार व भाषा विशेषज्ञ राहुल देव, इतिहासकार व सिनेमा विशेषज्ञ रविकांत, स्त्री विमर्शकार सुजाता, आर.जे. व भाषा विशेषज्ञ सायमा तथा संपादक-प्रकाशक शैलेश भारतवासी ने निर्धारित विषय पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के साथ अपने विचार रखे.
हिंदी से जुड़ी चिंताओं पर बात: इसका विषय विषय हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में हिंदी के सामने मौजूद चुनौतियों और भविष्य की संभावनाओं पर केंद्रित था. परिचर्चा में हिंदी से जुड़ी उन चिंताओं पर बात हुई, जो अपने आप में गंभीर होने के बावजूद अब तक मुख्य विमर्श से नदारद रही हैं. प्रश्न हिंदी की मानिकीकरण का हो या व्हाट्सएप वाली हिंदी/हिंग्लिश के चलन का, बोलचाल में क्षेत्रीयता का प्रभाव हो या लेखन में छूट का. ऐसे कई बिंदु हैं, जो समय-समय पर हिंदी की जातीय पट्टी में रहने वाले लोगों के बीच उठते रहते हैं. मसलन चाँद/चांद लिखें या chaand? आख़िर वह कौन-सी चीज़ है, जिनसे हिंदी को फर्क पड़ता हैं? सवाल यह भी है कि फर्क पड़ता भी है या नहीं? इसमें इसी तरह के सवालों के जवाब जानने की कोशिश की गई.
सही भाषा का चयन बहुत जरूरी: रेडियो जॉकी के तौर पर काम करने वाली सायमा ने 'ईटीवी भारत' को बताया कि वो 25 वर्षों से लोगों से बिना दिखे संवाद करती आ रही हैं. भाषा और शब्द ही उनकी पहचान है. एक भाषा ही है, जो आपकी सोच और संवेदनाओं को लोगों तक पहुंचती है. इसके लिए सही भाषा का चयन करना बहुत जरूरी है.
'सभा' का आयोजन हर महीने होगा: प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने बताया कि उनकी संस्था ने मुख्य धारा के मुद्दों पर चर्चा के लिए कार्यक्रमों की श्रृंखला प्रारंभ की है. 'हिंदी को फर्क पड़ता है!' इस कार्यक्रम की तीसरी कड़ी है. इससे पहले किताब उत्सव का भी आयोजन किया गया. इस आभा का प्रारंभ भोपाल से हुआ, जो मुंबई, बनारस, चंडीगढ़ और पटना में भी पसंद किया गया. उन्होंने बताया कि अब इंडिया हैबिटेट सेंटर के साथ मिलकर एक नई शुरुआत करने का मौका मिला है. 'सभा' का आयोजन हर महीने इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर सभागार में होगा. इस कड़ी में पहली परिचर्चा 'हिन्दी को फर्क़ पड़ता है' विषय पर केंद्रित की गयी है. इसके माध्यम से हिंदी से जुड़ी चिंताएं मुख्यधारा में शामिल होंगी और नई राहें खुलेंगी.
हिंदी के साथ भाव जुड़ा है: मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने बताया कि हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है. फिर भी लंबे समय तक हिंदी ने कई संघर्ष किए. साथ ही उपनिवेशिक भारत को उसके मुकाम तक लेन में हिंदी की अहम भूमिका रही है. इसलिए घोषित और अघोषित तौर पर इसके लिए एक नैतिक जिम्मेदारी है. समय समय पर इसने अपने भावों को कोई तकनीक और राजनीति के कारण बदला है. वहीं कई बार मुख्य धारा की मीडिया ने अपने अनुसार इसको नया रूप दिया. लेकिन आज भी ये सवाल कायम है कि हिंदी भाषा अपने मूल्य भाव को कहां तक बचा पाती है.
उन्होंने आगे कहा कि हिंदी के साथ एक और भाव जुड़ा है कि हिंदी खड़ी बोली है. तो जब तक किसी भाषा की रीढ़ सीधी ने हो तब तक वो अपना पूरा वजूद और मौजूदगी नहीं प्राप्त कर सकती.
हिंदी भाषा आज एक उत्सव है: संपादक और भाषा विशेषज्ञ राहुल देव ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि हिंदी भाषा आज एक उत्सव है. आज हिंदी विजेता भाषा का रूप ले रही हैं. जिसको मुकाम पर लाने के लिए कई लोगों की मुख्य भूमिका है. उन्होंने तमिलनाडु में 80 के दशक में शुरू हुए हिंदी भाषा के विरोध पर खुल कर अपने विचार रखे. साथ ही कहा कि हिंदी एक विराट भाषा है, जो विश्व में तीसरे स्थान पर आती है. साहित्य अब हिंदी को बचाने की स्थिति में नहीं है. हिंदी को बचाने के लिए पूरे राज्य और देश के सहियोग से सफल बनाया जा सकता है.
हिंदी को किससे फर्क पड़ता है? : इतिहासकार और सिनेमा विशेषज्ञ रविकांत ने कहा कि आखिर हिंदी को किससे फर्क पड़ता है? भाषा खुद कुछ नहीं करती, उसके साथ लोग छेड़खानी करते हैं. महात्मा गांधी ने कहा था कि वो हिंदी से मोहब्बत करते हैं, लेकिन उनका कहना था कि वो फिल्मों से नफरत करते थे. जबकि फिल्में हिंदी भाषा का सब से बड़ा प्लॅटफॉर्म है. सभी क्षेत्रीय भाषाओं को एक मंच पर काम करना चाहिए. यह भी हिंदी को अस्तित्व में बरक़रार रखने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं.
हिंदी को कुछ फर्क नहीं पड़ता है. एक ब्लॉगर के तौर नाम कमाने वाले सुजात ने कहा कि भाषा के साथ साथ हम सभी जुड़े हैं. आज भी हिंदी में कई ऐसे शब्द हैं जिनको अभी का सही रूप नहीं दिया गया है जैसे किन्नर. इसमें भाषा का कोई दोष नहीं है. समाज का दोष है, जो इसको सही रूप नहीं दे पा रहे हैं। आज हिंदी भाषा में कई ऐसे आपत्तिजनक शब्द हैं जिसके लिए हिंदी दोषी नहीं. उन्होंने अंत में कहा कि हिंदी को संवेदना की जरूरत नहीं है, दोस्ती की जरूरत है.
14 सितम्बर हिंदी दिवस: गौरतलब है कि 14 सितम्बर से 29 सितम्बर तक देशभर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है. 1949 को देश की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया था. इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी दौरान हिंदी पखवाड़ा आयोजित किया जाता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि, हिंदी ऐसी चौथी भाषा है, जोकि दुनियाभर में सबसे अधिक बोली जाती है. हिंदी भाषा को प्रोत्साहित करने, हिंदी के प्रति लोगों में जागरुकता बढ़ाने और इसकी समृद्धि व विकास के लिए हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है.
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