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Opposition Meeting in Patna : 'समय की जरूरत विपक्षी दलों की महा बैठक, पर खींचतान अब भी जारी'

लंबे प्रयासों के बाद भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ पटना में विपक्षी दलों की बैठक शुक्रवार को हो रही है. सभी दलों के प्रतिनिधियों की भीड़ जुटने लगी है. इस बैठक में बृहत्तर गठबंधन (ग्रेटर अलायंस) के विषय पर सैद्धान्ति सहमति बनाने का प्रयास किया जाएगा. पर आपसी खींचतान अब भी जारी है. बैठक में इस मुद्दे पर कितनी कामयाबी मिल पाएगी, देखने वाली बात होगी. ममता तो अब भी कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन के खिलाफ हैं और आप नहीं चाहती है कि कांग्रेस उसका विरोध दिल्ली और पंजाब में करे.

opposition parties meeting
पटना में विपक्षी दलों की बैठक
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Published : Jun 22, 2023, 4:51 PM IST

हैदराबाद : एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजती है. किसी भी देश में अगर मजबूत और विश्वसनीय विपक्ष न हो, तो उसे प्रजातांत्रिक देश नहीं कहा जा सकता है. यह उक्ति और किसी की नहीं, बल्कि संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर की है. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा ताकि कोई भी सरकार निरंकुश न हो सके. पिछले दो आम चुनाव में जिस तरह के परिणाम आए हैं, और जिस तरह से भाजपा का उत्थान हुआ है, उनके खिलाफ विपक्ष ठीक से अपनी आवाज भी नहीं उठा पा रहा है.

इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह चर्चा चल पड़ी है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को हराना है, तो सभी विपक्षी दलों को एक साथ खड़ा होना पड़ेगा. और इस ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विशेष पहल की है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने इस कड़ी में देश के कई नेताओं से मुलाकात की है. वह अलग-अलग राज्यों में गए हैं. उनके साथ व्यापक गठबंधन के विषय पर सैद्धान्ति सहमति बनाने का प्रयास कर रहे हैं. शुक्रवार को बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की एक बड़ी बैठक हो रही है.

अगर विपक्षी दल किसी भी एक प्लेटफॉर्म पर आते हैं, तो यह एक प्रशंसनीय कदम कहा जाएगा, लेकिन शंकाएं भी कम नहीं हैं. कुछ राज्यों में तो विभिन्न विपक्षी दलों के बीच सीधी प्रतियोगिता है. तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कर दिया है कि अगर कांग्रेस और सीपीएम हाथ मिलाते हैं, तो वह उनका साथ नहीं देंगी. इसी तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब और दिल्ली को लेकर बयान दिए हैं. उनकी पार्टी का कहना है कि कांग्रेस को यहां से दूर रहना चाहिए.

उनकी पार्टी आप ने राजस्थान में कांग्रेस के विरुद्ध अपने प्रचार अभियान की शुरुआत भी कर दी है. गुरुवार को आप की बिहार ईकाई ने बिहार के सीएम के खिलाफ पोस्टर वार छेड़ दिया है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी चाहते हैं कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी दलों को मजबूत करने की जरूरत है. लेकिन क्या वे कांग्रेस को स्पेस देंगे, कहना मुश्किल है ? ऐसे में जहां पर सभी पार्टियों के हित एक दूसरे से टकरा रहे हैं, कांग्रेस और वाम को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर क्या नीतीश अपने लक्ष्य में कामयाब हो पाएंगे. क्या पटना की बैठक में इन महत्वाकांक्षाओं पर विराम लग सकेगा ?

2014 में भाजपा को 292 सीटें मिली थीं, जबकि वोट 31.34 प्रतिशत था. 2019 में भाजपा को 303 सीटें आईं, जबकि मत प्रतिशत 37.7 प्रतिशत हो गया. इस मत प्रतिशतों में ही विपक्षी दलों को एक नई राह दिखी. विपक्षी दल ये मानने लगे कि अगर गैर भाजपा दलों को मिले मत प्रतिशतों को समेट लिया जाए, तो भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है. कर्नाटक में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत ने इस सोच को और अधिक उत्साहजनक बना दिया है. लेकिन कांग्रेस यह भी चाहती है कि विपक्षी दलों के केंद्र में वही रहे.

