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Budhi Diwali: छोटी या बड़ी नहीं, यहां मनाते हैं बूढ़ी दिवाली, भगवान राम नहीं राजा बलि से है कनेक्शन, जानें दिलचस्प कहानी

What is Budhi Diwali: छोटी दिवाली और बड़ी दिवाली के बारे में आपने सुना होगा, लेकिन क्या आपने बूढ़ी दिवाली के बारे में सुना है. क्या आप जानते हैं कि ये दिवाली भगवान राम के अयोध्या लौटने से भी पहले से मनाई जा रही है. कहां मनाते हैं ये बूढ़ी दिवाली और क्या है इससे जुड़ी कहानी. जानने के लिए पढ़ें

Budhi Diwali
बूढ़ी दिवाली
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 11, 2023, 4:58 PM IST

सिरमौर/शिमला: देशभर में दिवाली की धूम देखने को मिल रही है. बाजार से लेकर घरों तक दीपावली की रौनक है. इस सब के बीच देश का एक बड़ा इलाका ऐसा है, जहां दिवाली कार्तिक महीने में नहीं मनाई जाती. इस बार देशभर में दिवाली 12 नवंबर को मनाई जा रही है लेकिन इन इलाकों में दिवाली एक महीने बाद 12 दिसंबर को मनाई जाएगी है. जिसे 'बूढ़ी दिवाली' कहते हैं.

हिमाचल प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के कुछ इलाकों में ये बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की करीब 140 पंचायतों के साथ-साथ कुल्लू और शिमला जिले के कुछ इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इसी तरह उत्तराखंड के जौनसार-बावर के इलाकों में ये त्योहार मनाया जाता है, लेकिन इन इलाकों में दिवाली और बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे की कहानी बहुत दिलचस्प है. जहां देशभर में दिवाली का कनेक्शन भगवान राम की लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने से है वहीं इन इलाकों में दिवाली का कनेक्शन विष्णु के राम अवतार से भी पुराना है.

Budhi Diwali
हिमाचल के कई इलाकों में मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

कब मनाते हैं बूढ़ी दिवाली- लेखक दीपक शर्मा बताते हैं कि इस पर्व का नाम 'बुड्ढी दयावड़ी' है, यहां दयावड़ी का अर्थ संघर्ष है. देशभर में दिवाली कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है जबकि बूढ़ी दिवाली एक महीने बाद मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है. इस बार बूढ़ी दिवाली 12 दिसंबर को मनाई जाएगी. दरअसल इस पर्व से जुड़ी कहानी त्रेतायुग से पहले की है. दीपक शर्मा कहते हैं कि इतिहास बूढ़ा होता है और इस पर्व से जुड़ी कहानी बहुत पुरानी है. इसलिये इसे बूढ़ी दिवाली कहा जाता है.

क्यों मनाते हैं बूढ़ी दिवाली- दीपक शर्मा के मुताबिक बूढ़ी दिवाली की कहानी राक्षस वृत्रासुर और देवराज इंद्र के बीच हुई जंग से जुड़ी है. ये वही वृत्रासुर राक्षस था जिसे मारने के लिए ऋषि दधिचि ने इंद्र को अपनी अस्थियां दान कर दी थी. फिर इन्हीं अस्थियों से इंद्र का वज्र तैयार हुआ, जिससे राक्षस वृत्रासुर का वध किया गया था. इसी उपलक्ष्य में इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

Budhi Diwali
लोकनृत्य और लोकगीतों के साथ मनती है बूढ़ी दिवाली

देर से मिली थी भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की ख़बर- एक महीने देर से दिवाली मनाने को लेकर इन इलाकों में एक और कहानी सुनाई जाती है. सिरमौर जिले में एक बड़ी आबादी हाटी समुदाय की है. केंद्रीय हाटी समिति के उपाध्यक्ष सुरेंद्र हिंदुस्तानी के मुताबिक इन इलाकों में भगवान राम के लंका विजय कर अयोध्या लौटने की ख़बर एक महीने बाद मिली थी जिसके कारण इन इलाकों में दीप जलाकर दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई. सुरेंद्र ने बताया कि अकेले सिरमौर जिले के गिरीपार इलाके में 140 पंचायतों के 435 गांवों में बूढ़ी दिवाली बहुत धूमधाम से मनाई जाती है. हालंकि कुछ जगह ये त्योहार 3 दिन मनाते हैं तो कुछ जगह 5 और 7 दिन तक पर्व मनाया जाया है.

