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LJP का चुनाव चिन्ह हुआ फ्रीज, पार्टी में दो फाड़ होने पर EC कैसे करता है सिंबल का फैसला ? - पशुपति पारस बनाम चिराग पासवान

चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी का चुनाव चिन्ह फ्रीज कर दिया है. अब चुनाव चिन्ह किसे मिलेगा ? पार्टी में दो फाड़ होने पर आयोग कैसे लेता है फैसला ? क्या हैं इससे जुड़े नियम ? जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)

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Published : Oct 4, 2021, 8:22 PM IST

हैदराबाद: बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी का 'बंगला' जब्त हो गया है. दरअसल 'बंगला' एलजेपी का चुनाव चिन्ह है, जिसे में पार्टी में हुए दो फाड़ के बाद चुनाव आयोग ने फ्रीज कर दिया है. पार्टी और सिंबल पर पशुपति पारस और चिराग पासवान अपनी-अपनी दावेदारी ठोक रहे थे लेकिन अब केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर दिया है. अब आगे क्या होगा ? किसे मिलेगा बंगले का सिंबल ? पार्टी में दो फाड़ होने पर चुनाव आयोग कैसे फैसला करता है कि पार्टी का सिंबल किसे दिया जाए ? क्या हैं इससे जुड़े नियम कायदे ? इतिहास में ऐसे मौकों पर आयोग ने क्या और कैसे फैसला लिया ? जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)

चाचा-भतीजे की जंग में जब्त हुआ 'बंगला'

लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष रामविलास पासवान के निधन के बाद पार्टी दो फाड़ हो गई है. पार्टी के दो धड़ों में से एक तरफ हैं रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस और दूसरी तरफ हैं रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान. बीते दिनों चाचा-भतीजे की इस जंग ने पटना से दिल्ली तक उस वक्त सुर्खियां बटोरी थी जब पशुपति पारस ने पार्टी के सांसदों के समर्थन से अध्यक्ष पद पर दावा कर लिया था. उधर पार्टी के सांसद चिराग पासवान खुद को पार्टी का अध्यक्ष बताते रहे.

चुनाव आयोग ने एलजेपी का सिंबल किया फ्रीज
चुनाव आयोग ने एलजेपी का सिंबल किया फ्रीज

चाचा भतीजे की जंग में पार्टी दो फाड़ हो गई, जिसके बाद पशुपति पारस को केंद्र की मोदी सरकार में मंत्रीपद भी मिला था. बैठकों से लेकर रैलियों तक में दोनों लोग एक ही चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल करते रहे और फिर मामला चुनाव आयोग पहुंच गया.

दोनों नहीं कर सकते 'बंगले' का इस्तेमाल

लोक जनशक्ति पार्टी में चाचा पशुपति पारस बनाम भतीजे चिराग पासवान के बीच चल रही नेतृत्व की जंग के बीच चुनाव आयोग ने बड़ा फैसला लिया है. शनिवार को केंद्रीय चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी के चुनाव चिह्न को फ्रीज करने का फैसला लिया है. अब इस कार्रवाई के बाद पशुपति कुमार पारस और चिराग दोनों ही इस चिह्न का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं.

दरअसल बिहार की दो विधानसभा चुनावों पर उपचुनाव होने हैं. बीते दिनों चिराग पासवान ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखकर पार्टी के चुनाव चिन्ह पर अपना दावा किया था. जिसके बाद आयोग ने पार्टी के चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर लिया. अब दोनों में से कोई भी तब तक सिंबल का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा जब तक चुनाव आयोग इस विवाद का निपटारा नहीं कर देता. अब दोनों को अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर उपचुनाव लड़ना होगा.

