नई दिल्ली : किसान आंदोलन के 80 दिन से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर धरना प्रदर्शन दे रहे किसान संगठनों और सरकार के बीच गतिरोध बरकरार है. दिल्ली का सिंघु बॉर्डर किसान आंदोलन का मुख्य मोर्चा रहा है और आंदोलन में शामिल जत्थेबंदियों के संयुक्त किसान मोर्चा का मुख्यालय भी यहीं स्थित है, लेकिन यहां धरने पर बैठे किसानों की संख्या में लगातार गिरावट देखी जा रही है.
ईटीवी भारत ने आज दिल्ली के सिंघु बॉर्डर स्थित धरना स्थल का जायजा लिया, जहां संयुक्त किसान मोर्चा के अलावा किसान मजदूर संघर्ष कमेटी का मंच भी स्थित है. यहां पहुंचने पर पहले और अब की तस्वीरों में साफ-साफ देखा जा सकता है. पहले जहां मंच के सामने किसानों की भारी भीड़ दिखती थी, वहीं अब यह भीड़ बहुत कम हो गई है. ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच लगे टेंट में भी अब धीरे-धीरे सन्नाटा पसर रहा है, क्योंकि अब इन में रहने वालों की संख्या में भारी गिरावट साफ देखी जा सकती है.
पहले जिन लंगरों पर भोजन करने के लिए प्रदर्शनकारी किसानों के साथ-साथ स्थानीय लोगों की भीड़ उमड़ती थी, आज वहां महज चंद लोग ही नजर आते हैं. हालांकि, लंगर की सेवा में लगे हुए लोग आज भी पूरे उत्साह में लंगर बनाते देखे जा सकते हैं. आम भोजन के साथ-साथ देसी घी में बने लड्डू भी बनाए जा रहे हैं. वहीं इसी दौरान सिंघु बॉर्डर पर किसानों को मिल रहे पिज्जा का स्वाद अब भी बरकरार है, लेकिन अब पहले के मुकाबले खाने वालों की कमी साफ देखी जा सकती है.
ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच से आने-जाने का रास्ता और पहले से ज्यादा चौड़ा हो गया है. वहीं, सड़क पर भी भीड़ कम दिखती है. साफ-सफाई में लगे वॉलिंटियर्स अपने काम को पूरी शिद्दत से अंजाम देते देखे गए.
किसान नेता मानते हैं कि अलग-अलग राज्यों में आयोजित की जा रही किसान पंचायतों को सफल बनाने के लिए भी किसान पहुंच रहे हैं. धरना स्थल पर भारी या कम भीड़ का होना आंदोलन के सफलता या असफलता का पैमाना नहीं हो सकता.
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जन किसान नेता के पंजाब प्रमुख और संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गुरबख्श सिंह बरवाला का कहना है कि संख्या में कोई खास कमी नहीं आई है. 26 जनवरी के कार्यक्रम के लिए आए हुए किसान ही यहां से वापस गए हैं, बाकि यदि कुछ किसानों का समूह यहां से जाता है, तो उनकी जगह दूसरे समूह आते भी हैं. सिंघु बॉर्डर पर किसानों के लिए लगाई गई अन्य सेवाओं का भी कमोबेश यही हाल है.
कपड़े धोने के लिए लगाई गई वॉशिंग मशीनों की संख्या बढ़ी, लेकिन कपड़े धुलवाने वालों की संख्या कम हो गई. पीने के पानी के लिए बड़े आरो प्लांट लगा दिए गए, लेकिन इस पर इक्का-दुक्का लोग ही देखे जा रहे हैं. वहीं, सांझा सत्थ ने किसानों के लिए लाइब्रेरी और आस-पास के बच्चों के लिए स्कूल की शुरुआत की थी, लेकिन आज यहां सन्नाटा पसरा दिखा और बस कुछ वॉलिंटियर्स ही बैठे दिखे.
रास्तों पर लगातार ट्रैक्टरों से चक्कर लगाते युवकों में आंदोलन के प्रति जोश भरपूर है और अब भी वह पहले जैसे ही ट्रैक्टर पर राउंड लगाए देखे जा सकते हैं, लेकिन जिन ट्रैक्टरों का ताता थमता नहीं था और एक ट्रैक्टर पर दर्जनों लोग चढ़े दिखते थे, उन में आई कमी तस्वीरों में साफ देखी जा सकती है.
दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से किसान आंदोलन की ये तमाम तस्वीरें कुछ और ही बयां कर रही हैं. शायद यह कि जब कोई आंदोलन समय से ज्यादा चल जाता है और गतिरोध जरूरत से ज्यादा बढ़ जाता है, तो आंदोलनकारियों की संख्या और उत्साह में कमी जरूर आती है. आज कहीं न कहीं यही नीरसता इस आंदोलन में देखी जा रही है. हालांकि, किसान नेता आज भी तीन कृषि कानूनों को रद्द कर एमएसपी गारंटी के कानून बनाने के अपनी पुरानी मांग पर बदस्तूर डटे हुए हैं. दूसरी तरफ सरकार है, जो इन मांगों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, ऐसे में इस आंदोलन का भविष्य क्या होगा बरहाल यह बताना मुश्किल है.