हैदराबाद: अगर बदलाव स्थिर है, तो पुराना संसद भवन देश के विभाजन और बाद में सांप्रदायिक हिंसा के घावों को दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने तक के परिवर्तन का मूक दर्शक रहा है. सेंट्रल हॉल के अंदर 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को शुरू हुई 'ट्रिस्ट ऑफ डेस्टिनी' की औपचारिक विदाई 28 मई, 2023 को होगी. जैसे ही ऐतिहासिक संसद भवन पर सूर्य अस्त होता है, देश भर में पुरानी यादों की लहर दौड़ जाती है, क्योंकि यह भारतीय इतिहास के पाठ्यक्रम को आकार देने वाली कई ऐतिहासिक घटनाओं का मूक पर्यवेक्षक रहा है. लगभग एक सदी तक यह राजसी इमारत लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में खड़ा रहा, प्रगति के पथ पर एक राष्ट्र के संघर्षों और विजयों की गवाह रहा.
काउंसिल हाउस को मिला संसद भवन का नाम: भारत में वायसराय देश में ब्रिटिश राज का सर्वोच्च प्रतिनिधि था. लॉर्ड इरविन रायसीना हिल के ऊपर बने वायसराय हाउस पर कब्जा करने वाले पहले व्यक्ति थे. 1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद, इसे राष्ट्रपति भवन के नाम से जाना जाने लगा. उसी समय काउंसिल हाउस को संसद भवन का नाम दिया गया. सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास का हिस्सा, नया संसद भवन अपने उद्घाटन के बाद, 1927 में बने वर्तमान संसद भवन से शुरू हुए एक इतिहास में कई और नये पृष्ठ जोड़ देगा. 24 जनवरी, 1927 को तीसरे विधान सभा के पहले सत्र को संबोधित करते हुए वायसराय लॉर्ड इरविन ने कहा था कि आज, आप दिल्ली में अपने नये और स्थायी घर में पहली बार मिल रहे हैं. इस कक्ष में, सभा को उसकी गरिमा और महत्व के योग्य एक सेटिंग प्रदान की गई है, और मैं इसके डिजाइनर की इससे बड़ी तारीफ नहीं कर सकता कि यह भवन उन मनोभावों को प्रतिबिंबित करता है जिससे भारत के सार्वजनिक मामलों को यहां से संचालित किया जाएगा. काउंसिल हाउस, वर्तमान में ओल्ड पार्लियामेंट हाउस में 98 फीट के व्यास वाला एक केंद्रीय हॉल है. यह हॉल बहुत महत्व रखता है क्योंकि यह वह स्थान था जहां भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया गया था. भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ और नए संविधान के तहत पहला आम चुनाव वर्ष 1951-52 के दौरान हुआ. परिणामस्वरूप, पहली निर्वाचित संसद अप्रैल 1952 में अस्तित्व में आई.
भारत की लोकतांत्रिक विरासत के बारे में लोगों को शिक्षित करने के प्रयास में, संसद संग्रहालय की स्थापना 2006 में की गई थी. यह संग्रहालय आकर्षक सुविधाओं की एक श्रृंखला प्रदान करता है, जिसमें ध्वनि और प्रकाश वीडियो, इंटरैक्टिव बड़े-स्क्रीन कंप्यूटर डिस्प्ले और आभासी वास्तविकता अनुभव शामिल हैं. इसका उद्देश्य आगंतुकों को भारत की समृद्ध लोकतांत्रिक विरासत के बारे में बताना है.
इस ऐतिहासिक भवन के गलियारे दूरदर्शी नेताओं के पदचिन्हों और भावुक बहसों से गूंजते हैं जिन्होंने भारत की नियति को आकार दिया है. यहीं पर अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधान मंत्री के रूप में अपने संक्षिप्त कार्यकाल में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की शुरुआत की, जिसने देश के कल्याण पर एक अमिट छाप छोड़ी. यह इन दीवारों के भीतर भी था कि भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार को गणना के क्षण का सामना करना पड़ा, क्योंकि AIADMK द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण एक वोट से उसका पतन हो गया. इस तरह की घटनाओं ने भारत के राजनीतिक इतिहास के ताने-बाने को बुना है, एक ऐसे टेपेस्ट्री का निर्माण किया है जो राष्ट्र की विविध और गतिशील प्रकृति को दर्शाता है.
गांधी की मत्यु से लेकर लाल बहादुर की अपील तक: स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक पूर्वाह्न 11:00 बजे हुई. उत्तर प्रदेश से एक सदस्य सुचेता कृपलानी ने विशेष सत्र के उद्घाटन के अवसर पर वंदे मातरम का पहला छंद गाया. अध्यक्ष जीवी मावलंकर ने 2 फरवरी, 1948 को लोकसभा की एक बैठक में गांधी की मृत्यु की घोषणा की. मावलंकर ने कहा था कि हम आज दोहरी आपदा के साये में मिल रहे हैं, जब हमारे समय की सबसे बड़ी शख्सियत का दुखद निधन हो गया जो हमें गुलामी से आजादी की ओर ले गए तथा हमारे देश में राजनीतिक हिंसा के पंथ की फिर से उपस्थिति देखने को मिली है. नेहरू ने कहा था कि कीर्ति चली गई और हमारे जीवन में गर्माहट और रोशनी लाने वाला सूरज अस्त हो गया है तथा हम ठंड और अंधेरे में कांप रहे हैं. इसी संसद भवन से प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश से हर हफ्ते एक समय का खाना छोड़ने की अपील की क्योंकि भारत खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था और 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध लड़ा था.