अभी कांग्रेस के पास कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश है, जबकि बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में वह सत्ता साझा कर रही है. 2018 में हुए मध्य प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस को 40 फीसदी से थोड़ा अधिक मत मिला था. गुजरात में 27 फीसदी वोट मिले थे. कुछ राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति बहुत ही अच्छी है. ये अलग बात है कि उनकी गलत रणनीति की वजह से पार्टी को नुकसान भी पहुंचा है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को करीब 19.5 फीसदी के आसपास मत मिले. इसलिए इतना तो कहा जा सकता है कि विपक्षी दलों की जो भी इच्छाएं हों, उसे कांग्रेस पार्टी से तालमेल बिठाना होगा. उसे खारिज नहीं कर सकते हैं.

देश के लिए बहुत जरूरी है कि योग्य विपक्ष सरकार की खामियों को उजागर करे. यह देश के हित में है कि समान विचारधाराओं की पार्टियां विपक्षी गठबंधन को ताकत प्रदान करें. ऐसा होने के लिए कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को साझे परिप्रेक्ष्य में काम करना होगा, आप इसे गिव एंड टेक फॉर्मूला भी कह सकते हैं. लेकिन विपक्षी दलों को यह भी बताना चाहिए कि अगर वे सत्ता में आए तो उनका एजेंडा क्या होगा ? वे किस तरह से आम लोगों की जिंदगियों में बदलाव लाएंगे. उनका एजेंडा क्या होगा ? उनकी विचारधारा और कार्यदिशा क्या होगी, यह साफ होनी चाहिए. वे भारतीय संघ और प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थानों को मजबूत करने के लिए क्या करेंगे या फिर उसे कैसे पुनर्स्थापित करेंगे ?

उन्हें एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर विचार करना होगा. उस पर गहन मंथन की जरूरत है. सिर्फ यह कहना है कि 'मैं भविष्य का प्रधानमंत्री हूं', इसे केंद्र में रखकर आगे बढ़ेंगे तो आपको कुछ हासिल नहीं होगा. सभी दलों की सहमति से नेता का चयन होना चाहिए. आम चुनाव की तारीखों का ऐलान होने से पहले ही सभी विपक्षी दलों को संसद के प्लेटफॉर्म पर एक सुर में अपनी प्रतिबद्धता और संकल्प को दोहराना होगा. अगर ऐसा हुआ, तभी वे जनता का विश्वास जीत पाएंगे और वे जवाबदेही के साथ आगे बढ़ेंगे.

ये भी पढे़ं : Opposition Meeting: विपक्षी एकता की बैठक में ममता-केजरीवाल और मान

(ईनाडु संपादकीय)

हैदराबाद : एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजती है. किसी भी देश में अगर मजबूत और विश्वसनीय विपक्ष न हो, तो उसे प्रजातांत्रिक देश नहीं कहा जा सकता है. यह उक्ति और किसी की नहीं, बल्कि संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर की है. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा ताकि कोई भी सरकार निरंकुश न हो सके. पिछले दो आम चुनाव में जिस तरह के परिणाम आए हैं, और जिस तरह से भाजपा का उत्थान हुआ है, उनके खिलाफ विपक्ष ठीक से अपनी आवाज भी नहीं उठा पा रहा है.

इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह चर्चा चल पड़ी है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को हराना है, तो सभी विपक्षी दलों को एक साथ खड़ा होना पड़ेगा. और इस ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विशेष पहल की है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने इस कड़ी में देश के कई नेताओं से मुलाकात की है. वह अलग-अलग राज्यों में गए हैं. उनके साथ व्यापक गठबंधन के विषय पर सैद्धान्ति सहमति बनाने का प्रयास कर रहे हैं. शुक्रवार को बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की एक बड़ी बैठक हो रही है.

अगर विपक्षी दल किसी भी एक प्लेटफॉर्म पर आते हैं, तो यह एक प्रशंसनीय कदम कहा जाएगा, लेकिन शंकाएं भी कम नहीं हैं. कुछ राज्यों में तो विभिन्न विपक्षी दलों के बीच सीधी प्रतियोगिता है. तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कर दिया है कि अगर कांग्रेस और सीपीएम हाथ मिलाते हैं, तो वह उनका साथ नहीं देंगी. इसी तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब और दिल्ली को लेकर बयान दिए हैं. उनकी पार्टी का कहना है कि कांग्रेस को यहां से दूर रहना चाहिए.

