नई दिल्ली : सरकार द्वारा संचालित विशेष दत्तक ग्रहण एजेंसियों में 800 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार ये मौतें 2018 से अब तक की हैं. अधिकारियों ने बताया कि इनमें से ज्यादातर दो साल से कम उम्र के थे. उन्होंने विस्तार से बताया कि मौत का मुख्य कारण असुरक्षित तरीके से बच्चों को छोड़ा जाना था, जिनमें कई बच्चों को कुत्तों ने काट खाया था और कुछ इतनी बुरी हालत में थे कि उन्हें बचाया नहीं जा सका.
सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मांगी गई जानकारी के जवाब में केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (कारा) से मिले आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र व राज्य सरकार द्वारा संचालित एजेंसियों में 2021-22 के दौरान 118 बच्चों की मौत हुई, जिनमें से 104 की उम्र दो साल से कम थी. आंकड़ों के मुताबिक, 2020-21 में यह आंकड़ा 169 था जबकि 2019-20 में यह संख्या 281 थी. इसके अनुसार, 2018-19 में सरकारी दत्तक ग्रहण एजेंसियों में 251 बच्चों की मौत हुई थी.
कुल 819 बच्चों में से 481 लड़कियां और 129 विशेष बच्चे थे, जिनमें किसी न किसी प्रकार की दिव्यांगता थी और उन्हें बहुत ज्यादा देखभाल और अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता थी. दो साल से कम उम्र के बच्चों के लिये आंकड़ा उपलब्ध नहीं था. अधिकांश विशिष्ट दत्तक ग्रहण एजेंसियां छह साल से कम उम्र के बच्चों के लिए हैं. वे हालांकि कुछ बड़े बच्चों को भी शरण देती हैं. छह वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को बाल देखभाल संस्थानों में रखा जाता है. इस साल 28 जून तक लगभग 7,000 बच्चे देश भर में विशेष दत्तक ग्रहण एजेंसियों में रह रहे हैं.
एक अधिकारी के मुताबिक, ज्यादातर मौतें दो साल से कम उम्र के बच्चों में हुईं. कुछ मामलों में, माता-पिता अपने बीमार, बड़े बच्चों को इन एजेंसियों को सौंप देते हैं क्योंकि वे उनकी देखभाल करने में सक्षम नहीं होते. कारा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन इन विशेष दत्तक ग्रहण एजेंसियों में लाए गए बच्चों में से कुछ बच्चे जीवित नहीं रहते और इसका मुख्य कारण असुरक्षित तरीके से बच्चों को छोड़ा जाना है."
उन्होंने कहा, "कई बार वे ऐसी कमजोर परिस्थितियों में पाए जाते हैं कि उनके बचने की कोई संभावना नहीं होती. कई बच्चों को कुत्तों द्वारा काटा गया होता है और जब तक हम उन्हें ढूंढते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है." बाल अधिकार कार्यकर्ता एनाक्षी गांगुली ने कहा कि संख्याओं से परे प्रत्येक मामले में ये देखने की जरूरत है कि ये मौतें कैसे और क्यों हुईं. उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि इस विषय पर सरकार की ओर से बहुत अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता है. यह देखभाल संगठनों पर अधिक पारदर्शी होने के लिए आवश्यक हो जाता है."
विशेषज्ञों ने कहा कि बच्चे को गोद लेने में आने वाली समस्याओं को कम करने और गोद लेने वाली एजेंसियों के काम करने के तरीके में अधिक जवाबदेही लाने से स्थिति बदल सकती है. हक- सेंटर फॉर चाइल्ड राइट्स की सह संस्थापक और निदेशक भारती अली ने कहा कि गोद देने वाली एजेंसियों के पास विशेष बजट होता हैं. अगर वे अब भी बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ हैं तो कुछ जांच की जानी चाहिए.
उन्होंने बताया कि पालना और ऐसी ही अन्य योजनाएं हैं, जिसके तहत लोगों को अपने बच्चों को सड़कों के बजाय एजेंसियों द्वारा रखे गए पालने में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. सड़क पर छोड़े गए बच्चों के मामलों में काफी जोखिम देखा गया है और कुत्तों द्वारा ऐसे बच्चों के काटने के मामले बेहद सामान्य हैं. हम पिछले 20 सालों से ऐसी खबरें सुन रहे हैं. ऐसे में सवाल है- हम योजनाएं होने के बावजूद स्थिति नहीं बदल पाए. अगर आप स्थिति नहीं बदल पाए हैं तो इसका आशय है कि आपने जागरूकता फैलाने के मुद्दे पर पर्याप्त काम नहीं किया.
(पीटीआई-भाषा)