सदन को परमाणु परिक्षण पर अन्य देशों की प्रतिक्रिया से कराया अवगत: वर्ष 1974 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 22 जुलाई को संसद में एक विस्तृत बयान दिया, जिसमें सदन को पोखरण में ‘‘शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण’’ और अन्य देशों की प्रतिक्रिया से अवगत कराया गया. लगभग 24 साल बाद 1998 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी ने वैज्ञानिकों द्वारा उस वर्ष 11 मई और 13 मई को पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद भारत को परमाणु हथियार संपन्न देश घोषित किया. उन्होंने दुनिया को आश्वस्त करने की कोशिश करते हुए पहले इस्तेमाल नहीं करने की नीति की भी घोषणा की, जो परीक्षणों के बारे में अनजान थी. वर्ष 2008 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर मतभेद के बाद वामपंथी दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के मद्देनजर विश्वास मत के दौरान अपनी गठबंधन सरकार का सशक्त तरीके से बचाव किया.
संसद पर हमला: यदि आपातकाल निरंकुशता और राष्ट्र की आवाज के दमन का प्रतीक था, तो दिसंबर 2001 में, देश ने आतंकवाद की क्रूर पकड़ का अनुभव किया जब लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद के सदस्यों ने परिसर में घुसकर गोलियां बरसाईं. उन्होंने नकली गृह मंत्रालय के स्टिकर से सजे एक सफेद राजदूत वाहन का इस्तेमाल किया. एके -47 राइफल, ग्रेनेड, ग्रेनेड लॉन्चर और हैंडगन से लैस हमलावर सुरक्षा की कई परतों को भेदने में कामयाब रहे. गनीमत यह रही कि सभी सांसद सुरक्षित बाहर निकलने में सफल रहे. हालांकि, इस हमले में नौ लोगों की दुखद मौत हुई और 18 लोग घायल हो गए, जिनमें छह दिल्ली पुलिस अधिकारी और दो संसद सुरक्षा अधिकारी शामिल थे.
औपनिवेशिक और भारतीय वास्तुकला के सम्मिश्रण वाले अपने प्रतिष्ठित सर्कुलर डिजाइन के साथ मौजूदा संसद भवन ने खुद को राष्ट्र की सामूहिक स्मृति में उकेरा है. यह भारतीय लोगों के लचीलेपन और भावना के लिए एक वसीयतनामा के रूप में खड़ा है, जिन्होंने इसके पवित्र कक्षों के भीतर अपनी स्वतंत्रता के लिए अथक संघर्ष किया. जवाहरलाल नेहरू के "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण के प्रेरक शब्दों से लेकर 1962 के चीन-भारतीय संघर्ष के सर्वसम्मत संकल्प तक, दीवारों ने प्रगति के लिए तड़प रहे एक युवा राष्ट्र की भावनाओं और आकांक्षाओं को आत्मसात कर लिया है.
यदि जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र के साथ अपने प्रयास की शुरुआत इसी इमारत से की थी, तो राष्ट्र के इतिहास में कई बार अलग-अलग मापदंडों पर और अलग-अलग अवसरों पर उस मुलाकात को तय किया गया था. इसी इमारत से ही इंदिरा गांधी ने 1972 में बांग्लादेश के गठन की घोषणा की थी. यदि इंदिरा गांधी के साहस ने भारत को उसके औपनिवेशिक नशे से मुक्त किया, तो पी वी नरसिम्हा राव की 1991 में उसी इमारत से खुले बाजार की अर्थव्यवस्था की घोषणा ने भारत को वैश्विक आर्थिक खिलाड़ी बनने के लिए प्राथमिक बढ़ावा दिया. लगभग 16 साल बाद 2017 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसद के ऐतिहासिक सेंट्रल हॉल से भारत के सबसे बड़े कर सुधार को लॉन्च करने के लिए शुक्रवार आधी रात को एक बटन दबाया.
अपने भविष्य के उद्देश्य के बावजूद, पुराना संसद भवन हमेशा यादों के संरक्षक के रूप में खड़ा रहेगा, एक राष्ट्र के विकास का मूक गवाह. इसने भारत को एक उपनिवेश से एक स्वतंत्र लोकतंत्र, एक संघर्षशील राष्ट्र से एक वैश्विक महाशक्ति में बदलते देखा है. इसकी दीवारों ने अनगिनत व्यक्तियों के जुनून, उत्साह और लचीलेपन को अवशोषित किया है जिन्होंने इस महान भूमि की नियति को आकार देने का प्रयास किया है.
जैसे ही हम पुराने को अलविदा कहते हैं, हम आशा और प्रत्याशा के साथ नए को गले लगाते हैं. नए संसद भवन का उद्घाटन आधुनिकता और प्रगति का वादा करते हुए भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में एक नए अध्याय की शुरुआत करता है. फिर भी, हमें पुराने संसद भवन की चारदीवारी के भीतर सीखे गए पाठों को नहीं भूलना चाहिए. आइए हम इसकी विरासत का सम्मान करें, इसकी यादों को संजोएं और भारतीय इतिहास के पटल पर इसकी भूमिका को संजोएं. यह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहे, उन्हें उन बलिदानों और संघर्षों की याद दिलाता रहे, जिन्होंने नए के लिए मार्ग प्रशस्त किया है.
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