हैदराबाद: सोमवार 8 नवंबर को छत्तीसगढ़ के सुकमा में एक सीआरपीएफ जवान ने अपने साथियों पर गोलियां बरसा दीं. जिसमें चार जवानों की मौत हो गई, जबकि तीन घायल हो गए. बताया जा रहा है कि छुट्टियों को लेकर जवानों को बीच विवाद शुरू हुआ था, जिसने 4 जवानों की जान ले ली और तीन को अस्पताल पहुंचा दिया. दरअसल ये कोई पहला मामला नहीं है जब सेना या सुरक्षा बल के किसी जवान ने ऐसा किया हो. छत्तीसगढ़ से लेकर जम्मू-कश्मीर और असम से लेकर हिमाचल तक ऐसे मामले सामने आते रहे हैं.
साथियों की हत्या और खुदकुशी
सेना और सुरक्षा बलों के जवान देश की सरहदों से लेकर देश के भीतर मौजूद दुश्मनों तक से लोहा लेते हैं. लेकिन बीते सालों के आंकड़े बताते हैं कि किसी युद्ध से ज्यादा जवान फ्रैट्रिसाइड (fratricide) यानि साथियों के द्वारा गोली मारे जाने और खुदकुशी का शिकार हुए हैं.
- इसी साल संसद में सरकार की तरफ से दी गई जानकारी के मुताबिक साल 2014 से 22 मार्च 2021 तक कुल 787 जवानों ने खुदकुशी की है. इनमें से आर्मी के 591, नेवी के 36 और भारतीय वायुसेना के 160 मामले हैं.
- इसी दौरान साथी द्वारा गोली मारे जाने के 18 मामले सेना और दो मामले एयरफोर्स से सामने आए.
- अकेले साल 2019 में ही सीआरपीएफ, बीएसएफ जैसे अर्धसैनिक बलों के 128 जवानों ने खुदकुशी कर ली.
- इस हिसाब से हर साल औसतन 100 से ज्यादा सैनिक अपनी जान ले रहे हैं यानि बिना युद्ध के ही अपनी जान गंवा रहे हैं. जो बड़ी चिंता का विषय है.
इस तरह के कुछ मामले
- 4 दिसंबर 2019, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में आईटीबीपी कैंप में जवान की अंधाधुंध फायरिंग, 6 जवानों की मौत, 3 जवान जख्मी.
-14 जनवरी 2020, जम्मू-कश्मीर में सीआरपीएफ जवान ने पहले अपने दो साथियों को गोली मार दी और फिर खुद पर भी गोली चला दी. साथी जवानों की मौके पर ही मौत हो गई, बताया गया कि आरोपी जवान मानसिक रूपसे परेशान था.
-29 जनवरी 2021, छत्तीसगढ़ के बस्तर में सीआरपीएफ जवान ने अपने साथियों पर गोलियां बरसा दीं, जिसमें एक जवान की मौत हो गई और दो घायल हो गए. आरोपी जवान मानसिक रूप से परेशान बताया गया, जिसने खुद को भी गोली मारी थी.
- 8 जून 2021, झारखंड के चतरा में सीआरपीएफ के एक जवान ने पहले अपने साथी को गोली मारकर मौत के घाट उतारा और फिर आत्महत्या कर ली. बताया गया कि आरोपी जवान घरेलू समस्या से परेशान था
-8 अगस्त 2021, असम में तैनात सेना के जवान ने साथी जवान को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया. बताया गया कि दोनों के बीच मामूली कहासुनी हुई थी.
-21 सितंबर 2021, जम्मू कश्मीर के कुपवाड़ा में सेना के एक जवान ने सहकर्मी की गोली मारकर हत्या कर दी, जबकि दूसरा घायल हो गया. बताया गया कि छुट्टी को लेकर दोनों के बीच विवाद हो गया था.
इसकी वजह क्या है ?
ये सिर्फ कुछ मामले हैं जो बीते कुछ महीनों में अखबार या टीवी चैनलों पर कुछ मिनट की सुर्खियां बनें. लेकिन ऐसे कई मामले हर साल देश के अलग-अलग हिस्सों से सामने आते हैं. आंकड़ों के मुताबिक साल 2011 से 2018 के बीच भारतीय सेना, वायु सेना और नौसेना के 892 कर्मियों ने आत्महत्या की, इसमें साथियों को गोली मारने के मामले जोड़ दें तो आंकड़ा और भी बढ़ जाता है. इतने जवान बीते दो दशक में भारत की सरहद पर शहीद नहीं हुए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि इसकी वजह क्या है
बढ़ता तनाव- सेना और सुरक्षा बलों के रिटायर्ड कर्मचारियों और अधिकारियों के मुताबिक जवानों के बीच बढ़ता तनाव और डिप्रेशन इसकी मुख्य वजह है. जो नौकरी के साथ साथ परिवार से दूर रहने की वजह से भी होता है. नौकरी के तनाव के साथ कोई पारिवारिक समस्या या परिवार से दूर रहने का दर्द कई बार साथियों से हुई छोटी सी कहासुनी को खूनी झड़प तक पहुंचा देती है. इसी लड़ाई झगड़े में गोली चलना या फिर तनाव में खुद को गोली मारने के मामले सामने आते हैं.