उनकी पार्टी आप ने राजस्थान में कांग्रेस के विरुद्ध अपने प्रचार अभियान की शुरुआत भी कर दी है. गुरुवार को आप की बिहार ईकाई ने बिहार के सीएम के खिलाफ पोस्टर वार छेड़ दिया है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी चाहते हैं कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी दलों को मजबूत करने की जरूरत है. लेकिन क्या वे कांग्रेस को स्पेस देंगे, कहना मुश्किल है ? ऐसे में जहां पर सभी पार्टियों के हित एक दूसरे से टकरा रहे हैं, कांग्रेस और वाम को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर क्या नीतीश अपने लक्ष्य में कामयाब हो पाएंगे. क्या पटना की बैठक में इन महत्वाकांक्षाओं पर विराम लग सकेगा ?

2014 में भाजपा को 292 सीटें मिली थीं, जबकि वोट 31.34 प्रतिशत था. 2019 में भाजपा को 303 सीटें आईं, जबकि मत प्रतिशत 37.7 प्रतिशत हो गया. इस मत प्रतिशतों में ही विपक्षी दलों को एक नई राह दिखी. विपक्षी दल ये मानने लगे कि अगर गैर भाजपा दलों को मिले मत प्रतिशतों को समेट लिया जाए, तो भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है. कर्नाटक में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत ने इस सोच को और अधिक उत्साहजनक बना दिया है. लेकिन कांग्रेस यह भी चाहती है कि विपक्षी दलों के केंद्र में वही रहे.

अभी कांग्रेस के पास कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश है, जबकि बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में वह सत्ता साझा कर रही है. 2018 में हुए मध्य प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस को 40 फीसदी से थोड़ा अधिक मत मिला था. गुजरात में 27 फीसदी वोट मिले थे. कुछ राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति बहुत ही अच्छी है. ये अलग बात है कि उनकी गलत रणनीति की वजह से पार्टी को नुकसान भी पहुंचा है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को करीब 19.5 फीसदी के आसपास मत मिले. इसलिए इतना तो कहा जा सकता है कि विपक्षी दलों की जो भी इच्छाएं हों, उसे कांग्रेस पार्टी से तालमेल बिठाना होगा. उसे खारिज नहीं कर सकते हैं.

देश के लिए बहुत जरूरी है कि योग्य विपक्ष सरकार की खामियों को उजागर करे. यह देश के हित में है कि समान विचारधाराओं की पार्टियां विपक्षी गठबंधन को ताकत प्रदान करें. ऐसा होने के लिए कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को साझे परिप्रेक्ष्य में काम करना होगा, आप इसे गिव एंड टेक फॉर्मूला भी कह सकते हैं. लेकिन विपक्षी दलों को यह भी बताना चाहिए कि अगर वे सत्ता में आए तो उनका एजेंडा क्या होगा ? वे किस तरह से आम लोगों की जिंदगियों में बदलाव लाएंगे. उनका एजेंडा क्या होगा ? उनकी विचारधारा और कार्यदिशा क्या होगी, यह साफ होनी चाहिए. वे भारतीय संघ और प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं और संस्थानों को मजबूत करने के लिए क्या करेंगे या फिर उसे कैसे पुनर्स्थापित करेंगे ?

उन्हें एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर विचार करना होगा. उस पर गहन मंथन की जरूरत है. सिर्फ यह कहना है कि 'मैं भविष्य का प्रधानमंत्री हूं', इसे केंद्र में रखकर आगे बढ़ेंगे तो आपको कुछ हासिल नहीं होगा. सभी दलों की सहमति से नेता का चयन होना चाहिए. आम चुनाव की तारीखों का ऐलान होने से पहले ही सभी विपक्षी दलों को संसद के प्लेटफॉर्म पर एक सुर में अपनी प्रतिबद्धता और संकल्प को दोहराना होगा. अगर ऐसा हुआ, तभी वे जनता का विश्वास जीत पाएंगे और वे जवाबदेही के साथ आगे बढ़ेंगे.

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(ईनाडु संपादकीय)

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