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उपचुनाव ने याद दिलाया कितना जरूरी है चुनाव सुधार ?

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Published : Nov 7, 2022, 7:54 PM IST

Updated : Nov 8, 2022, 11:55 AM IST

चुनाव में धन-बल का चलन इस कदर बढ़ गया है कि चुनाव करने वाली जिम्मेदार संस्था को इसे रोकने के लिए व्यापक उपाय करने होंगे. पार्टियों को भी अपने उम्मीदवार तय करने में जाति-मजहब से ऊपर उठकर विकास और देशहित के बारे में सोचना होगा.

Munugode by election
ये किस तरह के चुनाव हैं

हैदराबाद : तेलुगु राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश का ध्यान खींचने वाला मुनुगोड़े उपचुनाव (Munugode by election) आखिरकार संपन्न हो गया. चुनाव के दौरान काफी तमाशा हुआ. इस चुनाव ने हमें फिर ये याद दिला दिया कि चुनावी प्रक्रिया पैसे और बाहुबल के खेल में बदल गई है. पहले वो दिन थे जब एक वोट के लिए एक रुपये की पेशकश की जाती थी, आज हालात ये हैं कि हर वोट 5000 रुपये का भुगतान किया जा रहा है. राजनीतिक नेताओं ने स्थिति को खराब करने के लिए हर पाप किया है.

राजनीतिक नेता चुनावी कानून का उल्लंघन करते हैं और चुनाव आयोग मूकदर्शक बना रहता है. एक सांसद ने पहले कहा था कि चुनाव आयोग ने जो अधिकतम चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित कर रखी है वह तो एक दिन का खर्च पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है. अध्ययनों के अनुसार, जिन राजनीतिक दलों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में देश भर में 35,000 करोड़ रुपये खर्च किए थे, उन्होंने 2019 के आम चुनावों में लगभग 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए.

विधानसभा चुनावों के दौरान भी काले धन का निर्बाध प्रवाह चलन बन गया है. बहुत पहले, न्यायमूर्ति छागला (Justice Chagla) ने कहा था कि चूंकि भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है, इसलिए न केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों की बल्कि मतदाताओं की भी अखंडता की रक्षा की जानी चाहिए. लेकिन इतने सालों से राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं? उन्होंने मतदाताओं को लालच के नशे में इस कदर डुबोया है कि मतदाता खुलेआम वोट के बदले पैसे की मांग कर रहे हैं. राजनीतिक दल एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं जिसके तहत वे चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं और फिर इस तरह खर्च किए गए धन की वसूली के लिए अनियंत्रित भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं.

धन बल और आपराधिक ट्रैक रिकॉर्ड राजनीतिक दलों के लिए चुनाव में अपने उम्मीदवारों को चुनने का मानदंड बन गए हैं. जाति और धर्म की तर्ज पर विभाजनकारी राजनीति करने के अलावा राजनीतिक दल वोट के लिए लालच देने का भी सहारा लेते रहे हैं.

राजनीतिक दलों ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के मौलिक संवैधानिक सिद्धांत को हंसी का पात्र बना दिया है, वह सत्ता का दुरुपयोग करते हैं. यदि चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को बनाए रखना है, तो चुनाव आयुक्तों का चयन एक पैनल द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों, जैसा कि विधि आयोग ने भी अतीत में सुझाव दिया है.

ऐसा प्रयास करना होगा कि ऐसी शक्तिशाली और स्वायत्त चुनाव प्रणाली हो, जो केवल कानून के प्रति जवाबदेह हो. विभिन्न समितियों ने चुनावी प्रक्रिया को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने और इसमें सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं, लेकिन यह ठंडे बस्ते में हैं.

उन सिफारिशों को लागू करने के साथ-साथ फर्स्ट पास्ट (सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने) की वर्तमान प्रणाली में भी सुधार किया जाना चाहिए. आनुपातिक प्रतिनिधित्व, जो पार्टियों द्वारा प्राप्त वोट प्रतिशत को सीटों की संख्या तय करने में लेता है, जिसके लिए वे हकदार हैं, उसे लागू किया जाना चाहिए.

पढ़ें- Munugode bypoll result : टीआरएस ने मारी बाजी, समर्थकों ने मनाया जीत का जश्न

इसके साथ ही विधान मंडल का कोई भी निर्वाचित सदस्य अगर पार्टी बदलता है तो उसकी सदस्यता खत्म हो जानी चाहिए. दल बदलने के बाद उसे कम से कम पांच साल के लिए चुनाव के लिए अपात्र घोषित किया जाना चाहिए. ऐसा करने पर ही दलबदल के इस अभिशाप पर काबू पाया जा सकता है.

राजनीतिक दलों के लिए भी जरूरी है कि वह ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दें जो अपना हित साधने के बजाए देश हित में काम करें. राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र में यह बताना चाहिए कि वे समाज के विकास के लिए क्या उपाय करना चाहते हैं. पार्टियां बड़े-बड़े वादे करती हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें भूल जाती हैं. ऐसी पार्टियों को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है. हम एक लोकतांत्रिक देश होने का दावा तभी कर सकते हैं जब इस तरह के व्यापक सुधार किए जाएं.