एलजेपी में चाचा बनाम भतीजे की जंग
एलजेपी में चाचा बनाम भतीजे की जंग

पार्टी में दो फाड़ होने पर चुनाव आयोग की शक्तियां

अगर पार्टी दो फाड़ होती है तो चुनाव चिन्ह किसे मिलेगा, इसे लेकर संविधान में व्यवस्था है. सिंबल्स ऑर्डर 1968 के पैरा 15 में इसका उल्लेख मिलता है. यह कहता है कि जब आयोग इस बात से संतुष्‍ट हो जाए कि दो गुटों में पार्टी की दावेदारी को लेकर विवाद है तो आयोग का फैसला अंतिम माना जाएगा. राष्‍ट्रीय और राज्‍य स्‍तर की मान्‍यता प्राप्‍त पार्टियों में विवाद होने पर यह नियम लागू होता है. लेकिन जो मान्‍यता प्राप्‍त पार्टी नहीं हैं, उनके मामले में आयोग गुटों को समझा सकता है.

1968 के नियम के मुताबिक चुनाव आयोग अपनी संतुष्टि के आधार पर पार्टी के नाम और सिंबल पर फैसला करता है. आयोग अलग हुए गुटों की स्थिति, ताकत, विधायक और सांसदों की संख्या को ध्यान में रखता है. वो दोनों में से किसी को भी पुराना सिंबल ना देने का फैसला भी ले सकता है.

चुनाव आयोग करेगा एलजेपी के सिंबल का फैसला
चुनाव आयोग करेगा एलजेपी के सिंबल का फैसला

पार्टियों में दो फाड़ के कुछ उदाहरण

1968 ले पहले चुनाव आयोग 1961 के नियम के तहत कार्यकारी आदेश और नोटिफिकेशन जारी करता था.

1) सीपीआई- साल 1964 में सीपीआई यानि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का विभाजन हुआ था. पार्टी के एक धड़े ने चुनाव आयोग से संपर्कि किया और नए गुट को सीपीआई (एम) के रूप में मान्यता देने का अनुरोध किया. नए गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल, और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की सूची भी आयोग को दी थी जिनका समर्थन उन्हें प्राप्त था. आयोग ने पाया कि अलग हुए धड़े का समर्थन करने वाले वोट 3 राज्यों में 4 फीसदी से ज्यादा हैं और इस नए गुट को सीपीाआई(एम) के रूप में मान्यता दे दी.

सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिंबल
सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिंबल

2) कांग्रेस- साल 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) दो धड़ों में बंट गई. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली पुरानी पार्टी कांग्रेस(ओ) और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली नई पार्टी कांग्रेस (जे) कहलाई. पुरानी कांग्रेस ने पार्टी के चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी को बरकरार रखा जबकि अलग हुए गुट को बछड़े के साथ गाय का सिंबल दिया गया था.

3) एआईएडीएमके- तमिलनाडु की एआईएडीएमके पार्टी के विभाजन के वक्त चुनाव आयोग को अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा. एमजी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी के नेतृत्व वाले समूह को अधिकांश सांसदों और विधायकों का समर्थन प्राप्त था. जबकि जयललिता को पार्टी के संगठन में पर्याप्त बहुमत मिला हुआ था. इससे पहले कि आयोग कोई निर्णय ले पाता कि किस गुट को पार्टी का चुनाव चिन्ह दिया जाए. दोनों गुटों में समझौता हो गया.

कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद दो सिंबल
कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद दो सिंबल

1997 में बदल गए नियम

कांग्रेस के विभाजन के मामले में आयोग ने दोनों गुटों को मान्यता दी थी. कांग्रेस(ओ) और कांग्रेस (जे) के रूप में सामने आए दोनों में से पुरानी पार्टी का पुराना सिंबल बरकरार रहा. जबकि नए गुट को नया सिंबल दिया गया. 1997 तक यही नियम कायदे अपनाए जाते रहे.

1997 में चुनाव आयोग ने नई पार्टियों को राज्य या राष्ट्रीय दलों के रूप में मान्यता नहीं दी. आयोग को लगा कि केवल सांसद और विधायकों का होना ही काफी नहीं है. क्योंकि निर्वाचित सांसद या विधायक अपने माता-पिता के उस दल से चुनाव लड़ा और जीता जो अविभाजित था. आयोग ने एक नया नियम पेश किया जिसके तहत पार्टी से अलग बने गुट को एक अलग पार्टी के रूप में पंजीकृत करना था. जिसके बाद लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर ही उसे राष्ट्रीय या राज्य पार्टी का दर्जा मिलेगा.

