नई दिल्ली: संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य के निदेशक सिद्धांतों के अनुसार नागरिक संहिता प्रदान की जा सकती है. जो कहता है कि राज्य, भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा. जब भारत को आजादी मिली तो इसे लागू नहीं किया जा सका क्योंकि लोगों के दिमाग में विभाजन की त्रासदी था. इसलिए परिस्थितियों के अनुकूल होने पर इसे लागू करना राज्यों के विवेक पर छोड़ दिया गया. हालांकि स्वतंत्रता के बाद भी किसी दल ने इसे लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई.
शाहबानो मामला: 1985 में मो. अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम का मामला सामने आया. एक मुस्लिम महिला तमाम दुर्दशा को उजागर करते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंची. जिसका उसके पति ने भरण-पोषण से इनकार कर दिया था. शाहबानो मुस्लिम महिला थीं, जिन्होंने 1932 में एमए खान से शादी की थी. शादी के 40 साल बाद खान ने उन्हें 1978 में तलाक दे दिया. साथ ही किसी तरह का गुजारा भत्ता देने से भी इनकार कर दिया.
कोर्ट में शाहबानो मामला: इससे क्षुब्ध शाह बानो ने इंदौर मेट्रोपॉलिटन कोर्ट में सीआरपीसी की धारा 125 के तहत आवेदन दिया. धारा 125 उस पत्नी की देखभाल करने के लिए पर्याप्त साधन वाले व्यक्ति को बाध्य करती है, जो अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती. इस धारा में पत्नी में तलाकशुदा महिला भी शामिल है. यह धारा सार्वभौमिक रूप से लागू है. यानी यह धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती है और हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों के लिए भी समान है.
हाईकोर्ट में शाहबानो मामला: शाहबानो ने इंदौर की अदालत को बताया कि वह गरीब, बूढ़ी और अनपढ़ है. इसलिए 500 रुपये प्रति माह के गुजारे भत्ते की मांग रखी. अदालत शाहबानो की बात से सहमत हुई. लेकिन एमए खान को 500 रुपये की जगह केवल 25 रुपये प्रतिमाह देने का निर्देश दिया. फिर खान ने अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय का रुख किया. हाईकोर्ट ने उनकी याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया और भत्ता 25 रुपये से बढ़ाकर 179 रुपये प्रति माह कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट में शाहबानो मामला: फिर यह मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा. दो न्यायाधीशों की पीठ ने इसे सुना लेकिन फिर भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को संदर्भित किया गया. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड और जमीयत उलमा ए हिंद भी मामले में पक्षकार बने. शीर्ष अदालत में मुस्लिम पक्षों ने तर्क दिया कि मुस्लिम विवाह अधिनियम एक व्यक्ति को रखरखाव का भुगतान करने से रोकता है. सीआरपीसी की धारा 125 उनके व्यक्तिगत कानून के खिलाफ है.
उन्होंने तर्क दिया कि मुस्लिम कानून में मेहर दिया गया है. मेहर वह धन या संपत्ति है, जिसे पत्नी विवाह के प्रतिफल में पति से प्राप्त करने की हकदार होती है. यह पत्नी के सम्मान के प्रतीक के रूप में एक दायित्व है और उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दिया जाता है. इस राशि का भुगतान आंशिक रूप से विवाह के बाद किया जा सकता है. लेकिन अदालत ने इससे असहमति जताई और कहा कि धारा 125 मुस्लिम विवाह अधिनियम के खिलाफ नहीं है. तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी भरण-पोषण के लिए आवेदन करने की हकदार है.
सरकार ने रद्द किया फैसला: अदालत ने पाकिस्तान सरकार द्वारा विवाह और पारिवारिक कानूनों पर नियुक्त एक आयोग का भी हवाला दिया था. आयोग ने कहा था कि बड़ी संख्या में अधेड़ उम्र की महिलाओं को बिना कारण तलाक दिया जा रहा है. उन्हें व बच्चों के भरण-पोषण के किसी भी साधन के बिना सड़कों पर नहीं छोड़ा जा सकता है. इस मामले के दौरान अनुच्छेद 44 के गैर-कार्यान्वयन का प्रतिकूल प्रभाव देखा गया. अदालत ने अपने फैसले में कहा कि गहरे अफसोस की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 एक मृत पत्र बनकर रह गया है. एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले लोगों को राष्ट्रीय एकता के बदलेगी.
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कोर्ट ने कहा था कि पर्सनल लॉ के बीच की खाई को पाटने का उसका प्रयास एक समान नागरिक संहिता का स्थान नहीं ले सकता है. इस फैसले के प्रतिशोध में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के लिए तलाक पर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम 1986 पारित किया. इस अधिनियम ने शीर्ष अदालत के फैसले को रद्द कर दिया और सुविधा कि किसी आदमी को जीवनभर भरण-पोषण नहीं देना है, बल्कि केवल इद्दत की अवधि के लिए देना है. इस अधिनियम का देशभर में बहुत विरोध हुआ. यूसीसी पर लोगों के विचार भिन्न-भिन्न हैं. मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग इसे हस्तक्षेप मानता है. कुछ राजनीतिक नेताओं का तर्क है कि यह भारत के बहुलवाद को नष्ट कर देगा. कानून आयोग ने भी अपनी आशंका व्यक्त की थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट यूसीसी के पक्ष में है.