दिवाली की वजह राजा राम नहीं राजा बलि हैं- हिमाचल प्रदेश के कई इलाकों में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली का कनेक्शन राजा राम से पहले राजा बलि से जुड़ता है. पौराणिक कथाओं में राजा बलि का जिक्र एक दानी राजा के रूप में भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा में मिलता है. जहां वामन अवतार में विष्णु ने राजा बलि से 3 पग भूमि का दान मांगा और फिर उन्होंने अपने पहले दो पग में पूरा ब्रह्मांड नाप लिया. भगवान विष्णु ने दैत्य राज बलि से जब तीसरा पग रखने की जगह मांगी तो राजा बलि ने अपना सिर आगे कर लिया था. इसके बाद भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताललोक जाने का आदेश दिया था. लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक कुल्लू से लेकर शिमला तक के कई इलाकों में दिवाली पर राजा बलि का गुणगान होता है. बाद में भगवान राम के अयोध्या लौटने पर दीपावली पर दीये जलाने का चलन शुरू हुआ था.

Budhi Diwali
मशाल जलाकर बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाते लोग

कैसे मनाते है दिवाली- कार्तिक महीने में दिवाली राजा बलि के पर्व के रूप में मनाया जाता है. इन इलाकों में दिवाली की रात को लोग मशाल जलाकर नाचते हैं और राजा बलि का गुणगान करते हैं. पूरी रात भर ये कार्यक्रम होता है. भगवान राम के अयोध्या लौटने की ख़बर मिलने के बाद इन इलाकों में दीप जलाने की परंपरा भी शुरू हुई. कुल मिलाकर बूढ़ी दिवाली हो या दिवाली, लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक हिमाचल के इन इलाकों में ये त्योहार भगवान राम के अयोध्या लौटने से पहले से मनाए जा रहे हैं.

कैसे मनाते है बूढ़ी दिवाली- इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली के दौरान रात भर मशाल जलाकर नाच-गाना और जश्न होता है. इस दौरान लोग राक्षस वृत्तासुर और इंद्र की सेना के रूप में बंट जाते हैं और एक जलती हुई मशाल को छीनने की होड़ लग जाती है. ये पौराणिक कहानियों में दर्ज वृत्तासुर और इंद्र के युद्ध को दर्शाता है. 3 से लेकर 7 दिन तक होने वाले इस त्योहार में खास मेले भी लगते हैं. इस दौरान पूरी रात रामायण, महाभारत, राजा बलि से लेकर देवराज इंद्र तक से जुड़ी कहानियों का मंचन और व्याख्यान होता है. स्थानीय बोली में इन पौराणिक घटनाओं और पात्रों से जुड़े गीत गाए जाते हैं. लोक नृत्य होते हैं और कई तरह के स्थानीय पकवान बनाए जाते हैं.

पारंपरिक व्यंजनों के साथ लोकगीत और नृत्य- बूढ़ी दिवाली के मौके पर लोग पारंपरिक व्यंजन और सूखे व्यंजन मूड़ा, शाकुली, चिड़वा, अखरोट आदि बांटते हैं. रातभर लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, नाटी, स्वांग, रासा और हुड़क जैसे लोक नृत्य और गीत गाकर जश्न मनाया जाता है. इस त्योहार के लिए बकायदा घर की बहनों और बेटियों को भी न्योता दिया जाता है. बूढ़ी दिवाली के त्योहार के दौरान दावतों का दौर होता है और मेहमानों को कई तरह के व्यंजन परोसे जाते हैं.

Budhi Diwali
3 से 7 दिन तक मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

बूढ़ी दिवाली परंपरा का हिस्सा- इन इलाकों में दीप जलाकर दीपावली का त्योहार भी मनाया जाता है लेकिन बूढ़ी दिवाली भी इस इलाके की अटूट परंपरा है. दिवाली के एक महीने बाद जब ये त्योहार मनाया जाता है तब इन इलाकों में कड़ाके की ठंड होती है, कई इलाके तो बर्फ की चादर ओढ़ लेते हैं लेकिन मौसम की ये दुश्वारियां भी बूढ़ी दिवाली के जश्न में खलल नहीं डाल पाती. बदलते वक्त के साथ इन इलाकों के छात्र और युवा पढ़ने के साथ नौकरी करने के लिए दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे शहरों का रुख कर लेते हैं लेकिन बूढ़ी दिवाली पर घर लौटकर आते हैं. सिरमौर के राजेंद्र, नीलम, लाल सिंह जैसे लोगों ने बताया वो बूढ़ी दिवाली मनाने छुट्टी लेकर घर आते हैं ताकि अपनी परंपरा को ऐसे ही जीवित रखें, ताकि अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें.

