नई दिल्ली: रक्षा बजट में मामूली बढ़ोतरी करते हुए 2020-21 के लिए इसमें 3.37 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जबकि इससे पिछले साल यह 3.18 लाख करोड़ रुपये था. इसके साथ ही उन उम्मीदों को झटका लगा है, जिनमें सेना के तेजी से आधुनिकीकरण के लिए बजट आवंटन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी का अनुमान जताया गया था.
हाल के वर्षों में भारत के रक्षा बजट में लगातार समानता आई है. बजट आवंटन में न्यूनतम वृद्धि, जीडीपी के प्रतिशत के रूप में गिरती हिस्सेदारी और राजस्व खर्च में वृद्धि के कारण सैन्य बजट में आधुनिकीकरण पर अंकुश लगा है.
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि, "राष्ट्रीय सुरक्षा इस सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है." वित्तमंत्री के इस बोल के बावजूद सेना के लिए आवश्यक धन को कम रखना इस भावना के विपरीत था.
ये भी पढ़ें- विशेष: उत्तर प्रदेश में 2022 तक तैयार होगी इजराइल की एकीकृत जल प्रबंधन परियोजना
विचार करने के लिए दो दृष्टिकोण हैं. पहला यह है कि भारत पहले से ही दुनिया में चौथा सबसे अधिक रक्षा खर्च करने वाला देश है और दूसरा यह कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करता है और फिलहाल आर्थिक मंदी का सामना कर रहा है. इस बीच राफेल जेट खरीदने के लिए सोचना महंगा पड़ सकता है क्योंकि प्रत्येक जेट की कीमत लगभग 1,600 करोड़ रुपये है.
भारत एक ऐसा देश हैं जहां गरीबी रेखा से नीचे वाले लोग 4,200 रुपये प्रति माह कमाते हैं. दिसंबर 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 30 मिलियन लोग भारत की आधिकारिक गरीबी रेखा से नीचे आ गए और गरीबों की श्रेणी में शामिल हो गए. क्या इन परिस्थितियों में गरीबी उन्मूलन प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए?
एक दृष्टिकोण यह है कि रक्षा बजट सुरक्षा खतरों से संबंधित होना चाहिए जो एक राष्ट्र सामना करता है और वैश्विक क्रम में अपने भविष्य को देखता है. दक्षिण एशिया आज दुनिया के सबसे अस्थिर क्षेत्रों में से एक है. भारत पश्चिम में एक शत्रु पड़ोसी का सामना कर रहा है और इसके उत्तर में एक बढ़ती मुखर महान शक्ति है. ये दोनों प्रतिद्वंद्विता भविष्य में भी जारी रहेगी.
अगले दशक में जब पाकिस्तान को सैन्य रूप से संभालना आसान हो जाएगा (हालांकि इस देश ने हमारे एक स्थान पर कब्जा रखा है) तब तक चीन एक गंभीर चिंता का विषय बन चुका होगा. चीन का रक्षा बजट लगभग 250 बिलियन डॉलर है जो भारत के रक्षा बजट का लगभग चार गुना है. यह असमानता आने वाले वर्षों में और बढ़ने वाली है.
यूरोपीय आयोग के अध्ययन के अनुसार 2030 तक भारतीय और चीन अपने सैन्य खर्च को क्रमशः 213 बिलियन डॉलर और 736 बिलियन डॉलर तक बढ़ा सकते हैं. जिसके बाद दोनों देशों के रक्षा बजट में लगभग 500 बिलियन डॉलर से अधिक का अंतर हो जाएगा.
चीन का इतनी तेजी से बढ़ना भारत के सकरात्मक संदेश नहीं है. यह संकेत भारत के लिए खतरा हो सकता है. संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन पहले से ही व्यापार और प्रौद्योगिकी युद्ध में हैं जिससे विश्व की आर्थिक व्यवस्था में उथल-पुथल मची हुई हैं. भारत इस वैश्विक प्रतियोगिता में एक स्विंग स्टेट हो सकता है. हालांकि, विश्व मंच पर एक बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए भारत को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना होगा. ये देखने वाली बात होगी की हम इन दो दृष्टिकोणों को कैसे संभालेंगे?
अब यह स्पष्ट है कि सेना को इस बजट से काम चलाना होगा. अगर इसे बढ़ाने के बारे में सोचें तो सबसे पहले सेना के उच्च वेतन और पेंशन के आंकड़े सामने आते हैं, लेकिन वेतन और पेंशन भी एक तयसीमा तक ही घटाया जा सकता है. यदि हम एक बेहतरीन कठिन पेशे में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा को आकर्षित करना चाहते हैं तो सेवा की शर्तों को आकर्षक बनाना होगा.
अमेरिका अपने सैन्य बजट का लगभग 40 प्रतिशत कर्मियों के भुगतान और उनके लाभ पर खर्च करता है. पेंशन के साथ भी ऐसा ही मुद्दा है. राष्ट्र को उन सैनिकों का ध्यान रखना चाहिए जिन्होंने जान जोखिम पर रखकर देश की सेवा की है. भारत में सेना को दिए जाने वाले पेंशन के आंकड़े आम तौर पर दुनिया भर में दिए जाने वाले के पेंशन के अनुरूप ही हैं.
सेना की कुछ इकाइयों में एक बेहतरीन मॉडल को अपनाने की भी गुंजाइश है और इससे जनशक्ति में पर्याप्त बचत हो सकती है. वायु सेना और नौसेना को 44 स्क्वाड्रन लड़ाकू बेड़े या 200 जहाज नौसेना के निर्माण की अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर भी ध्यान देना चाहिए.
सैन्य प्लेटफार्मों की बढ़ती लागत को देखा जाए तो ये आंकड़े पहुंच से बाहर हैं. यह कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसका सामना केवल भारत कर रहा है. संयुक्त राज्य अमेरिका जिसका रक्षा बजट 750 बिलियन डॉलर हैं. उसने 1987 में अपने नौसैनिकों के 600 जहाजों को घटाते हुए 300 से भी कम कर दिया था और डेजर्ट स्टॉर्म के समय वायु सेना के 70 सक्रिय-ड्यूटी फाइटर स्क्वाड्रन की संख्या को घटाकर 32 कर दिया था.
यह तर्क दिया जा सकता है कि सेना के आकार को घटाने से हमारी सेना कमजोर हो सकती है लेकिन यह तर्क उतना सही नहीं है क्योंकि एक छोटी सेना किसी भी बड़ी से सेना से बेहतर हो सकती है. अगर उसके पास बेहतरीन और उच्च गुणवत्ता वाले हथियार हों और अधिक कुशल सैनिक हों. बता दें कि साल 2015 के बाद से चीन ने अपनी सैन्य संख्या को 3 लाख से कम कर दिया है. यह करने से चीन की सेना कमजोर नहीं हुई बल्कि उच्च गुणवत्ता वाले हथियार और टेक्नोलॉजी होने के कारण और मजबूत हुई है.
रक्षा बजट का छोटा होना आम तौर पर सेना के बीच निराशा लाता है. फिर भी वरिष्ठ नेतृत्व को इसके पुनर्गठन और सुधार के बारे में गंभीर हो जाना चाहिए क्योंकि बजट का आकार और सैन्य का आकार अब सह-अस्तित्व में नहीं रह सकते.
(लेखक- लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) डी एस हुड्डा. इन्होंने 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक का नेतृत्व किया था. ये लेखक के निजी और व्यक्तिगत विचार हैं.)