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India-Canada Dispute: भारत और कनाडा के बीच रिश्तों को लेकर क्या सोचते हैं वहां रहने वाले भारतीय, पढ़ें रिपोर्ट... - जस्टिन ट्रूडो

कनाडा और भारत के रिश्तों में आई तल्खी के बाद अब जब जस्टिन ट्रूडो के तेवर ढीले होने लगे हैं, ये देखना भी ज़रूरी है कि कनाडा में अब क्या माहौल है. क्या कनाडा में सिखों और हिंदुओं के बीच दूरियां बढ़ गई हैं... कनाडा के मूल निवासी सिखों की खालिस्तान की मांग को कैसे लेते हैं..... और क्या कनाडा के स्थानीय निवासी जस्टिन त्रुदो के तेवरों का समर्थन करते हैं... ऐसे कई सवालों के जवाब लेने के लिए ईटीवी भारत के नेशनल ब्यूरो चीफ राकेश त्रिपाठी ने कनाडा में रहने वाले भारतीयों से बात की...

Khalistani supporters in Canada
कनाडा में खालिस्तानी समर्थक
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Oct 4, 2023, 5:16 PM IST

Updated : Oct 4, 2023, 6:49 PM IST

नई दिल्ली: पचपन बरस के कनाडाई बिज़नेसमैन हरमन गिल का अपना ड्राइविंग स्कूल है. 21 बरस की उम्र में किस्मत का दरवाज़ा खटखटाने कनाडा आए थे, आज अपनी मेहनत के चलते एक फलते-फूलते बिज़नेस के मालिक हैं. वे बताते हैं- 'देखिए अंदर हमारे समाज में तो ऐसा कुछ नहीं है. कुछ लोग बेशक सोशल मीडिया पर हिंदुओं को धमकियां दे रहे हैं, मैसेज वायरल कर रहे हैं, लेकिन असलियत में यहां भाईचारा पूरा है. मैं जहां बैडमिंटन खेलने जाता हूं, वहां एक-दो सरदार ही है, बाकी 10 या 12 हिंदू ही हैं. वहां कभी कोई ऐसी बात नहीं हुई.'

बात करते-करते गिल की आवाज़ में घर कर गई उदासी का एहसास साफ होता है. कहते हैं- 'जिस देश का नमक खाया है उसके साथ नमकहरामी तो नहीं करनी चाहिए न. 21 साल का था मैं, तब कनाडा आया था. अब 55 का हो रहा हूं. हिंदुस्तान से ज़्यादा उम्र मैंने यहां गुज़ार दी है. लेकिन आज भी वही जज़्बा अपने देश के लिए बरकरार है. कई बार मन यही होता है कि इंडिया ही सेटल हो जाउं.

खालिस्तान के बारे में गिल क्या सोचते हैं, इस सवाल के जवाब की शुरुआत वे बड़े मासूम से सवाल से करते हैं- 'क्या करेंगे खालिस्तान ले कर? मेरे पिता जी तो हमेशा भिंडरावाले के खिलाफ थे. गुरु साहिबान ने कहा होता तो ले लेते खालिस्तान. हरि सिंह नलवा कितने बड़े लड़ाके थे, महाराजा रणजीत सिंह का कितना बड़ा राज था, तब भी उन्होंने नहीं लिया खालिस्तान. तो ये सब तो बस मुट्ठी भर लोग प्रोपेगैंडा कर रहे हैं और कुछ तो इसमें आईएसआई का भी हाथ हैं.'

गिल की ईमानदार उदासी कनाडा में खालिस्तान की तस्वीर की असलियत बताती है. दरअसल खालिस्तान को लेकर चर्चा आमतौर पर कनाडा के उन इलाकों में ज़्यादा होती है, जहां सिखों की जनसंख्या खूब है, जैसे वैंकूवर और टोरंटो. वे मंदिरों के सामने प्रदर्शन करते हैं, मंदिरों की दीवारों पर खालिस्तान समर्थक और हिंदू विरोधी नारे लिख देते हैं और मंदिर जाने वाले हिंदुओं को चिढ़ाने की भी कोशिश करते हैं.