ये भी पढ़ें: राजनेताओं और फिल्मी सितारों के 'बिगड़ैल' बेटे, कोई नशे का आदी रहा तो किसी पर हत्या का आरोप

हैदराबाद: बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी का 'बंगला' जब्त हो गया है. दरअसल 'बंगला' एलजेपी का चुनाव चिन्ह है, जिसे में पार्टी में हुए दो फाड़ के बाद चुनाव आयोग ने फ्रीज कर दिया है. पार्टी और सिंबल पर पशुपति पारस और चिराग पासवान अपनी-अपनी दावेदारी ठोक रहे थे लेकिन अब केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर दिया है. अब आगे क्या होगा ? किसे मिलेगा बंगले का सिंबल ? पार्टी में दो फाड़ होने पर चुनाव आयोग कैसे फैसला करता है कि पार्टी का सिंबल किसे दिया जाए ? क्या हैं इससे जुड़े नियम कायदे ? इतिहास में ऐसे मौकों पर आयोग ने क्या और कैसे फैसला लिया ? जानने के लिए पढ़िये ईटीवी भारत एक्सप्लेनर (etv bharat explainer)

चाचा-भतीजे की जंग में जब्त हुआ 'बंगला'

लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक और पूर्व अध्यक्ष रामविलास पासवान के निधन के बाद पार्टी दो फाड़ हो गई है. पार्टी के दो धड़ों में से एक तरफ हैं रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस और दूसरी तरफ हैं रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान. बीते दिनों चाचा-भतीजे की इस जंग ने पटना से दिल्ली तक उस वक्त सुर्खियां बटोरी थी जब पशुपति पारस ने पार्टी के सांसदों के समर्थन से अध्यक्ष पद पर दावा कर लिया था. उधर पार्टी के सांसद चिराग पासवान खुद को पार्टी का अध्यक्ष बताते रहे.

चुनाव आयोग ने एलजेपी का सिंबल किया फ्रीज
चुनाव आयोग ने एलजेपी का सिंबल किया फ्रीज

चाचा भतीजे की जंग में पार्टी दो फाड़ हो गई, जिसके बाद पशुपति पारस को केंद्र की मोदी सरकार में मंत्रीपद भी मिला था. बैठकों से लेकर रैलियों तक में दोनों लोग एक ही चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल करते रहे और फिर मामला चुनाव आयोग पहुंच गया.

दोनों नहीं कर सकते 'बंगले' का इस्तेमाल

लोक जनशक्ति पार्टी में चाचा पशुपति पारस बनाम भतीजे चिराग पासवान के बीच चल रही नेतृत्व की जंग के बीच चुनाव आयोग ने बड़ा फैसला लिया है. शनिवार को केंद्रीय चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी के चुनाव चिह्न को फ्रीज करने का फैसला लिया है. अब इस कार्रवाई के बाद पशुपति कुमार पारस और चिराग दोनों ही इस चिह्न का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं.

दरअसल बिहार की दो विधानसभा चुनावों पर उपचुनाव होने हैं. बीते दिनों चिराग पासवान ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखकर पार्टी के चुनाव चिन्ह पर अपना दावा किया था. जिसके बाद आयोग ने पार्टी के चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर लिया. अब दोनों में से कोई भी तब तक सिंबल का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा जब तक चुनाव आयोग इस विवाद का निपटारा नहीं कर देता. अब दोनों को अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर उपचुनाव लड़ना होगा.

एलजेपी में चाचा बनाम भतीजे की जंग
एलजेपी में चाचा बनाम भतीजे की जंग

पार्टी में दो फाड़ होने पर चुनाव आयोग की शक्तियां

अगर पार्टी दो फाड़ होती है तो चुनाव चिन्ह किसे मिलेगा, इसे लेकर संविधान में व्यवस्था है. सिंबल्स ऑर्डर 1968 के पैरा 15 में इसका उल्लेख मिलता है. यह कहता है कि जब आयोग इस बात से संतुष्‍ट हो जाए कि दो गुटों में पार्टी की दावेदारी को लेकर विवाद है तो आयोग का फैसला अंतिम माना जाएगा. राष्‍ट्रीय और राज्‍य स्‍तर की मान्‍यता प्राप्‍त पार्टियों में विवाद होने पर यह नियम लागू होता है. लेकिन जो मान्‍यता प्राप्‍त पार्टी नहीं हैं, उनके मामले में आयोग गुटों को समझा सकता है.

