अजमेर. भारत को यूं ही अनेकता में एकता का प्रतीक नहीं मानते. विभिन्न धर्म, जाति, समुदाय के लोग त्योहार परम्परा, मान्यता और श्रद्धानुसार मनाते हैं. ऐसी ही एक अनूठी परंपरा को अजमेर का गुर्जर समाज निभा रहा. मां लक्ष्मी के अवतरण दिवस पर उनकी पूजा अर्चना की जगह पितरों को याद करते हैं, ऐन दिवाली के दिन श्राद्ध करते हैं. ऐसा Tradition जो पीढ़ी दर पीढ़ी शिद्दत से निभाया जा रहा है (Gurjar Samaj Unique Tradition). गुर्जर समाज दीपावली के दिन अपने पूर्वजों को याद कर परिवार में सुख समृद्धि और वंश वृद्धि की कामना करता है.
कैसे निभाते हैं रस्म?: दिपावली के दिन एक ही गोत्र और परिवार के लोग पानी के स्थान पर जुटते हैं. यहां सभी पुरुष एक साथ मिलकर घास, पीपल की पत्तियों और अन्य वनस्पति से मिलकर बनाई गई एक लंबी बेल को पकड़कर अपने पूर्वजों को याद करते हुए पानी में विसर्जित करते हैं (Gurjar Samaj Diwali Celebration). ये परंपरा शहरों में ही नहीं बल्कि गांव में विशेषकर निभाई जाती है.
सदियों पुरानी पारंपरा: राजस्थान गुर्जर महासभा के पूर्व अध्यक्ष हरि सिंह गुर्जर ने बताया कि दीपावली पर पूर्वजों को याद कर उनका श्राद्ध करने की परंपरा गुर्जर समाज में सदियों पुरानी है. ऐसा माना जाता है कि सदियों पहले गुर्जर समाज के लोगों ने मिलकर तय किया था कि वो दीपावली के दिन अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर के ही दीपावली मनाएंगे.
गुर्जर बताते हैं कि इसके पीछे तर्क था कि चूंकि समाज के लोग पशुपालन के चलते पशुओं को चराने के लिए दूर-दूर तक जाते थे, जीवनपालन के लिए ये लोग दूर दराज निकल जाते हैं इसलिए अमूमन श्राद्ध पक्ष में मौजूद नहीं रहते थे. कष्ट होता था कि जो परलोकगमन हो गए उनको वो मान्यता और परम्परानुसार कुछ अर्पण नहीं कर पाते. इन्हीं परिस्थितियों को देखते हुए समाज के ज्ञानियों ने एक फैसला किया. ठाना कि दीपावली के दिन वो अपने पूर्वजों का श्राद्ध करेंगे. दीपावली पर पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध करने की परंपरा को गुर्जर समाज आज भी जीवित रखे हुए हैं पीढ़ी दर पीढ़ी ये परंपरा विरासत के रूप में अगली पीढ़ी तक पहुंच रही है.
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एक कहानी श्रीराम से जुड़ी: महासभा के अध्यक्ष हरि सिंह गुर्जर ने बताया कि वनवास काटने के बाद भगवान श्री राम जब अयोध्या लौटे थे तो उन्होंने राजतिलक से पहले पिता महाराजा दशरथ का पुष्कर में आकर श्राद्ध किया था. तो कहा जा सकता है कि सदियों पहले गुर्जर समाज के लोगों ने दीपावली पर पूर्वजों के श्राद्ध की परंपरा का निर्णय भगवान श्रीराम से प्रेरित होकर ही लिया था. समाज मानता है कि अमावस्या पर पूर्वजो के निमित्त श्राद्ध करना श्रेष्ठ है.
बेल के समान बढ़े वंश: दीपावली के दिन समान गोत्र और परिवार के लोग पानी के स्थान पर जुटते है. जहां पुरुष घास पीपल की पत्तियों और अन्य वनस्पतियों से मिलकर बनाई गई एक लंबी बेल को हाथों में पकड़ते हैं और अपने पूर्वजों को याद करते हैं. उसके बाद उस बेल का विसर्जन पानी में किया जाता है. बेल के समान वंश वृद्धि की कामना की जाती है साथ ही परिवार में सुख शांति रहने की भी प्रार्थना पितरों से की जाती है. पूर्वजों को घर में बनाए व्यंजन का भोग लगाया जाता है. इसके बाद सभी परिवार के लोग मिलकर सामूहिक रूप से भोजन करते हैं.
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खीर और चूरमे का लगता है भोग: बुजुर्गों ने युवा ब्रिगेड के हाथों में विरासत की चाभी सौंपी है. वो भी उत्साहित हैं. रोहिताश गुर्जर बताते हैं कि श्राद्ध से पहले प्रत्येक गुर्जर समाज के परिवार से एक भोजन की थाली आती है. पूर्वजों को याद कर प्रत्येक थाली से उन्हें खीर और चूरमे का भोग लगाया जाता है. इसके बाद परिवार के लोग भोग की थाली से एक दूसरे को प्रसाद के रूप में भोजन करवाते हैं. इससे सामाजिक एकता और स्नेह का भाव की वृद्धि लोगों में होती है. गुर्जर बताते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक दीपावली के दिन पूर्वजों के श्राद्ध की यह परंपरा विरासत के रूप में नई पीढ़ी तक पहुंचती है.