लेकिन वे कोई ऐसा काम नहीं करते जो कनाडाई कानून के हिसाब से अपराध की श्रेणी में आता हो. इसीलिए बच जाते हैं या छोटी मोटी सजा या ज़ुर्माना झेल कर बाहर आ जाते हैं. लेकिन ये हंगामा देखकर आम तौर पर शांतिप्रिय मूल कनाडाई निवासियों की क्या प्रतिक्रिया होती है, ये बताया आईटी इंजीनियर सुमंत ने- 'ओरिजिनल कनाडियन के मन में इनकी छवि बड़ी नकारात्मक है. सामाजिक कामों के लिए चंदा इकट्ठा कर इस छवि को सुधारने की बड़ी कोशिशें हुई हैं, लेकिन पिछले तीन सालों से यहां के मूल निवासी सिखों से नाराज़ हैं और इनके बीच काफी दूरी आ गयी है. यहां तक कि यहां का आम श्वेत कनैडियन ट्रूडो से भी बहुत नाराज़ है और ये तय है कि त्रुदो का वक्त अब खत्म हो गया है. उसकी इमेज इतनी खराब है कि उसे यहां सब कनाडा का पप्पू कहते हैं. खासतौर पर 2018 की उसकी भारत यात्रा से भी उसका इमेज यहां बहुत खराब हुआ.'

आमतौर पर कनाडा की पुलिस का रवैया बड़ा निष्पक्ष रहता है, लेकिन खालिस्तान समर्थक सिख उनसे डरते नहीं. सुमंत बताते हैं- 'कनाडा की पुलिस से ये नहीं डरते. राजनैतिक रसूख भी इनका इतना है कि इन्हें हाथ नहीं लगाता कोई. इनकी लीगल मशीनरी इतनी तैयार रहती है कि प्रदर्शनकारियों को कवर मिलता रहता है.

लेकिन सुमंत ने बातचीत में एक और खास एंगल की ओर इशारा किया- 'सिख आम तौर पर ब्लॉक वोटिंग करते हैं, यानी सभी लोग एक पार्टी को ही वोट डालते हैं, इससे इनकी राजनैतिक ताकत बढ़ जाती है और उसका असर सरकार के फैसलों पर भी होता है. हिंदुओं में इस तरह की वोटिंग नहीं होती, वे अलग-अलग पार्टियों को देते हैं। लेकिन अबकी चुनाव में शायद ये भी इसी तरह वोटिंग करें. इससे पहले बंगाली कहीं और करते थे, दक्षिण भारतीय कहीं और. फिजी वगैरह से आने वाले हिंदू भी अपने-अपने हिसाब से वोट डालते थे. श्रीलंकन हिंदू, गुजराती हिंदू सब अलग करते हैं...लेकिन माहौल में इस बार कुछ बदलाव आता दिख रहा है.

सुमंत एक और एंगल की ओर भी इशारा करते हैं. उनका कहना है कि जब से खालिस्तानियों पर भारत सरकार ने पंजाब में एक्शन लेना शुरू किया है, तब से खालिस्तानी समर्थक थोड़ा डरे हुए हैं- 'रेफरेंडम के बाद जब से पंजाब में एक्शन हुआ है तो ये लोग थोड़ा पीछे हट गए हैं. यहां तक कि खालिस्तानी पॉलिटिशयन भी बैकफुट पर आ गए हैं. अभी तो यहां अफवाह ये भी उड़ी कि जो रेफरेंडम वोटिंग हुई थी, उसकी वोटर लिस्ट कहीं भारत सरकार को न मिल जाए और वो पंजाब में उन लोगों के खिलाफ एक्शन न ले ले, जिन्होंने आ कर वोटिंग की है. अब ये डरे हैं. वो वोटर लिस्ट भी नष्ट करने में लगे हुए हैं.