(ईनाडु संपादकीय)

हैदराबाद : तेलुगु राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश का ध्यान खींचने वाला मुनुगोड़े उपचुनाव (Munugode by election) आखिरकार संपन्न हो गया. चुनाव के दौरान काफी तमाशा हुआ. इस चुनाव ने हमें फिर ये याद दिला दिया कि चुनावी प्रक्रिया पैसे और बाहुबल के खेल में बदल गई है. पहले वो दिन थे जब एक वोट के लिए एक रुपये की पेशकश की जाती थी, आज हालात ये हैं कि हर वोट 5000 रुपये का भुगतान किया जा रहा है. राजनीतिक नेताओं ने स्थिति को खराब करने के लिए हर पाप किया है.

राजनीतिक नेता चुनावी कानून का उल्लंघन करते हैं और चुनाव आयोग मूकदर्शक बना रहता है. एक सांसद ने पहले कहा था कि चुनाव आयोग ने जो अधिकतम चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित कर रखी है वह तो एक दिन का खर्च पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है. अध्ययनों के अनुसार, जिन राजनीतिक दलों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में देश भर में 35,000 करोड़ रुपये खर्च किए थे, उन्होंने 2019 के आम चुनावों में लगभग 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए.

विधानसभा चुनावों के दौरान भी काले धन का निर्बाध प्रवाह चलन बन गया है. बहुत पहले, न्यायमूर्ति छागला (Justice Chagla) ने कहा था कि चूंकि भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की व्यवस्था है, इसलिए न केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों की बल्कि मतदाताओं की भी अखंडता की रक्षा की जानी चाहिए. लेकिन इतने सालों से राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं? उन्होंने मतदाताओं को लालच के नशे में इस कदर डुबोया है कि मतदाता खुलेआम वोट के बदले पैसे की मांग कर रहे हैं. राजनीतिक दल एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं जिसके तहत वे चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं और फिर इस तरह खर्च किए गए धन की वसूली के लिए अनियंत्रित भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं.

धन बल और आपराधिक ट्रैक रिकॉर्ड राजनीतिक दलों के लिए चुनाव में अपने उम्मीदवारों को चुनने का मानदंड बन गए हैं. जाति और धर्म की तर्ज पर विभाजनकारी राजनीति करने के अलावा राजनीतिक दल वोट के लिए लालच देने का भी सहारा लेते रहे हैं.

राजनीतिक दलों ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के मौलिक संवैधानिक सिद्धांत को हंसी का पात्र बना दिया है, वह सत्ता का दुरुपयोग करते हैं. यदि चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को बनाए रखना है, तो चुनाव आयुक्तों का चयन एक पैनल द्वारा किया जाना चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों, जैसा कि विधि आयोग ने भी अतीत में सुझाव दिया है.

ऐसा प्रयास करना होगा कि ऐसी शक्तिशाली और स्वायत्त चुनाव प्रणाली हो, जो केवल कानून के प्रति जवाबदेह हो. विभिन्न समितियों ने चुनावी प्रक्रिया को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने और इसमें सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं, लेकिन यह ठंडे बस्ते में हैं.

उन सिफारिशों को लागू करने के साथ-साथ फर्स्ट पास्ट (सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने) की वर्तमान प्रणाली में भी सुधार किया जाना चाहिए. आनुपातिक प्रतिनिधित्व, जो पार्टियों द्वारा प्राप्त वोट प्रतिशत को सीटों की संख्या तय करने में लेता है, जिसके लिए वे हकदार हैं, उसे लागू किया जाना चाहिए.

पढ़ें- Munugode bypoll result : टीआरएस ने मारी बाजी, समर्थकों ने मनाया जीत का जश्न

इसके साथ ही विधान मंडल का कोई भी निर्वाचित सदस्य अगर पार्टी बदलता है तो उसकी सदस्यता खत्म हो जानी चाहिए. दल बदलने के बाद उसे कम से कम पांच साल के लिए चुनाव के लिए अपात्र घोषित किया जाना चाहिए. ऐसा करने पर ही दलबदल के इस अभिशाप पर काबू पाया जा सकता है.

राजनीतिक दलों के लिए भी जरूरी है कि वह ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दें जो अपना हित साधने के बजाए देश हित में काम करें. राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र में यह बताना चाहिए कि वे समाज के विकास के लिए क्या उपाय करना चाहते हैं. पार्टियां बड़े-बड़े वादे करती हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्हें भूल जाती हैं. ऐसी पार्टियों को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है. हम एक लोकतांत्रिक देश होने का दावा तभी कर सकते हैं जब इस तरह के व्यापक सुधार किए जाएं.

(ईनाडु संपादकीय)

Last Updated : Nov 8, 2022, 11:55 AM IST
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