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UP चुनाव से पहले बिहार की सियासत में जाति की राजनीति गरमायी : मांझी-सहनी

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Published : Jun 12, 2021, 10:08 AM IST

Updated : Jun 12, 2021, 12:53 PM IST

बिहार में जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी जातीय राजनीति के ऐसे दो नाम बन गए हैं, जो नीतीश और लालू की राजनीति के बराबर भले जगह न बना पाए हों, लेकिन राजनीतिक चर्चा में इनके बयान नकारे भी नहीं जाते. दोनों उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में लगे हैं.

UP चुनाव
UP चुनाव

पटना : 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाली सत्ता के हुकूमत की जंग की तैयारी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल चाहे जैसे कर रहे हों, लेकिन बिहार में यूपी फतह को लेकर जातीय राजनीति (ethnic politics) की सियासत विकास के मुद्दे पर सवाल (questions on development) लिए तैयार है.

बात वर्तमान हालत पर ही की जाए तो बिहार में कोरोना (Corona) भले ही जाति देखकर काम न कर रहा हो, लेकिन बिहार की राजनीति जाति से आगे जाकर विकास की राह पकड़ना ही नहीं चाह रही. दरअसल, 1989 में बिहार में जाति की राजनीति की ऐसी बयार तैयार हुई कि जब भी जाति की राजनीति को उकसाया गया तभी बयानों वाली सियासत शुरू हो जाती. बिहार में हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (Hindustani Awam Morcha) के मुखिया जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) और विकासशील इंसान पार्टी (Vikassheel Insaan Party) के मुकेश सहनी (Mukesh Sahani) जातीय सियासत पर मुखर होकर बयान दे रहे हैं, जो अब उनके सहयोगी दलों को नागवार लग रहा है.

पढ़ें- पंजाब : प्रदेश अध्यक्ष बदलने पर सुनील जाखड़ बोले,...तो हटा दो मुझे

बिहार में हम सुप्रीमो जीतन राम मांझी और 'सन ऑफ मल्लाह' नाम से विख्यात मुकेश सहनी जातीय राजनीति के ऐसे दो नाम बन गए हैं, जो नीतीश और लालू की राजनीति के बराबर जगह न बना पाए हों, लेकिन राजनीतिक चर्चा में इनके बयान नकारे भी नहीं जाते. बिहार में जातीय राजनीति का ढांचा बदल रहा है, जिसे लालू ने हथियार बनाया, नीतीश ने उसी से राज किया और अब जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी इसकी सियासत में लगे हैं.

भोला पासवान शास्त्री
भोला पासवान शास्त्री

बिहार में दलित राजनीति
इतिहास के पन्नों को पलटें तो बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था. इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलें. 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने, जो देश के पहले दलित मुख्यमंत्री थे. 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने थे. फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके.

पढ़ें- असम CM के बयान पर मौलाना का पलटवार, 'मुस्लिमों को नसीहत जरूरत नहीं'

फिलहाल, हाल के समय में मजदूरों की समस्या (labor problem) ने बिहार में दलित आंदोलन की एक नई संभावना जगाई हैं. जीतनराम मांझी ने करीब आठ महीने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपना सारा ध्यान इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सकें. नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर एक बड़ा दलित गेम खेला था, लेकिन जीतन राम मांझी बागी हो गए और अलग पार्टी भी बना ली. हम प्रमुख जीतन राम मांझी दलित वोट बैंक 22 फीसद तक होने का दावा करते हैं. वह जाति की सियासत में बिहार के दूसरे दलों पर दबाव बना रहे हैं. यूपी और बिहार में जातीय समूह ताकतवर बनकर उभर रहे हैं. ये लोग अपनी जाति के साथ इस तरह गोलबंद हो रहे हैं कि अच्छा-खासा वोट काट लेते हैं. जाति की इसी राजनीति को यूपी में भजाने के लिए बिहार से गोलबंदी की जा रही है.

जाति की राजनीति वाली नई जमीन है यूपी-बिहार
यूपी-बिहार की जातियों की बात की जाय तो इसमें पहला- ब्राह्मण, क्षत्रिय, उच्च बनिया, कायस्थ को रखा जाय. ये वे जातियां हैं, जो अमूमन अपनी जाति की उम्मीदवार रहती हैं. दूसरा- यादव, कुर्मी, लोध, कोइरी, जाटव, खटिक. इन जातियों को ओबीसी (OBC) और एससी (SC) की सवर्ण जातियां कहा जा सकता है. इन जातियों के करीब तीन दशक तक सत्ता के करीब रहने के बाद अन्य ओबीसी व एससी-एसटी (SC-ST) जातियों को इनसे जलन होने लगी है. तीसरा- निषाद, राजभर, काछी, केवट, बढ़ई, लोहार को रखा जा सकता है. इन्हें सपा, बसपा, राजद और जदयू ने प्रतिनिधित्व दिया था. ये अब खुद अपनी जाति वाला सीएम बनाने के सपने देख रहे हैं. ये अपने स्वतंत्र अस्तित्व वाले नेताओं के पीछे एकजुट हो रहे हैं. यही मांझी और सहनी के लिए सियासी खेती की उपजाऊ जमीन दिख रही है.