सुमंत ये भी मानते हैं कि माहौल में जो शांति दिख रही है वो किसी खतरनाक सन्नाटे की तरह है- 'अभी तनाव थोड़ा सबड्यूड है, लेकिन दीपावली के वक्त बढेगा. जैसे अभी गणपति खत्म हुआ है, तो उस समय भी थोड़ा हो गया था. कुछ पता नहीं कि दीवाली का सेलिब्रेशन जब शुरू होगा, तो क्या होता है.

कनाडा में ही पच्चीस साल से रह रहे श्रीनिवास राव भी कुछ परतें खोलते हैं. कहते हैं कि माहौल ऊपर से सामान्य दिखता तो है लेकिन है नहीं- 'खुले में लोग खालिस्तान के मुद्दे पर बहस नहीं करते. हमसे मिलेंगे तो कहेंगे, नहीं कुछ लोग हैं, भटके हुए जो ये सब करते हैं. लेकिन अगर किसी सिख ने सपोर्ट नहीं किया तो गुरुद्वारे में मिलते ही लोग बोलेंगे कि भई तुमने तो सपोर्ट किया नहीं.

श्रीनिवास इसकी वजह भी उस घेटो संस्कृति को मानते हैं जिसकी वजह से कनाडा आते ही सिख उन इलाकों में घर लेते हैं जहां सिखों की बहुतायत है- 'वे यहां के किसी गोरे कनाडियन नागरिक से मेल-मुलाकात नहीं करते. कुल मिला कर गुरुद्वारे तक जो भी मिलना-जुलना होता है, उसके केंद्र में पंजाब ही होता है. हालांकि खालिस्तान के मुद्दे को भी इंडियन एम्बेसी के आसपास रहने वाले ही समझते होंगे. उससे ज्यादा नहीं. लेकिन यहां फियर साइकोसिस नहीं है. ऐसा नहीं है कि डर के मारे हम बाहर न जाएं.

जानकार मानते हैं कि जो तनाव कनाडा के भारतीय डायस्पोरा में फैला हुआ है, ज़रूरत है उससे निपटने की. चुनौती ये है कि राजनयिक लड़ाई में कनाडा सरकार से दो-दो हाथ करते वक्त डायस्पोरा में जमी बर्फ पिघलाने का कितना मौका भारतीय राजनयिकों को मिल पाएगा.

(इस आलेख में जिन नामों का इस्तेमाल किया गया है, वे सभी बदले हुए नाम हैं. सुरक्षा की दृष्टि और उनकी पहचान को गुप्त बनाए रखने के लिए उनके नाम बदले गए हैं)

नई दिल्ली: पचपन बरस के कनाडाई बिज़नेसमैन हरमन गिल का अपना ड्राइविंग स्कूल है. 21 बरस की उम्र में किस्मत का दरवाज़ा खटखटाने कनाडा आए थे, आज अपनी मेहनत के चलते एक फलते-फूलते बिज़नेस के मालिक हैं. वे बताते हैं- 'देखिए अंदर हमारे समाज में तो ऐसा कुछ नहीं है. कुछ लोग बेशक सोशल मीडिया पर हिंदुओं को धमकियां दे रहे हैं, मैसेज वायरल कर रहे हैं, लेकिन असलियत में यहां भाईचारा पूरा है. मैं जहां बैडमिंटन खेलने जाता हूं, वहां एक-दो सरदार ही है, बाकी 10 या 12 हिंदू ही हैं. वहां कभी कोई ऐसी बात नहीं हुई.'

बात करते-करते गिल की आवाज़ में घर कर गई उदासी का एहसास साफ होता है. कहते हैं- 'जिस देश का नमक खाया है उसके साथ नमकहरामी तो नहीं करनी चाहिए न. 21 साल का था मैं, तब कनाडा आया था. अब 55 का हो रहा हूं. हिंदुस्तान से ज़्यादा उम्र मैंने यहां गुज़ार दी है. लेकिन आज भी वही जज़्बा अपने देश के लिए बरकरार है. कई बार मन यही होता है कि इंडिया ही सेटल हो जाउं.