ये भी पढ़ें: Diwali 2023: दिवाली पूजा में इन बातों का रखें खास ख्याल, भूलकर भी न करें ये काम, वरना मां लक्ष्मी होंगी नाराज

सिरमौर/शिमला: देशभर में दिवाली की धूम देखने को मिल रही है. बाजार से लेकर घरों तक दीपावली की रौनक है. इस सब के बीच देश का एक बड़ा इलाका ऐसा है, जहां दिवाली कार्तिक महीने में नहीं मनाई जाती. इस बार देशभर में दिवाली 12 नवंबर को मनाई जा रही है लेकिन इन इलाकों में दिवाली एक महीने बाद 12 दिसंबर को मनाई जाएगी है. जिसे 'बूढ़ी दिवाली' कहते हैं.

हिमाचल प्रदेश से लेकर उत्तराखंड के कुछ इलाकों में ये बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की करीब 140 पंचायतों के साथ-साथ कुल्लू और शिमला जिले के कुछ इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इसी तरह उत्तराखंड के जौनसार-बावर के इलाकों में ये त्योहार मनाया जाता है, लेकिन इन इलाकों में दिवाली और बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे की कहानी बहुत दिलचस्प है. जहां देशभर में दिवाली का कनेक्शन भगवान राम की लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने से है वहीं इन इलाकों में दिवाली का कनेक्शन विष्णु के राम अवतार से भी पुराना है.

Budhi Diwali
हिमाचल के कई इलाकों में मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

कब मनाते हैं बूढ़ी दिवाली- लेखक दीपक शर्मा बताते हैं कि इस पर्व का नाम 'बुड्ढी दयावड़ी' है, यहां दयावड़ी का अर्थ संघर्ष है. देशभर में दिवाली कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है जबकि बूढ़ी दिवाली एक महीने बाद मार्गशीर्ष महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाती है. इस बार बूढ़ी दिवाली 12 दिसंबर को मनाई जाएगी. दरअसल इस पर्व से जुड़ी कहानी त्रेतायुग से पहले की है. दीपक शर्मा कहते हैं कि इतिहास बूढ़ा होता है और इस पर्व से जुड़ी कहानी बहुत पुरानी है. इसलिये इसे बूढ़ी दिवाली कहा जाता है.

क्यों मनाते हैं बूढ़ी दिवाली- दीपक शर्मा के मुताबिक बूढ़ी दिवाली की कहानी राक्षस वृत्रासुर और देवराज इंद्र के बीच हुई जंग से जुड़ी है. ये वही वृत्रासुर राक्षस था जिसे मारने के लिए ऋषि दधिचि ने इंद्र को अपनी अस्थियां दान कर दी थी. फिर इन्हीं अस्थियों से इंद्र का वज्र तैयार हुआ, जिससे राक्षस वृत्रासुर का वध किया गया था. इसी उपलक्ष्य में इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.

Budhi Diwali
लोकनृत्य और लोकगीतों के साथ मनती है बूढ़ी दिवाली

देर से मिली थी भगवान राम के अयोध्या पहुंचने की ख़बर- एक महीने देर से दिवाली मनाने को लेकर इन इलाकों में एक और कहानी सुनाई जाती है. सिरमौर जिले में एक बड़ी आबादी हाटी समुदाय की है. केंद्रीय हाटी समिति के उपाध्यक्ष सुरेंद्र हिंदुस्तानी के मुताबिक इन इलाकों में भगवान राम के लंका विजय कर अयोध्या लौटने की ख़बर एक महीने बाद मिली थी जिसके कारण इन इलाकों में दीप जलाकर दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हुई. सुरेंद्र ने बताया कि अकेले सिरमौर जिले के गिरीपार इलाके में 140 पंचायतों के 435 गांवों में बूढ़ी दिवाली बहुत धूमधाम से मनाई जाती है. हालंकि कुछ जगह ये त्योहार 3 दिन मनाते हैं तो कुछ जगह 5 और 7 दिन तक पर्व मनाया जाया है.