पढ़ें- 'खतरे' में अघाड़ी सरकार, कांग्रेस बोली- अकेले लड़ेंगे चुनाव

बिहार के राजनीतिक दलों ने बंगाल में चुनाव लड़ने के लिए मजमून तैयार कर लिया था. एनडीए गठबंधन के साथ हम, जदयू और वीआईपी भी बंगाल में दंगल की तैयारी में थे, लेकिन बीजेपी कोई जगह नहीं दिया. अब जब उत्तर प्रदेश की सियासत सत्ता के हुकूमत की जंग की तरफ बढ़ रही है, ऐसे में जाति की राजनीति से सियासत में जगह बना चुके राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा भी बढ़ने लगी है. मांझी और सहनी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में उतरने की तैयारी में बयानों को अपना हथियार बना लिया है.

मुकेश सहनी
मुकेश सहनी

सियासत पार्ट- 2
यह बात चर्चा में भी है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में बिहार एनडीए का मजबूती से जाना तय माना जा रहा था. इस बात के भी कयास लगाए जा रहे थे कि बीजेपी नीतीश कुमार को पश्चिम बंगाल के चुनाव में जरूर ले जाएगी, लेकिन बदले राजनीतिक हालात में बिहार एनडीए के सहयोगी दल जदयू, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा और वीआईपी को बीजेपी ने कोई जगह नहीं दी.

पढ़ें- मुकुल रॉय के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, विधायक के रूप में इस्तीफा दें: बंगाल भाजपा

उत्तर प्रदेश का चुनाव (Uttar Pradesh election) देश की राजनीति पर असर डालता है. ऐसे में उत्तर प्रदेश का पड़ोसी राज्य होने के नाते बिहार के राजनीतिक दल इस बात को मानकर चल रहे हैं कि यूपी में उनकी सियासत का असर जरूर होगा. इसी चीज को लेकर अभी से एनडीए के घटक दलों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है. नीतीश कुमार के साथ दबाव वाली सियासत की कोई बात बीजेपी मानती है तो इसका फायदा उन राजनीतिक दलों को भी हो जाएगा जो राजनीति में जातीय गोलबंदी को अपनी-अपनी सियासत मानते हैं और अपनी जाति के वोट को कैडर वोट. यही बिहार एनडीए के विवाद का विषय भी है.

यूपी पंचायत चुनाव ने बदले हालात
उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव के जो परिणाम आए उसने उत्तर प्रदेश में चल रही योगी सरकार की दिशा के विपरीत परिणाम दे दिया. पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी को बीजेपी से ज्यादा सीटें मिली, जिसमें अखिलेश यादव की जाति सियासत रंग ले आई. पंचायत चुनाव के बाद बिहार के राजनीतिक दल जो जाति की सियासत करते हैं उन्हें भी यह लगने लगा कि उत्तर प्रदेश में सियासी किस्मत आजमाई जा सकती है. यही वजह है कि जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी उत्तर प्रदेश की सियासत में जाने को तैयार खड़े हैं.

अखिलेश यादव
अखिलेश यादव

इसके पीछे उनकी मंशा यही है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भले उनका जमीन और जनाधार ना हो, लेकिन उनके पास खोने के लिए भी कुछ नहीं है. हालांकि, पाने के लिए जाति का वह रंग जरूर है जो उत्तर प्रदेश में लगभग 16 फीसद अति पिछड़ा और 14 फीसद मल्लाह जाति का माना जाता है. इसमें सेंधमारी जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी के लिए फायदा ही है.

पढ़ें- लालू के जन्मदिन पर 'खेला', मांझी बोले- एनडीए में 'हम'

2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसको लेकर सियासी कसरत शुरू हो गई है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 11 जून को देश के गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और उत्तर प्रदेश की राजनीति की जानकारी दी तो. वहीं, 11 जून को ही लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप ने मांझी से मुलाकात की. बिहार की राजनीति पर चर्चा की और उत्तर प्रदेश की सियासत पर नई तैयारी के साथ चलने की बात भी कह दी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.