खालिस्तान के बारे में गिल क्या सोचते हैं, इस सवाल के जवाब की शुरुआत वे बड़े मासूम से सवाल से करते हैं- 'क्या करेंगे खालिस्तान ले कर? मेरे पिता जी तो हमेशा भिंडरावाले के खिलाफ थे. गुरु साहिबान ने कहा होता तो ले लेते खालिस्तान. हरि सिंह नलवा कितने बड़े लड़ाके थे, महाराजा रणजीत सिंह का कितना बड़ा राज था, तब भी उन्होंने नहीं लिया खालिस्तान. तो ये सब तो बस मुट्ठी भर लोग प्रोपेगैंडा कर रहे हैं और कुछ तो इसमें आईएसआई का भी हाथ हैं.'

गिल की ईमानदार उदासी कनाडा में खालिस्तान की तस्वीर की असलियत बताती है. दरअसल खालिस्तान को लेकर चर्चा आमतौर पर कनाडा के उन इलाकों में ज़्यादा होती है, जहां सिखों की जनसंख्या खूब है, जैसे वैंकूवर और टोरंटो. वे मंदिरों के सामने प्रदर्शन करते हैं, मंदिरों की दीवारों पर खालिस्तान समर्थक और हिंदू विरोधी नारे लिख देते हैं और मंदिर जाने वाले हिंदुओं को चिढ़ाने की भी कोशिश करते हैं.

लेकिन वे कोई ऐसा काम नहीं करते जो कनाडाई कानून के हिसाब से अपराध की श्रेणी में आता हो. इसीलिए बच जाते हैं या छोटी मोटी सजा या ज़ुर्माना झेल कर बाहर आ जाते हैं. लेकिन ये हंगामा देखकर आम तौर पर शांतिप्रिय मूल कनाडाई निवासियों की क्या प्रतिक्रिया होती है, ये बताया आईटी इंजीनियर सुमंत ने- 'ओरिजिनल कनाडियन के मन में इनकी छवि बड़ी नकारात्मक है. सामाजिक कामों के लिए चंदा इकट्ठा कर इस छवि को सुधारने की बड़ी कोशिशें हुई हैं, लेकिन पिछले तीन सालों से यहां के मूल निवासी सिखों से नाराज़ हैं और इनके बीच काफी दूरी आ गयी है. यहां तक कि यहां का आम श्वेत कनैडियन ट्रूडो से भी बहुत नाराज़ है और ये तय है कि त्रुदो का वक्त अब खत्म हो गया है. उसकी इमेज इतनी खराब है कि उसे यहां सब कनाडा का पप्पू कहते हैं. खासतौर पर 2018 की उसकी भारत यात्रा से भी उसका इमेज यहां बहुत खराब हुआ.'

आमतौर पर कनाडा की पुलिस का रवैया बड़ा निष्पक्ष रहता है, लेकिन खालिस्तान समर्थक सिख उनसे डरते नहीं. सुमंत बताते हैं- 'कनाडा की पुलिस से ये नहीं डरते. राजनैतिक रसूख भी इनका इतना है कि इन्हें हाथ नहीं लगाता कोई. इनकी लीगल मशीनरी इतनी तैयार रहती है कि प्रदर्शनकारियों को कवर मिलता रहता है.

लेकिन सुमंत ने बातचीत में एक और खास एंगल की ओर इशारा किया- 'सिख आम तौर पर ब्लॉक वोटिंग करते हैं, यानी सभी लोग एक पार्टी को ही वोट डालते हैं, इससे इनकी राजनैतिक ताकत बढ़ जाती है और उसका असर सरकार के फैसलों पर भी होता है. हिंदुओं में इस तरह की वोटिंग नहीं होती, वे अलग-अलग पार्टियों को देते हैं। लेकिन अबकी चुनाव में शायद ये भी इसी तरह वोटिंग करें. इससे पहले बंगाली कहीं और करते थे, दक्षिण भारतीय कहीं और. फिजी वगैरह से आने वाले हिंदू भी अपने-अपने हिसाब से वोट डालते थे. श्रीलंकन हिंदू, गुजराती हिंदू सब अलग करते हैं...लेकिन माहौल में इस बार कुछ बदलाव आता दिख रहा है.