बिना छुट्टी के लगातार ड्यूटी- सेना या अर्ध सैनिक बलों के कई जवान बिना छुट्टियों के लगातार कई महीनों ड्यूटी पर तैनात रहते हैं. छुट्टियां नाम मिलने के कारण वो निराशा (frustration) का शिकार होने लगते हैं. जानकार मानते हैं कि ये निराशा धीरे-धीरे दिल में दबी रहकर एक ऐसा ज्वालामुखी बन जाती है, जो फटने पर खुद की जिंदगी या साथियों की जिंदगी के लिए जानलेवा साबित हो जाता है.
दूर-दराज के क्षेत्रों में पोस्टिंग- लेह लद्दाख से लेकर सियाचीन जैसे ऊंचे इलाकों पर तैनात जवान परिवार से दूरी और नौकरी के तनाव के साथ-साथ कई शारीरिक चुनौतियां भी झेलनी पड़ती हैं. मसलन सियाचीन जैसे क्षेत्रों में ऑक्सीजन की कमी से लेकर, अकेलापन समेत तमाम प्राकृतिक बाधाएं जवानों के तनाव को और बढ़ाती हैं.
हिंसा ग्रस्त या नक्सली इलाकों में पोस्टिंग- देश की सेना सरहदों पर रक्षा के मोर्चे पर डटी रहती है लेकिन कुछ जवान देश के अंदर मौजूद दुश्मनों से लोहा ले रहे हैं. हिंसा ग्रस्त या नक्सली इलाकों में अर्धसैनिक बलों की पोस्टिंग होती है, जहां मुश्किल परिस्थितियों में अपनी ड्यूटी निभाना सबसे बड़ी चुनौती है. जानकार मानते हैं कि इन इलाकों में मौत कब कहां से आ जाएगी कुछ नहीं पता होता, सरहद से ज्यादा ऐसे इलाकों में जवान अपनी जान को हथेली पर लेकर चलते हैं.
फर्ज के बदले मिलती आलोचना- जम्मू कश्मीर हो या फिर असम और छत्तीसगढ़ जैसे नक्सली इलाके, यहां दुश्मन आम आबादी के बीच रहता है. जो अर्धसैनिक बलों के जवानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होता है. ऐसे में कई बार अपने निभाए गए फर्ज के बदले उन्हें आम जनता का विरोध या आलोचना तक झेलनी पड़ती है जैसा कि बीते कुछ सालों में जम्मू-कश्मीर में होता रहा है. फर्ज के बदले मिलने वाला ये व्यवहार भी एक सैनिक को निराशा और तनाव के दलदल में धकेलता है.
स्टाफ की कमी- भारतीय सेना में अभी लगभग 14 लाख सैनिक हैं. जानकार मानते हैं कि सेना इस वक्त अफसरों की कमी से जूझ रही है. करीब 25 से 30 फीसदी अफसरों की कमी के कारण अतिरिक्ट ड्यूटी का भार बढ़ रहा है. जिसके चलते अफसरों के पास सैनिकों के साथ वक्त बिताने या उनकी समस्याएं सुनने का वक्त ना के बराबर है. जिसके कारण जवानों की समस्याओं का हल ठीक ढंग से वक्त पर नहीं निकल पाता है.
पारिवारिक परेशानियां- ड्यूटी पर मौजूद इन तमाम परेशानियों और चुनौतियों के अलावा इन जवानों का अपना परिवार भी है, जिनकी अपनी परेशानियां हैं. रिटायर्ड अफसर बताते हैं कि सेना या अर्धसैनिक बलों के जवान अपनी ड्यूटी तो कर रहे होते हैं लेकिन ड्यूटी के दौरान आने वाली दिक्कतों के अलावा परिवार की परेशानियां और उनसे दूर रहने का दर्द जवानों की दिक्कतों को बढ़ाता है.
सरकार क्या कर रही है ?