दरअसल, बिहार की राजनीति में मांझी जिस तरीके से बदल रहे हैं. यह जो माझी का तेवर दिख रहा है उससे एक बात तो साफ है कि मांझी के राजनीतिक सफर का बदलता हुआ रूप कहां कैसा दिख जाए कहा नहीं जा सकता. बिहार में उत्तर प्रदेश की चुनाव वाली राजनीति ने अभी से जो असर दिखाना शुरू किया है उसका अंतिम परिणाम यूपी की सियासत में कोई बदलाव कर पाएगा यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन बिहार में सियासी बदलाव की कहानी लिख सकता है, जिसकी सियासी चर्चा जरूर जोरों से है.

पटना : 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाली सत्ता के हुकूमत की जंग की तैयारी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल चाहे जैसे कर रहे हों, लेकिन बिहार में यूपी फतह को लेकर जातीय राजनीति (ethnic politics) की सियासत विकास के मुद्दे पर सवाल (questions on development) लिए तैयार है.

बात वर्तमान हालत पर ही की जाए तो बिहार में कोरोना (Corona) भले ही जाति देखकर काम न कर रहा हो, लेकिन बिहार की राजनीति जाति से आगे जाकर विकास की राह पकड़ना ही नहीं चाह रही. दरअसल, 1989 में बिहार में जाति की राजनीति की ऐसी बयार तैयार हुई कि जब भी जाति की राजनीति को उकसाया गया तभी बयानों वाली सियासत शुरू हो जाती. बिहार में हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (Hindustani Awam Morcha) के मुखिया जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) और विकासशील इंसान पार्टी (Vikassheel Insaan Party) के मुकेश सहनी (Mukesh Sahani) जातीय सियासत पर मुखर होकर बयान दे रहे हैं, जो अब उनके सहयोगी दलों को नागवार लग रहा है.

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बिहार में हम सुप्रीमो जीतन राम मांझी और 'सन ऑफ मल्लाह' नाम से विख्यात मुकेश सहनी जातीय राजनीति के ऐसे दो नाम बन गए हैं, जो नीतीश और लालू की राजनीति के बराबर जगह न बना पाए हों, लेकिन राजनीतिक चर्चा में इनके बयान नकारे भी नहीं जाते. बिहार में जातीय राजनीति का ढांचा बदल रहा है, जिसे लालू ने हथियार बनाया, नीतीश ने उसी से राज किया और अब जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी इसकी सियासत में लगे हैं.

भोला पासवान शास्त्री
भोला पासवान शास्त्री

बिहार में दलित राजनीति
इतिहास के पन्नों को पलटें तो बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था. इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलें. 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने, जो देश के पहले दलित मुख्यमंत्री थे. 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने थे. फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके.

पढ़ें- असम CM के बयान पर मौलाना का पलटवार, 'मुस्लिमों को नसीहत जरूरत नहीं'

फिलहाल, हाल के समय में मजदूरों की समस्या (labor problem) ने बिहार में दलित आंदोलन की एक नई संभावना जगाई हैं. जीतनराम मांझी ने करीब आठ महीने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपना सारा ध्यान इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सकें. नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर एक बड़ा दलित गेम खेला था, लेकिन जीतन राम मांझी बागी हो गए और अलग पार्टी भी बना ली. हम प्रमुख जीतन राम मांझी दलित वोट बैंक 22 फीसद तक होने का दावा करते हैं. वह जाति की सियासत में बिहार के दूसरे दलों पर दबाव बना रहे हैं. यूपी और बिहार में जातीय समूह ताकतवर बनकर उभर रहे हैं. ये लोग अपनी जाति के साथ इस तरह गोलबंद हो रहे हैं कि अच्छा-खासा वोट काट लेते हैं. जाति की इसी राजनीति को यूपी में भजाने के लिए बिहार से गोलबंदी की जा रही है.

जाति की राजनीति वाली नई जमीन है यूपी-बिहार
यूपी-बिहार की जातियों की बात की जाय तो इसमें पहला- ब्राह्मण, क्षत्रिय, उच्च बनिया, कायस्थ को रखा जाय. ये वे जातियां हैं, जो अमूमन अपनी जाति की उम्मीदवार रहती हैं. दूसरा- यादव, कुर्मी, लोध, कोइरी, जाटव, खटिक. इन जातियों को ओबीसी (OBC) और एससी (SC) की सवर्ण जातियां कहा जा सकता है. इन जातियों के करीब तीन दशक तक सत्ता के करीब रहने के बाद अन्य ओबीसी व एससी-एसटी (SC-ST) जातियों को इनसे जलन होने लगी है. तीसरा- निषाद, राजभर, काछी, केवट, बढ़ई, लोहार को रखा जा सकता है. इन्हें सपा, बसपा, राजद और जदयू ने प्रतिनिधित्व दिया था. ये अब खुद अपनी जाति वाला सीएम बनाने के सपने देख रहे हैं. ये अपने स्वतंत्र अस्तित्व वाले नेताओं के पीछे एकजुट हो रहे हैं. यही मांझी और सहनी के लिए सियासी खेती की उपजाऊ जमीन दिख रही है.