दिवाली की वजह राजा राम नहीं राजा बलि हैं- हिमाचल प्रदेश के कई इलाकों में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली का कनेक्शन राजा राम से पहले राजा बलि से जुड़ता है. पौराणिक कथाओं में राजा बलि का जिक्र एक दानी राजा के रूप में भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा में मिलता है. जहां वामन अवतार में विष्णु ने राजा बलि से 3 पग भूमि का दान मांगा और फिर उन्होंने अपने पहले दो पग में पूरा ब्रह्मांड नाप लिया. भगवान विष्णु ने दैत्य राज बलि से जब तीसरा पग रखने की जगह मांगी तो राजा बलि ने अपना सिर आगे कर लिया था. इसके बाद भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताललोक जाने का आदेश दिया था. लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक कुल्लू से लेकर शिमला तक के कई इलाकों में दिवाली पर राजा बलि का गुणगान होता है. बाद में भगवान राम के अयोध्या लौटने पर दीपावली पर दीये जलाने का चलन शुरू हुआ था.

Budhi Diwali
मशाल जलाकर बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाते लोग

कैसे मनाते है दिवाली- कार्तिक महीने में दिवाली राजा बलि के पर्व के रूप में मनाया जाता है. इन इलाकों में दिवाली की रात को लोग मशाल जलाकर नाचते हैं और राजा बलि का गुणगान करते हैं. पूरी रात भर ये कार्यक्रम होता है. भगवान राम के अयोध्या लौटने की ख़बर मिलने के बाद इन इलाकों में दीप जलाने की परंपरा भी शुरू हुई. कुल मिलाकर बूढ़ी दिवाली हो या दिवाली, लेखक दीपक शर्मा के मुताबिक हिमाचल के इन इलाकों में ये त्योहार भगवान राम के अयोध्या लौटने से पहले से मनाए जा रहे हैं.

कैसे मनाते है बूढ़ी दिवाली- इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली के दौरान रात भर मशाल जलाकर नाच-गाना और जश्न होता है. इस दौरान लोग राक्षस वृत्तासुर और इंद्र की सेना के रूप में बंट जाते हैं और एक जलती हुई मशाल को छीनने की होड़ लग जाती है. ये पौराणिक कहानियों में दर्ज वृत्तासुर और इंद्र के युद्ध को दर्शाता है. 3 से लेकर 7 दिन तक होने वाले इस त्योहार में खास मेले भी लगते हैं. इस दौरान पूरी रात रामायण, महाभारत, राजा बलि से लेकर देवराज इंद्र तक से जुड़ी कहानियों का मंचन और व्याख्यान होता है. स्थानीय बोली में इन पौराणिक घटनाओं और पात्रों से जुड़े गीत गाए जाते हैं. लोक नृत्य होते हैं और कई तरह के स्थानीय पकवान बनाए जाते हैं.

पारंपरिक व्यंजनों के साथ लोकगीत और नृत्य- बूढ़ी दिवाली के मौके पर लोग पारंपरिक व्यंजन और सूखे व्यंजन मूड़ा, शाकुली, चिड़वा, अखरोट आदि बांटते हैं. रातभर लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, नाटी, स्वांग, रासा और हुड़क जैसे लोक नृत्य और गीत गाकर जश्न मनाया जाता है. इस त्योहार के लिए बकायदा घर की बहनों और बेटियों को भी न्योता दिया जाता है. बूढ़ी दिवाली के त्योहार के दौरान दावतों का दौर होता है और मेहमानों को कई तरह के व्यंजन परोसे जाते हैं.

Budhi Diwali
3 से 7 दिन तक मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

बूढ़ी दिवाली परंपरा का हिस्सा- इन इलाकों में दीप जलाकर दीपावली का त्योहार भी मनाया जाता है लेकिन बूढ़ी दिवाली भी इस इलाके की अटूट परंपरा है. दिवाली के एक महीने बाद जब ये त्योहार मनाया जाता है तब इन इलाकों में कड़ाके की ठंड होती है, कई इलाके तो बर्फ की चादर ओढ़ लेते हैं लेकिन मौसम की ये दुश्वारियां भी बूढ़ी दिवाली के जश्न में खलल नहीं डाल पाती. बदलते वक्त के साथ इन इलाकों के छात्र और युवा पढ़ने के साथ नौकरी करने के लिए दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे शहरों का रुख कर लेते हैं लेकिन बूढ़ी दिवाली पर घर लौटकर आते हैं. सिरमौर के राजेंद्र, नीलम, लाल सिंह जैसे लोगों ने बताया वो बूढ़ी दिवाली मनाने छुट्टी लेकर घर आते हैं ताकि अपनी परंपरा को ऐसे ही जीवित रखें, ताकि अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें.

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