संसद में दिए रक्षा राज्य मंत्री श्रीपद नाइक के बयान के मुताबिक सशस्त्र बलों ने अपने जवानों के मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए कदम उठाए हैं. देश के 23 मनोचिकित्सक केंद्रों पर पेशेवरों द्वारा काउंसलिंग भी होती है. इसके अलावा जवानों के लिए आवास से लेकर अन्य कल्याणकारी सुविधाएं भी दी जा रही हैं. भारतीय वायुसेना की तरफ से 'मिशन जिंदगी' कैंपेन के तहत मेंटल हेल्थ को लेकर कई तरह के वर्कशॉप और लेक्चर्स का भी आयोजन हो रहा है. इसके अलावा इंडियन नेवी ने मुंबई, विशाखपट्टनम, कोच्चि, पोर्ट ब्लेयर, गोवा आदि में स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए हैं जहां मनोवैज्ञानिक परामर्श की सुविधा भी उपलब्ध है.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को गृह मंत्री अमित शाह के प्रस्ताव को लागू करने के लिए इन हाउस सॉफ्टवेयर बनाने के लिए कहा है जिसमें सैनिकों को अपने परिवार के साथ साल में कम से कम 100 दिन बिताना सुनिश्चित करना है.
क्या करने की जरूरत है ?
सरकार ने अपनी तरफ से संसद में जानकारी तो दे दी, लेकिन विशेषज्ञ इसे नाकाफी बताते हैं, क्योंकि ये बिल्कुल सतही इंतजाम हैं. इसलिये जवानों के लिए जानलेवा होते तनाव को भगाने के कई इंतजाम करने की जरूरत हैं, जो उनके मानसिक से लेकर आर्थिक रूप से बेहतर बनाएं.
काउंसलिंग- सेना या अर्धसैनिक बलों के बीच जवानों के बीच आपस में गोली मारने या खुदकुशी के मामलों को देखते हुए जवानों की काउंसलिंग अनिवार्य होनी चाहिए. खासकर प्राकृतिक रूप से कड़े क्षेत्रों या हिंसा ग्रस्त और नक्सली क्षेत्रों में ड्यूटी पर तैनात जवानों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. इसके लिए पेशेवर काउंसलर और मनोचिकित्सकों की जरूरत होगी. विशेषज्ञ इसके लिए ऐसे पेशेवर काउंसलर और मनोचिकित्सकों के बोर्ड का गठन करने पर जोर देते हैं. जवानों को तनाव मुक्त रखने के लिए सेशन किए जाने की जरूरत है.
मूलभूत सुविधाएं बेहतर करना- सेना और अर्धसैनिक बलों को मिलने वाली सेवाओं या सुविधाओं को बेहतर करने की भी जरूरत पर जोर दिया जाता रहा है. सेना के मुकाबले अर्धसैनिक बलों की सुविधाओं में अंतर पर सवाल उठते रहे हैं. वक्त वक्त पर छुट्टी देने या ड्यूटी के लंबे घंटों को कम करने या ड्यूटी के लंबे घंटों में ब्रेक देने जैसे छोटे-छोटे कदम भी कारगर साबित हो सकते हैं.
अधिकारी और सैनिक के बीच का संबंध बेहतर करना- एक सैनिक और अधिकारी के बीच का संबंध भी जवानों के मानसिक तनाव को काफी हद तक कम कर सकता है. जवानों को होने वाली परेशानियों को सुनना या उनकी जरूरतों को समझने की जिम्मेदारी एक अधिकारी की होती है, एक जवान और अधिकारी के बीच भले प्रोटोकॉल की दीवार होती हो लेकिन कुछ ऐसे कदम उठाए जाने की जरूरत है कि प्रोटोकॉल भी बना रहे और दोनों के बीच का संबंध भी ऐसा बना रहे कि सैनिक अपनी बात आसानी से अपने अधिकारी तक पहुंचा सके. वक्त पर छुट्टी मिलने से लेकर कोई पारिवारिक समस्या के बारे में खुलकर बात तभी हो सकती है जब दोनों के बीच का संबंध इस स्तर का हो.
अर्धसैनिक बलों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है
विशेषज्ञ मानते हैं कि सेना में साथियों के बीच गोलीबारी और आत्महत्या के मामलों को अनदेखा नहीं किया जा सकता लेकिन सेना में जवानों की कुल संख्या के मुकाबले अर्धसैनिक बलों इस तरह के मामलें आना गंभीर विषय है. सेना के मुकाबले अर्धसैनिक बलों का जीवन स्तर और उनको मिलने वाली सुविधाएं भी कम हैं. जबकि अर्धसैनिक बल हमेशा किसी हिंसा ग्रस्त, नक्सली या फिर हाई-टेंशन वाले इलाकों में तैनात रहते हैं.
छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश के नक्सली इलाके हों या फिर नॉर्थ ईस्ट के उग्रवादियों का इलाका या फिर हमेशा से आतंक की आग में झुलसता जम्मू कश्मीर, हर जगह अर्ध सैनिक बल ही अपनी जान हथेली पर लेकर ड्यूटी करते हैं. इसलिये अर्धसैनिक बलों की ओर खास ध्यान देने के साथ-साथ उनको मिलने वाली सुविधाओं में भी इजाफा करना होगा. ताकि उनका जीवन स्तर भी बेहतर हो सके.
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