हैदराबाद: कभी आपने गौर किया है, जब भी एथलीट कोई पदक जीतते हैं तो वो अपने मेडल को दांतों तले रखकर उसे दबाते हैं. आखिर वो ऐसा क्यों करते हैं? कोई तो वजह होती होगी उसके पीछे. कभी ऐसा नहीं होता कि वो ऐसा न करते हों. क्या ऐसा करने से ही उन्हें जीत का स्वाद मिलता है?
खेल जीतने के बाद कोई खिलाड़ी ऐसा नहीं होता, जो ऐसा नहीं करता हो. जैसे मानों ये कोई प्रथा बन गई हो. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आखिर ये प्रथा कब और किसने शुरू की?
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अपने सोने के तमगे को चखने की प्रथा ओलंपिक खेलों में बरसों पुरानी है और इसके पीछे कई कहानियां भी प्रचलित हैं.
बता दें, मेडल जीतने के बाद उसकों दांतों से काटने की परंपरा एथेंस ओलंपिक से शुरू हुई थी. लेकिन साल 1912 के स्टॉकहोम ओलंपिक के बाद यह परंपरा बंद हो गई थी. स्टॉकहोम ओलंपिक में ही खिलाड़ियों को अंतिम बार शुद्ध सोने के मेडल दिए गए थे.
क्यों खिलाड़ी काटते हैं ओलंपिक मेडल?
खिलाड़ी अपने मुंह में अपने ओलंपिक पदक को क्यों दबाते हैं, इसके पीछे एक बहुत ही खास वजह है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, खिलाड़ी ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि सोना अन्य धातुओं की तुलना में थोड़ा नरम और लचीला होता है. इसे मुंह में दबाकर खिलाड़ी ये निर्धारित करते हैं कि मेडल असली सोने का है भी या नहीं.
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लेकिन इसके अलावा ज्यादातर खिलाड़ी फोटो क्लिक करवाने के लिए अपने मेडल को अपने मुंह में दबाते हैं.
अब मेडल सिर्फ गोल्ड प्लेटेड होते हैं. अगर मेडल पर काटने पर उसपर निशान बन जाते हैं तो इससे पता चल जाता है कि ये मेडल सोने का ही था.