साहिबगंज : 18वीं सदी के मध्य में अंग्रजों का अत्याचार लगातार बढ़ रहा था लेकिन अंग्रेजी हुकूमत झारखंड के आदिवासियों से त्रस्त थी. तोप और बंदूकों से लैस होने के बावजूद अंग्रेज आदिवासियों से थर-थर कांपते थे. इसकी वजह थी कि आदिवासी तीर-धनुष जैसे परंपरागत हथियार चलाने में माहिर थे. दूसरी ओर झारखंड की भौगोलिक संरचना भी देश के दूसरे हिस्सों से काफी अलग है, जिसे अंग्रेज तब तक समझ नहीं सके थे. गुरिल्ला वार में माहिर आदिवासियों के सामने अंग्रेज घुटने टेकने को मजबूर हो जाते थे.
कोई तीर-धनुष में निपुण था तो कोई भाला चलाने में माहिर
इतिहासकार कमल महावर बताते हैं कि आदिवासियों के पास तीर-धनुष, कटारी, भाला, बरछा, फरसा, लाठी समेत कई तरह के पारंपरिक हथियार होते थे. कोई आदिवासी तीर-धनुष में निपुण था तो किसी को भाला चलाने में महारत हासिल थी. तीर पर विष लगा होता था और उसे आग में पकाया जाता था. आदिवासी 300 मीटर से ज्यादा दूरी पर तीर से हमला करने में सक्षम थे. किसी को तीर लग जाए तो उसकी मौत निश्चित थी. दरअसल, आदिवासियों की सीधी लड़ाई साहूकारों से थी और साहूकार अंग्रेजों को करीब थे. इसके कारण आदिवासियों को अंग्रेजों से सीधी लड़ाई लड़नी पड़ी.
जड़ी-बूटी से हथियार को घातक बनाते थे आदिवासी
आदिवासी अपने हथियारों को घातक बनाने के लिए तीर पर एक खास तरह का लेप लगाते थे, जिससे दुश्मन का खात्मा तय था. इस लेप को बनाने की पूरी प्रक्रिया होती थी. आदिवासी जंगल से जड़ी-बूटी लाते थे और उसका लेप तैयार करते थे. तीर के नुकीले भाग को गरम किया जाता था और इसके बाद लेप लगाया जाता था. इससे हथियार और घातक हो जाता था. इस काम के लिए अलग से कारीगर होते थे. कुछ लेप इसलिए भी तैयार किए जाते थे जिससे दुश्मन तुरंत न मरे और तड़प-तड़पकर उसकी मौत हो. कुछ तीर में तीखे मिर्च को पीसकर उसका लेप लगाया जाता था जिसे लगते ही दुश्मन बेचैन हो उठे.
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जड़ी-बूटी का सेवन कर स्वस्थ रहते थे आदिवासी, घाव भी तुरंत भर जाता था
आदिवासी बताते हैं कि उनके पूर्वज युद्ध में कई बार घायल हो जाते थे लेकिन जड़ी-बूटी का सेवन कर जल्द ठीक भी हो जाते थे. आदिवासी अपने घाव पर नीम को पत्ते को पीसकर लगाते थे जिससे उनका घाव जल्दी भर जाता था. इतिहासकार कमल महावर ने बताया कि आदिवासी समाज कंदमूल, गिलोय, आंवला, पत्थरचट्टा सहित जड़ी-बूटी का सेवन कर स्वस्थ रहते थे. आदिवासियों में लड़ने की अद्भुत शक्ति और आत्मविश्वास था. इसके साथ ही हार नहीं मानने का प्रबल दृढ़ विश्वास था.
युद्ध से पहले करते थे शस्त्रों की पूजा
आदिवासियों के लिए तीर-कमान सिर्फ हथियार नहीं बल्कि आस्था का भी विषय है. उनका मानना है कि इससे उन्हें विशेष शक्ति मिलती है. आदिवासी मंडल मुर्मू का कहना है कि उनके पूर्वज युद्ध से पहले शस्त्रों की पूजा करते थे. उनकी इस बात को लेकर आस्था है कि शस्त्र पूजा से उनकी शक्ति और बढ़ जाती है. जंगलों में रहने वाले आदिवासी अपनी रक्षा के लिए शुरु से ही युद्ध की कलाओं में निपुण थे. देश की आजादी के लिए पहली शहादत देने वाले जबरा पहाड़िया से लेकर सिदो-कान्हो और नीलांबर-पीतांबर से लेकर बिरसा मुंडा तक सभी पारंपरिक हथियार चलाने में माहिर थे. यही वजह है कि झारखंड के आदिवासियों के पराक्रम के सामने अंग्रेज थर-थर कांपते थे.