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बार-बार उजड़ती और बार-बार बसती रही, मैं वो दिल्ली हूं - कुतुब मीनार और इंडिया गेट

दिल्ली कुछ अधूरे अल्फ़ाज़ से मिलकर पूरी होने वाली को दास्तान है, जिसमें सदियों का दौर, हुकूमतों का अंदाज़, रिवायतें और शान सब शामिल हैं. क़सक और कराहियत भी है, नरमी और मासूमियत भी है. सदियों का ये शहर अपने आप में एक तारीख़ है. जिसको देखने, सुनने, पढ़ने और निहारने को एक नज़र चाहिए.

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दिल्ली में ब्रिटिश हुकूमत ने 12 फरवरी 1931 को इंडिया गेट बनवाया
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Published : Jan 22, 2022, 11:06 PM IST

नई दिल्ली : मैं दिल्ली हूं.. बार-बार उजड़ती और बार-बार बसती रही, मैं वो दिल्ली हूं. लोदियों की शान और मुगलों की गौरव गाथा समाए सदियों से संवरती, बिखरती और बदलती मैं दिल्ली हूं. फिजाएं बदलती हैं, मौसम बदलते हैं, सत्ता बदलती है, हुकूमतें बदलती हैं. तमाम बदलावों के के साथ बदलती, सुलगती, बुझती और दहकती मैं दिल्ली हूं. यमुना के अमिय जलधारा से सिंचित, कालिंदी की कलकल को सीने में समाए हर परिवर्तन, हर बदलाव को निहारती मैं दिल्ली हूं.

दौर बदले, हुकूमतें बदलीं, आजादी भी देखी, गुलामी भी झेली. लाल किले के प्राचीर से और चांदनी चौक की चमक से, दूर-दूर तक हर गेट तक प्रसरित रही, प्रफुल्लित रही मैं दिल्ली हूं.. शहीदों की शान देखी, सूरमाओं की शान देखी और मुगलों की आन देखी. कितने दौर, कितनी सदियां शीतल मलय की तरह बह गईं, पर मैं स्थिर रही, इसीलिए मैं दिल्ली हूं.

ब्रिटिश हुकूमत ने इंडिया गेट पर किंग जॉर्ज पंचम की आदम कद प्रतिमा लगवाई थी

क़िलों की तामीर भी देखी

महलों की ज़ंजीर भी देखी

ग़ज़लें और शमशीर भी देखी

शान के अंगारों पर, दुश्मन की ललकारों पर

तोप की आग व जंग की नख़चीर भी देखी

तारीख़ के सितम भी

ताज और क़फ़न भी

ख़ुदा और सनम भी

मैं सिसकती, मैं दहकती

मैं दरकती, मैं महकती

मैं उजड़ती, मैं संवरती

मैं दिल्ली हूं.. मैं दिल्ली हूं..

दिल्ली सिर्फ राजधानी ही नहीं, सदियों का सरमाया है. जिसमें बदलती हुकूमतों, पनपती रिवायतों और बिखरती उम्मीदों का एक जहां मौजूद है. इसे बस काफिल नजरों से निहारने की जरूरत है. दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर बदलावों की कहानी और सिसकियों की दास्तां दर्ज है. दिल्ली के सीने में लाल किला ही नहीं, कुतुब मीनार और 12 फरवरी 1931 को वजूद में आया इंडिया गेट भी हैं. जहां से कभी आगरा की रेल लाइन गुजरती थी. बदलावों की परंपरा आगे बढ़ी, तो इसे उखाड़कर यमुना किनारे बिछा दिया गया. वो दौर ब्रिटिश हुकूमत का था, लिहाजा इंडिया गेट पर शहीदों के नाम खुदवाए गए, तो गेट पर किंग जॉर्ज पंचम की आदम कद प्रतिमा भी लगवाई गई. जिसे आजादी के बाद कांग्रेस हुकूमत ने हटा दिया.

पढ़ें : इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा : कांग्रेस असहज, पर टीएमसी ने किया स्वागत

इंडिया गेट और संसद भवन यानी नई दिल्ली का नया जिगर ब्रिटिश हकूमत की शान-ओ-तामीर में शामिल हुआ. राजस्थानी पत्थर से लुटियंस की दिल्ली संवर उठी. जिसका दिल अब भी चांदनी चौक की नखरीली अदाओं पर फिदा था. अफसर हो या सैनिक, कारोबारी रहे हों या उस दौर के अदब-ओ-सकाफत के फनकार. सब शाम ढलते और दिन निकलते, चांदनी चौक की खुशमिजाजियों में रमने को मचलते थे. गुलों की शाम भी यहीं होती थी और कांटों का बिहान भी यहीं होता था. शायर से लेकर सितमगर और साइंसदां से लेकर कारोबारी. उस दौर का हर इंसान दिल्ली की धड़कनों को, इसकी अदाओं को, इसके नखरे और इसकी नजाकत को बहुत करीब से निहारना और महसूस करना चाहता था. हकीकत में ये वो दिल्ली है, जिसे सब अपने दिल में बसाकर जिंदगी की शाम के साथ ढलना चाहते थे.

