नई दिल्ली: दिल्ली सरकार ने अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के साथ ही 57 पेज की याचिका में दिल्ली सिविल सेवा प्राधिकरण (एनसीसीएसए) के गठन पर भी सवाल उठाए हैं. हालांकि इस प्राधिकरण के गठन के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दो बैठक कर चुके हैं और अपना फैसला भी सुनाया है. लेकिन केजरीवाल सरकार ने याचिका में कहा है कि यह अध्यादेश और इसके प्रावधान के तहत गठित प्राधिकरण दिल्ली सरकार को उसके अधिकार से वंचित करता है.
LG का फैसला अंतिम तो प्राधिकरण का मतलब क्या: दिल्ली सरकार ने अपनी अर्जी में यह भी कहा है कि लोकतंत्र में सामूहिक जिम्मेदारी होती है. अनुच्छेद 239 ए के प्रावधान में कहा गया है कि दिल्ली में चुनी हुई सरकार होगी और अधिकारियों पर उनका नियंत्रण होगा. यह नियंत्रण क्षेत्रीय सरकार के हाथों में होता है. लेकिन ये अध्यादेश कहता है कि अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए एक कमेटी (NCCSA) होगी. इस कमेटी में मुख्यमंत्री के साथ-साथ मुख्य सचिव और गृह सचिव शामिल होंगे. उपराज्यपाल का फैसला अंतिम होगा. ऐसे में इस प्राधिकरण के गठन का कोई मतलब ही नहीं है. अध्यादेश में चुनी हुई सरकार को साइड लाइन करने जैसे प्रावधान दिया गया है.
प्राधिकरण में अध्यक्ष मुख्यमंत्री लेकिन वह हमेशा रहेंगे अल्पमत: दिल्ली सरकार ने याचिका में यह भी कहा है कि अध्यादेश पूरी तरह से निर्वाचित प्रकार के सिविल सर्विसेज के ऊपर अधिकार को खत्म करता है. साथ ही अध्यादेश संस्थाओं का निर्वाचन करने की शक्ति केंद्र को देकर इसे निर्वाचित सरकार को और भी कमजोर बना रहा है. कोर्ट में दायर याचिका में केजरीवाल सरकार ने एनसीसीएसए के बारे में कहा है कि इसे इस तरह से बनाया गया है कि इसके अध्यक्ष दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री रहेंगे, लेकिन वह हमेशा अल्पमत में रहेंगे. समिति में बाकी दो अधिकारी कभी भी उनके खिलाफ वोट डाल सकते हैं. मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में बैठक बुला सकते हैं.
यहां तक कि एकतरफा सिफारिशें करने का काम किसी अन्य संस्था को सौंप सकते हैं. दिल्ली सरकार ने आगे कहा है कि नौकरशाहों और उपराज्यपाल को निर्वाचित सरकार के निर्णयों की वैधता पर निर्णय लेने और उस आधार पर कार्रवाई करने की अनुमति देकर अध्यादेश अनुच्छेद 239 ए के तहत अधिकारों और शासन की शक्तियों के विभाजन को पूरी तरह से ध्वस्त कर देता है.
दिल्ली सरकार के अधीन आने वाली संस्थाओं पर केंद्र का नियंत्रण: दिल्ली सरकार द्वारा कोर्ट में दायर अर्जी में जिक्र है कि दिल्ली के लोगों के लिए काम करने वाली 50 से अधिक संस्थाओं का काम इस अध्यादेश के जरिए व्यापक रूप से प्रभावित होगी. इसका नियंत्रण दिल्ली के लोगों से लेकर केंद्र के पास चला जाएगा. यह संस्थाएं दिल्ली के यातायात, परिवहन, जल और बिजली आपूर्ति जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करती है. जिसमें दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन, दिल्ली जल बोर्ड, दिल्ली स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन, दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड शामिल है.
इन संस्थाओं को विशेष रूप से दिल्ली के मतदाताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए गठित किया गया है. यह अध्यादेश दिल्ली की जनता के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करती है. यह संस्थाएं दिल्ली सरकार द्वारा वित्त पोषित है. सिविल सर्विस दिल्ली में प्रशासनिक कार्य करती है और प्रशासन का केंद्र है. अर्जी में साफ तौर पर दिल्ली सरकार ने कहा है कि कुल मिलाकर अध्यादेश के जरिए सर्विसेज को लेकर कोर्ट के आदेश को अध्यादेश से पलटने का प्रयास है और उसकी इजाजत नहीं हो सकती है.
" यह पहले से ही तय था कि मुख्यमंत्री अध्यादेश के खिलाफ कोर्ट जाएंगे. पहले तो मुख्यमंत्री ने पूरे देश में घूम-घूम कर विपक्षी दलों से अध्यादेश के खिलाफ समर्थन मांगा. जब किसी दल ने समर्थन नहीं दिया तो कोर्ट का रुख किया है."
वीरेंद्र सचदेवा, प्रदेश अध्यक्ष, दिल्ली बीजेपी
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