भोपाल। आजादी के इतिहास के उन रणबांकुरो को भी जानिए...जिनकी शहादत से ज्यादा किस्से उनके सियासी लाभ के राजनीतिक दलो में खींचतान के हैं. कौन हैं वो देशभक्त जिनके सहारे एमपी में राजनीति की राह आसान की जा रही है. कौन हैं वो आजादी के दीवाने जिन्हें इतिहास की किताबों में बेशक जगह नहीं मिली, लेकिन उनकी शहादत के किस्से भाषणों में पूरे जोश से सुनाए जाते हैं. जिनके नाम जुबान पर इसलिए आते हैं कि उनके साथ एक बड़ा वोट बैंक साधा जा सकता है. कौन हैं ये देशभक्त जिनके देशप्रेम को विधानसभा सीटों के गणित से कैश किए जाने की है तैयारी....और इस दौड़ में बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों एक दूसरे से उन्नीस नहीं हैं. टंट्या मामा से लेकर रघुनाथ शाह शंकर शाह और फिर रानी कमलापति तक क्यों सियासी दलों का मोहरा बनते रहे आजादी के परवाने.
आदिवासियों के रॉबिन हुड से मालवा में सियासी पकड़: टंट्या मामा आजादी की लड़ाई का वो रणबांकुरा 1857 की क्रांति में जो अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गए थे. इतिहास का हिस्सा बनने में टंट्या भील को बहुत समय लगा. लेकिन टंट्या मामा की गौरव यात्रा से लेकर उनकी जन्मभूमि पातालपानी को लाइमलाइट में आने तक सारी कवायद इसलिए भी कि टंट्या मामा आदिवासियों के बड़े वोट बैक को प्रभावित करते रहे हैं. 1889 में जिन्हें फांसी दे दी गई वो टंट्या भील अब 2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के नए कैटेलिस्ट हैं. जो मालवा की 65 सीटों के साथ 21 आदिवासी बाहुल्य की सीटों पर सीधा असर डाल सकते हैं. टंटया मामा हमारा है, इस नारे के साथ बीजेपी ने गौरव यात्राएं निकाली तो कांग्रेस ने भी टंट्या के प्रभाव वाले इलाकों में पकड़ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. टंट्या मामा की जन्मस्थली पातालपानी के रेलवे स्टेशन का नाम टंट्या मामा के नाम पर कर दिया गया. आदिवासियों को ये बताने की बीजेपी के राज में जननायकों को मान मिला है.
कमलापति पर सवाल...बवाल वोट का भी तो है: रानी कमलापति जिनके नाम पर भोपाल में हबीबगंज स्टेशन का नाम बदला गया. रानी कमलापति भी जनजाति समाज की वो नायिका हैं, जिनकी वीरता और बलिदान की कहानियां सुनी और कही जाती रही हैं. लेकिन राजनीति में कमलापति पर भी सियासी बवाल हुआ. नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह के एक बयान पर मचा बवाल. जिसमें उन्होंने कहा था कि रानी कमलापति को कोई पहले जानता भी नहीं था, ये तो बीजेपी ढूंढ-ढूंढ कर नाम रख रही है. गोविंद सिंह ने कहा कि "राजा रानियों के नाम इसलिए स्थापित किए जा रहे हैं कि जिन्होंने दलितों और शोषित समाज पर अत्याचार किया, उनका महिमामंडन हो सके." गोविंद सिंह का इस बयान पर भारी विरोध हुआ था. बीजेपी ने इसे जनजातीय समाज की नायिका का अपमान बताया था.
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शाह बंधुओं के सहारे महाकौशल पर पकड़: 1857 की क्रांति में राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह का जिक्र भी आता है. हालांकि एमपी की राजनीति में इनकी याद अब जोरों पर हो रही है. चुनावी साल से पहले उनके बलिदान को भुनाने की ऐसी होड़ मची कि बलिदान दिवस को लेकर बीजेपी उनकी कर्मस्थली जबलपुर में आयोजन की तैयारियों में जुटी. तो कांग्रेस ने भोपाल में बीजेपी मुख्यालय में बलिदान दिवस का आयोजन किया. इन दोनों बलिदानियों का महाकौशल क्षेत्र में बहुत सम्मान है. इस इलाके की सियासत को साधने की मजबूत कड़ी बन गए हैं शाह बंधु.