पढ़ें- 'खतरे' में अघाड़ी सरकार, कांग्रेस बोली- अकेले लड़ेंगे चुनाव

बिहार के राजनीतिक दलों ने बंगाल में चुनाव लड़ने के लिए मजमून तैयार कर लिया था. एनडीए गठबंधन के साथ हम, जदयू और वीआईपी भी बंगाल में दंगल की तैयारी में थे, लेकिन बीजेपी कोई जगह नहीं दिया. अब जब उत्तर प्रदेश की सियासत सत्ता के हुकूमत की जंग की तरफ बढ़ रही है, ऐसे में जाति की राजनीति से सियासत में जगह बना चुके राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा भी बढ़ने लगी है. मांझी और सहनी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में उतरने की तैयारी में बयानों को अपना हथियार बना लिया है.

मुकेश सहनी
मुकेश सहनी

सियासत पार्ट- 2
यह बात चर्चा में भी है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में बिहार एनडीए का मजबूती से जाना तय माना जा रहा था. इस बात के भी कयास लगाए जा रहे थे कि बीजेपी नीतीश कुमार को पश्चिम बंगाल के चुनाव में जरूर ले जाएगी, लेकिन बदले राजनीतिक हालात में बिहार एनडीए के सहयोगी दल जदयू, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा और वीआईपी को बीजेपी ने कोई जगह नहीं दी.

पढ़ें- मुकुल रॉय के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, विधायक के रूप में इस्तीफा दें: बंगाल भाजपा

उत्तर प्रदेश का चुनाव (Uttar Pradesh election) देश की राजनीति पर असर डालता है. ऐसे में उत्तर प्रदेश का पड़ोसी राज्य होने के नाते बिहार के राजनीतिक दल इस बात को मानकर चल रहे हैं कि यूपी में उनकी सियासत का असर जरूर होगा. इसी चीज को लेकर अभी से एनडीए के घटक दलों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है. नीतीश कुमार के साथ दबाव वाली सियासत की कोई बात बीजेपी मानती है तो इसका फायदा उन राजनीतिक दलों को भी हो जाएगा जो राजनीति में जातीय गोलबंदी को अपनी-अपनी सियासत मानते हैं और अपनी जाति के वोट को कैडर वोट. यही बिहार एनडीए के विवाद का विषय भी है.

यूपी पंचायत चुनाव ने बदले हालात
उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव के जो परिणाम आए उसने उत्तर प्रदेश में चल रही योगी सरकार की दिशा के विपरीत परिणाम दे दिया. पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी को बीजेपी से ज्यादा सीटें मिली, जिसमें अखिलेश यादव की जाति सियासत रंग ले आई. पंचायत चुनाव के बाद बिहार के राजनीतिक दल जो जाति की सियासत करते हैं उन्हें भी यह लगने लगा कि उत्तर प्रदेश में सियासी किस्मत आजमाई जा सकती है. यही वजह है कि जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी उत्तर प्रदेश की सियासत में जाने को तैयार खड़े हैं.

अखिलेश यादव
अखिलेश यादव

इसके पीछे उनकी मंशा यही है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भले उनका जमीन और जनाधार ना हो, लेकिन उनके पास खोने के लिए भी कुछ नहीं है. हालांकि, पाने के लिए जाति का वह रंग जरूर है जो उत्तर प्रदेश में लगभग 16 फीसद अति पिछड़ा और 14 फीसद मल्लाह जाति का माना जाता है. इसमें सेंधमारी जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी के लिए फायदा ही है.

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2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसको लेकर सियासी कसरत शुरू हो गई है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 11 जून को देश के गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और उत्तर प्रदेश की राजनीति की जानकारी दी तो. वहीं, 11 जून को ही लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप ने मांझी से मुलाकात की. बिहार की राजनीति पर चर्चा की और उत्तर प्रदेश की सियासत पर नई तैयारी के साथ चलने की बात भी कह दी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.

दरअसल, बिहार की राजनीति में मांझी जिस तरीके से बदल रहे हैं. यह जो माझी का तेवर दिख रहा है उससे एक बात तो साफ है कि मांझी के राजनीतिक सफर का बदलता हुआ रूप कहां कैसा दिख जाए कहा नहीं जा सकता. बिहार में उत्तर प्रदेश की चुनाव वाली राजनीति ने अभी से जो असर दिखाना शुरू किया है उसका अंतिम परिणाम यूपी की सियासत में कोई बदलाव कर पाएगा यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन बिहार में सियासी बदलाव की कहानी लिख सकता है, जिसकी सियासी चर्चा जरूर जोरों से है.

Last Updated : Jun 12, 2021, 12:53 PM IST
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