सुमंत एक और एंगल की ओर भी इशारा करते हैं. उनका कहना है कि जब से खालिस्तानियों पर भारत सरकार ने पंजाब में एक्शन लेना शुरू किया है, तब से खालिस्तानी समर्थक थोड़ा डरे हुए हैं- 'रेफरेंडम के बाद जब से पंजाब में एक्शन हुआ है तो ये लोग थोड़ा पीछे हट गए हैं. यहां तक कि खालिस्तानी पॉलिटिशयन भी बैकफुट पर आ गए हैं. अभी तो यहां अफवाह ये भी उड़ी कि जो रेफरेंडम वोटिंग हुई थी, उसकी वोटर लिस्ट कहीं भारत सरकार को न मिल जाए और वो पंजाब में उन लोगों के खिलाफ एक्शन न ले ले, जिन्होंने आ कर वोटिंग की है. अब ये डरे हैं. वो वोटर लिस्ट भी नष्ट करने में लगे हुए हैं.

सुमंत ये भी मानते हैं कि माहौल में जो शांति दिख रही है वो किसी खतरनाक सन्नाटे की तरह है- 'अभी तनाव थोड़ा सबड्यूड है, लेकिन दीपावली के वक्त बढेगा. जैसे अभी गणपति खत्म हुआ है, तो उस समय भी थोड़ा हो गया था. कुछ पता नहीं कि दीवाली का सेलिब्रेशन जब शुरू होगा, तो क्या होता है.

कनाडा में ही पच्चीस साल से रह रहे श्रीनिवास राव भी कुछ परतें खोलते हैं. कहते हैं कि माहौल ऊपर से सामान्य दिखता तो है लेकिन है नहीं- 'खुले में लोग खालिस्तान के मुद्दे पर बहस नहीं करते. हमसे मिलेंगे तो कहेंगे, नहीं कुछ लोग हैं, भटके हुए जो ये सब करते हैं. लेकिन अगर किसी सिख ने सपोर्ट नहीं किया तो गुरुद्वारे में मिलते ही लोग बोलेंगे कि भई तुमने तो सपोर्ट किया नहीं.

श्रीनिवास इसकी वजह भी उस घेटो संस्कृति को मानते हैं जिसकी वजह से कनाडा आते ही सिख उन इलाकों में घर लेते हैं जहां सिखों की बहुतायत है- 'वे यहां के किसी गोरे कनाडियन नागरिक से मेल-मुलाकात नहीं करते. कुल मिला कर गुरुद्वारे तक जो भी मिलना-जुलना होता है, उसके केंद्र में पंजाब ही होता है. हालांकि खालिस्तान के मुद्दे को भी इंडियन एम्बेसी के आसपास रहने वाले ही समझते होंगे. उससे ज्यादा नहीं. लेकिन यहां फियर साइकोसिस नहीं है. ऐसा नहीं है कि डर के मारे हम बाहर न जाएं.

जानकार मानते हैं कि जो तनाव कनाडा के भारतीय डायस्पोरा में फैला हुआ है, ज़रूरत है उससे निपटने की. चुनौती ये है कि राजनयिक लड़ाई में कनाडा सरकार से दो-दो हाथ करते वक्त डायस्पोरा में जमी बर्फ पिघलाने का कितना मौका भारतीय राजनयिकों को मिल पाएगा.

(इस आलेख में जिन नामों का इस्तेमाल किया गया है, वे सभी बदले हुए नाम हैं. सुरक्षा की दृष्टि और उनकी पहचान को गुप्त बनाए रखने के लिए उनके नाम बदले गए हैं)

Last Updated : Oct 4, 2023, 6:49 PM IST
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