नई दिल्ली : काफी उठा-पटक के बाद आखिरकार नेपाल में फिर से केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए. संसद में विश्वास प्रस्ताव हारने के बाद फिर से उनका आना किसी राजनीतिक करिश्मे से कम नहीं है. लेकिन भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह इस पूरी घटना को किस नजरिए से देखे.
इस विषय पर ईटीवी भारत से बात करते हुए विदेशी मामलों के जानकार प्रो. एसडी मुनि ने कहा कि भारत ओली के पक्ष में है. उन्होंने कहा कि ओली के लिए सबसे पहली चुनौती अगले एक महीने में विश्वास मत जीतने की है. नेपाल के संविधान के मुताबिक जब तक वह विश्वास मत हासिल नहीं कर लेते हैं, वह अंतरिम प्रधानमंत्री ही कहलाएंगे. अगर वह बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए, तो मेरी राय में वह संसद को भंग करने की अनुशंसा कर देंगे. उसके बाद चुनाव ही एकमात्र विकल्प बचेगा.
प्रो. मुनि ने कहा, 'मुझे नहीं लगता है कि ओली आसानी से बहुमत हासिल कर लेंगे. उन्हें बहुत अधिक समर्थन मिलने वाला नहीं है. इसलिए चुनाव ही एकमात्र विकल्प बचता है.'
उन्होंने आगे बताया कि भारत ने स्पष्ट तौर पर अपनी स्थिति साफ नहीं की है. वह नेपाली कांग्रेस को समर्थन देगा या यूएमएल को या फिर किसी और को. आप ऐसे भी समझिए कि तराई के बड़े नेता महंत ठाकुर ने न तो ओली का समर्थन किया है और न ही किसी दूसरी पार्टी का. और यह सबको पता है कि महंत का भारत से कितना घनिष्ठ रिश्ता है.
आपको बता दें कि इसी सप्ताह सोमवार को सीपीएन-यूएमएल की अगुआई कर रहे केपी शर्मा ओली ने संसद में अपना विश्वास मत खो दिया था. इसलिए उन्हें अगले 30 दिनों में फिर से बहुमत साबित करना होगा. वह अगर ऐसा नहीं कर पाए, तो संविधान के अनुच्छेद 76(5) के मुताबिक दूसरी पार्टी को सरकार बनाने का मौका दिया जाएगा.
सवाल उठता है कि नेपाल का भारत और चीन दोनों से करीबी रिश्ता रहा है. इसलिए वह इन रिश्तों को किस तरह से संतुलित कर पाएगा. प्रो. एसडी मुनि बताते हैं कि नेपाल और चीन के बीच घनिष्ठता बढ़ी है. यह एक तथ्य है. लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि ओली के कार्यकाल में चीन के सबसे महत्वाकांक्षी बीआरआई प्रोजेक्ट की गति धीमी हुई है. इसलिए भारत ओली का साथ देने के लिए तैयार है. उसकी हर कोशिश होगी कि ओली फिर से चीन के पीछे न चले जाएं.
नेपाल का इतिहास रहा है कि वह एशिया की इन दोनों बड़ी शक्तियों के साथ संतुलन बनाकर चलता है. भारत के लिए नेपाल बहुत ही अहम है. यह चीन और चीन द्वारा नियंत्रित तिब्बत के बीच 'बफर' का काम करता है. चीन के लिहाज से तिब्बत तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए नेपाल उसके लिए गेट-वे का काम करता रहा है. नेपाल में तिब्बती मूल के लोगों पर चीन हर हाल में नियंत्रण रखना चाहता है ताकि वहां पर चीन विरोधी दल खड़ा न हो सके.
2020 में नेपाल में कई उथल-पुथल मचे. ओली ने संसद को भंग करने का निर्णय लिया. राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने उस पर मुहर भी लगा दी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ओली के फैसले पर रोक लगा दी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ओली के इस कदम की काफी तीखी आलोचना हुई थी.
पूर्व राजदूत जीतेंद्र त्रिपाठी ने कहा कि अगर ओली विश्वास मत जीत भी गए, तो भारत के खिलाफ बोलने से पहले दो बार सोचेंगे. क्योंकि भारत के खिलाफ बयान देने की वजह से नेपाल में उनकी स्थिति कमजोर हुई. त्रिपाठी ने कहा कि अगर नेपाल का नेतृत्व नेपाली कांग्रेस के हाथों में रहे या फिर उनके नेताओं को अहम मंत्रालय मिले, तो यह भारत के हित में होगा.
उन्होंने आगे कहा कि हां, ओली सत्ता में आए, तो वह भी भारत के खिलाफ नहीं जाएंगे. उन पर काफी दबाव रहेगा कि वह भारत के खिलाफ कोई भी बयान न दें. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो चीन की हर कोशिश होगी कि वह ओली पर दबाव बनाकर रखे.
त्रिपाठी ने कहा कि प्रचंड और ओली दोनों नेता एक दूसरे को भारत समर्थक बता रहे हैं. लेकिन अब हालात बदलते नजर आ रहे हैं. अगर ओली सत्ता में आते हैं, तो वह भारत के खिलाफ नरम रहेंगे. फिर भी नेपाली कांग्रेस का नेतृत्व ओली की अपेक्षा बेहतर रहेगा.
आपको बता दें कि सोमवार को ओली द्वारा बहुमत खो जाने के बाद राष्ट्रपति ने विपक्षी पार्टियों को गुरुवार तक सरकार बनाने का समय दिया था. लेकिन विपक्षी दल सरकार बनाने में नाकामयाब रहे.
नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा को सीपीएन-माओवादी सेंटर के प्रमुख पुष्पकमल दहल प्रचंड का समर्थन हासिल था.
सीपीएन-यूएमएल के पास 271 सदस्यों की जनप्रतिनिधि सभा में 121 सदस्य हैं. इसका नेतृत्व केपी शर्मा ओली के पास है. सरकार बनाने के लिए 136 सदस्यों की जरूरत होती है. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी 2018 से 2020 तक सत्ता में थी.
17 मई 2018 को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था. ओली ने अपनी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल और प्रचंड ने अपनी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) का विलय करके एनसीपी बनाई थी.