नई दिल्ली : मैं दिल्ली हूं.. बार-बार उजड़ती और बार-बार बसती रही, मैं वो दिल्ली हूं. लोदियों की शान और मुगलों की गौरव गाथा समाए सदियों से संवरती, बिखरती और बदलती मैं दिल्ली हूं. फिजाएं बदलती हैं, मौसम बदलते हैं, सत्ता बदलती है, हुकूमतें बदलती हैं. तमाम बदलावों के के साथ बदलती, सुलगती, बुझती और दहकती मैं दिल्ली हूं. यमुना के अमिय जलधारा से सिंचित, कालिंदी की कलकल को सीने में समाए हर परिवर्तन, हर बदलाव को निहारती मैं दिल्ली हूं.

दौर बदले, हुकूमतें बदलीं, आजादी भी देखी, गुलामी भी झेली. लाल किले के प्राचीर से और चांदनी चौक की चमक से, दूर-दूर तक हर गेट तक प्रसरित रही, प्रफुल्लित रही मैं दिल्ली हूं.. शहीदों की शान देखी, सूरमाओं की शान देखी और मुगलों की आन देखी. कितने दौर, कितनी सदियां शीतल मलय की तरह बह गईं, पर मैं स्थिर रही, इसीलिए मैं दिल्ली हूं.

ब्रिटिश हुकूमत ने इंडिया गेट पर किंग जॉर्ज पंचम की आदम कद प्रतिमा लगवाई थी

क़िलों की तामीर भी देखी

महलों की ज़ंजीर भी देखी

ग़ज़लें और शमशीर भी देखी

शान के अंगारों पर, दुश्मन की ललकारों पर

तोप की आग व जंग की नख़चीर भी देखी

तारीख़ के सितम भी

ताज और क़फ़न भी

ख़ुदा और सनम भी

मैं सिसकती, मैं दहकती

मैं दरकती, मैं महकती

मैं उजड़ती, मैं संवरती

मैं दिल्ली हूं.. मैं दिल्ली हूं..

दिल्ली सिर्फ राजधानी ही नहीं, सदियों का सरमाया है. जिसमें बदलती हुकूमतों, पनपती रिवायतों और बिखरती उम्मीदों का एक जहां मौजूद है. इसे बस काफिल नजरों से निहारने की जरूरत है. दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर बदलावों की कहानी और सिसकियों की दास्तां दर्ज है. दिल्ली के सीने में लाल किला ही नहीं, कुतुब मीनार और 12 फरवरी 1931 को वजूद में आया इंडिया गेट भी हैं. जहां से कभी आगरा की रेल लाइन गुजरती थी. बदलावों की परंपरा आगे बढ़ी, तो इसे उखाड़कर यमुना किनारे बिछा दिया गया. वो दौर ब्रिटिश हुकूमत का था, लिहाजा इंडिया गेट पर शहीदों के नाम खुदवाए गए, तो गेट पर किंग जॉर्ज पंचम की आदम कद प्रतिमा भी लगवाई गई. जिसे आजादी के बाद कांग्रेस हुकूमत ने हटा दिया.

पढ़ें : इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा : कांग्रेस असहज, पर टीएमसी ने किया स्वागत

इंडिया गेट और संसद भवन यानी नई दिल्ली का नया जिगर ब्रिटिश हकूमत की शान-ओ-तामीर में शामिल हुआ. राजस्थानी पत्थर से लुटियंस की दिल्ली संवर उठी. जिसका दिल अब भी चांदनी चौक की नखरीली अदाओं पर फिदा था. अफसर हो या सैनिक, कारोबारी रहे हों या उस दौर के अदब-ओ-सकाफत के फनकार. सब शाम ढलते और दिन निकलते, चांदनी चौक की खुशमिजाजियों में रमने को मचलते थे. गुलों की शाम भी यहीं होती थी और कांटों का बिहान भी यहीं होता था. शायर से लेकर सितमगर और साइंसदां से लेकर कारोबारी. उस दौर का हर इंसान दिल्ली की धड़कनों को, इसकी अदाओं को, इसके नखरे और इसकी नजाकत को बहुत करीब से निहारना और महसूस करना चाहता था. हकीकत में ये वो दिल्ली है, जिसे सब अपने दिल में बसाकर जिंदगी की शाम के साथ ढलना चाहते थे.

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