नई दिल्ली : 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान जिस तरह जाति के नेताओं को लेकर खींचतान हो रही है, उससे लगता है कि जाति ही चुनाव जीतने का सबसे बड़ा फैक्टर है. दल बदलने वाले नेताओं की पहचान उनकी जाति से हो रही है. यूपी में दल-बदल का आधार ही जाति है. हर दल पार्टी में शामिल होने वाले नेता की जाति का ख्याल रख रही है. मगर ऐसा नहीं है कि जातिवाद (castism) आज यूपी में सबसे प्रभावी हुई है, आजादी के बाद से ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति हावी रही है.
आजादी के बाद से 1950 से 1960 तक उत्तर प्रदेश की राजनीति स्वतंत्रता आंदोलन के बाद उपजी सहानुभूति के कारण शांत ही रही. गोविंद बल्लभ पंत और संपूर्णानंद के कार्यकाल के दौरान जाति और धर्म के मुद्दे नहीं उठे. वहां राजनीति में जाति तब आई, जब चंद्रभानु गुप्ता सीएम बने. इससे जाट बिरादरी के नेता चरण सिंह थोड़े असहज हो गए. कांग्रेस में खटर-पटर के बाद सुचेता कृपलानी मुख्यमंत्री बनी.
इस बीच 60 के दशक में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेस पर जातिवाद का आरोप लगाते हुए पिछड़ों के लिए हक की बात की थी. उन्होंने पिछड़ा पावे सौ में साठ का नारा दिया. यह नारा काफी लोकप्रिय हुआ. चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांति दल बनाई और इस नारे को आगे बढ़ाया. 1967 में चुनाव के बाद कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता एक बार फिर सीएम बने, मगर चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस को तोड़कर उनकी सरकार गिरा दी.
चरण सिंह 328 दिनों के लिए पहली बार मुख्यमंत्री बने. इसके बाद जब-जब उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेस की सरकार बनी, तब ओबीसी समुदाय के मुख्यमंत्री ने प्रदेश का बागडोर संभाला. कांग्रेस के कार्यकाल में 1988 तक ब्राह्मण या सवर्ण समुदाय ने सरकार का नेतृत्व किया. बीजेपी के राज में अभी तक चार मुख्यमंत्री हुए हैं, इनमें से कल्याण सिंह और राम प्रकाश गुप्त ने ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व किया, जबकि राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ सवर्ण की ठाकुर बिरादरी से हैं.
1989 में जब मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हुई तो राजनीतिक दलों ने एक बार फिर नए सिरे से जातियों का विश्लेषण किया. जातियों और उपजातियों की खोजबीन शुरू हुई और डेटा निकाले गए. ओबीसी और दलित कैटिगरी में कई जातियां शामिल हुईं. इस जातीय समीकरणों का नतीजा रहा कि पिछले 31 साल में उत्तर प्रदेश में एक भी ब्राह्मण सीएम नहीं बना.1989 से पहले तक यूपी के 6 मुख्यमंत्री ब्राह्मण, 3 ठाकुर और 5 ओबीसी समुदाय से रहे.
1989 के बाद सिर्फ राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ सवर्ण सीएम रहे. 31 साल में लोध नेता कल्याण सिंह, वैश्य नेता राम प्रकाश गुप्ता, यादव नेता मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव और दलित बिरादरी की मायावती ने यूपी में शासन किया.
माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 25 फीसदी है और ओबीसी की 79 जातियां हैं. 52 फीसदी पिछड़ा वोट बैंक में 39 फीसदी वोट बैंक गैर-यादव बिरादरी का है. पिछड़ी जाति वोटरों में 20 फीसदी यादव, 12 फीसदी कुर्मी, 4 फीसदी जाट, 6 फीसदी मौर्य और 4 फीसदी लोध हैं. अन्य ओबीसी जातियों में राजभर, गुर्जर, नाईं, प्रजापति, कहार, तेली-साहू आदि शामिल हैं. सवर्ण मतदाताओं का हिस्सा करीब 16 फीसदी है, इनमें 8 पर्सेंट ब्राह्मण, 7 पर्सेंट ठाकुर और 3 पर्सेंट अन्य सामान्य वर्ग की जातियां ( भूमिहार और कायस्थ) हैं. मुसलमानों का प्रतिशत करीब 20 है. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति और सरकार भी इसी आंकड़ों के हिसाब से अपनी रणनीति तय करती है.
2022 के चुनाव में संभावना : पिछले दिनों यूपी की राजनीति में काफी उठापटक हुई. कई पुराने गठबंधन टूटे और कई जाति विशेष के नेताओं ने पाला बदला. स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे नेता समाजवादी पार्टी में आए. जबकि बीजेपी के पुराने साथी ओमप्रकाश राजभर ने भी सपा से गठबंधन कर लिया. ऐसे में यह माना जा रहा है कि 2017 की तरह पिछड़ा वोट भारतीय जनता पार्टी से छिटक सकता है. पिछड़ा वर्ग के लोध, कुर्मी और कुशवाहा वोट बीजेपी को मिल सकते हैं.
पूर्वांचल में बीजेपी ने निषाद पार्टी से गठबंधन किया है, इसका फायदा पूर्वांचल में मिल सकता है. कुशवाहा, शाक्य और राजभर समुदाय के वोट का फायदा समाजवादी पार्टी को मिल सकता है. यादव वोटर एकतरफा समाजवादी पार्टी के वोट करेंगे, इनमें से 5 फीसद परंपरागत वोट बीजेपी के खाते में जा सकता है.
2017 की तरह 125 सीटों पर दबदबा रखने वाले जाट वोटरों का एकमुश्त वोट इस बार बीजेपी के खाते में जाएगा, इस पर भी संशय ही है. किसान आंदोलन के बाद से इस वोट में राष्ट्रीय लोकदल ने सेंधमारी की है. इसका सीधा फायदा जयंत चौधरी और सपा गठबंधन को मिल सकता है. 2014 के बाद बीजेपी गैर यादव वोटर को एकजुट रखने में सफल रही है, मगर 2022 में यह तिलिस्म टूट सकता है.
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