1968 के नियम के मुताबिक चुनाव आयोग अपनी संतुष्टि के आधार पर पार्टी के नाम और सिंबल पर फैसला करता है. आयोग अलग हुए गुटों की स्थिति, ताकत, विधायक और सांसदों की संख्या को ध्यान में रखता है. वो दोनों में से किसी को भी पुराना सिंबल ना देने का फैसला भी ले सकता है.

चुनाव आयोग करेगा एलजेपी के सिंबल का फैसला
चुनाव आयोग करेगा एलजेपी के सिंबल का फैसला

पार्टियों में दो फाड़ के कुछ उदाहरण

1968 ले पहले चुनाव आयोग 1961 के नियम के तहत कार्यकारी आदेश और नोटिफिकेशन जारी करता था.

1) सीपीआई- साल 1964 में सीपीआई यानि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का विभाजन हुआ था. पार्टी के एक धड़े ने चुनाव आयोग से संपर्कि किया और नए गुट को सीपीआई (एम) के रूप में मान्यता देने का अनुरोध किया. नए गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल, और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की सूची भी आयोग को दी थी जिनका समर्थन उन्हें प्राप्त था. आयोग ने पाया कि अलग हुए धड़े का समर्थन करने वाले वोट 3 राज्यों में 4 फीसदी से ज्यादा हैं और इस नए गुट को सीपीाआई(एम) के रूप में मान्यता दे दी.

सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिंबल
सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिंबल

2) कांग्रेस- साल 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) दो धड़ों में बंट गई. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली पुरानी पार्टी कांग्रेस(ओ) और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली नई पार्टी कांग्रेस (जे) कहलाई. पुरानी कांग्रेस ने पार्टी के चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी को बरकरार रखा जबकि अलग हुए गुट को बछड़े के साथ गाय का सिंबल दिया गया था.

3) एआईएडीएमके- तमिलनाडु की एआईएडीएमके पार्टी के विभाजन के वक्त चुनाव आयोग को अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा. एमजी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी के नेतृत्व वाले समूह को अधिकांश सांसदों और विधायकों का समर्थन प्राप्त था. जबकि जयललिता को पार्टी के संगठन में पर्याप्त बहुमत मिला हुआ था. इससे पहले कि आयोग कोई निर्णय ले पाता कि किस गुट को पार्टी का चुनाव चिन्ह दिया जाए. दोनों गुटों में समझौता हो गया.

कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद दो सिंबल
कांग्रेस में दो फाड़ होने के बाद दो सिंबल

1997 में बदल गए नियम

कांग्रेस के विभाजन के मामले में आयोग ने दोनों गुटों को मान्यता दी थी. कांग्रेस(ओ) और कांग्रेस (जे) के रूप में सामने आए दोनों में से पुरानी पार्टी का पुराना सिंबल बरकरार रहा. जबकि नए गुट को नया सिंबल दिया गया. 1997 तक यही नियम कायदे अपनाए जाते रहे.

1997 में चुनाव आयोग ने नई पार्टियों को राज्य या राष्ट्रीय दलों के रूप में मान्यता नहीं दी. आयोग को लगा कि केवल सांसद और विधायकों का होना ही काफी नहीं है. क्योंकि निर्वाचित सांसद या विधायक अपने माता-पिता के उस दल से चुनाव लड़ा और जीता जो अविभाजित था. आयोग ने एक नया नियम पेश किया जिसके तहत पार्टी से अलग बने गुट को एक अलग पार्टी के रूप में पंजीकृत करना था. जिसके बाद लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर ही उसे राष्ट्रीय या राज्य पार्टी का दर्जा मिलेगा.

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