देश के विकास और जीवन रेखा की प्रतीक, भारतीय रेल पिछले कुछ समय से परेशानियों से गुजर रही है. केंद्रीय रेल मंत्री, पीयूष गोयल द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि, पिछले 6.5 दशकों से रेलवे के ढांचे में केवल 30% का बदलाव हुआ है, और यह बयान अपने आप में रेलवे के हाल को बताने के लिए काफी है.
कैग की रिपोर्ट में भी रेलवे को चेताया गया था कि वो करीब-करीब अपनी पूरी कमाई, अपने खर्चों को संभालने में ही खर्च कर रही है और रेलवे को अपने खर्चों को दोबारा चिह्नित करने की जरूरत है. अपने स्तर पर, सरकार ने 2030 तक रेलवे को दोबारा पटरी पर लाने के लिए, 50 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया है.
रेलवे में संगठनात्मक बदलाव लाने के मकसद से सरकार ने हाल ही में पूरे रेलवे बोर्ड को दोबारा गठित करने का फैसला किया. बीते साल दिसंबर के पहले हफ्ते में ही रेलवे बोर्ड ने दिल्ली में एक 'परिवर्तन संगोष्ठी' का आयोजन किया. इस सम्मेलन में रेलवे के तमाम वरिष्ठ अधिकारियों ने बैठकर, रेलवे बोर्ड के पुनर्गठन के बारे में मंत्रणा की.
फिलहाल, सभी सेवाओं के बोर्ड में अधिकारी होते हैं, केंद्रीय मंत्रिमंडल की अनुमति के बाद, अब सिर्फ रेलवे सेवाओं के अधिकारी ही बोर्ड को संभालेंगे. इसी तरह, कई विभागों की जगह अब रेलवे में केवल, रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) और मेडिकल यूनिट ही होगी. इसके पीछे तर्क है कि मंत्रालय को ट्रेनों के रख रखाव के लिए इतने सारे विभागों के बीच तालमेल बैठाने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
दरअसल, प्रकाश टंडन कमेटी (1994), राकेश मोहन कमेटी (2001), सैम पित्रोदा कमेटी (2012) और बीबाके देबरॉय कमेटी (2015) द्वारा दिए गए सुझाव कागजों तक ही सीमित होकर रह गये. यह देखना होगा कि अब संचालन में तालमेल बैठाने की नई प्रणाली के बाद किस तरह रेलवे वापस पटरी पर आती है.
यह यकीन करना मुश्किल है कि, 1905 से लेकर अब तक देश के परिवहन, नागरिक, तकनीकी, दूरसंचार सेवा क्षेत्रों पर रेलवे का दबदबा रहा है. 'वंदे भारत एक्सप्रेस' की शुरुआत होने में हुई देरी इस बात का प्रमाण है कि, किस तरह रेलवे के बिजली और तकनीकी विभागों में आपसी तालमेल की बेहद कमी है.
बोर्ड के सदस्यों के निजी हितों को काम के आड़े आने से रोकने के लिए, बोर्ड के सदस्यों की संख्या को आधा करना एक साहसिक कदम है. मानव संसाधन के निदेशक को अब सीधे, बोर्ड के अध्यक्ष को रिपोर्ट करना होगा, जो अब सीईओ की तरह काम करेगा. चार बोर्ड सदस्य सीधे तौर पर, विस्तार, ढांचे, परिवहन और वित्त के लिए जिम्मेदार होंगे.
निजी क्षेत्र की ही तर्ज पर लोगों को अनुभव के आधार पर नौकरी दी जाएगी, इसके साथ ही, प्रमोशन के लिए कार्यकुशलता को वरिष्ठता के ऊपर तरजीह दी जाएगी, यह सभी केंद्र सरकार की तरफ से सकारात्मक संकेत हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ये फैसले, रेलवे के 8000 ग्रेड ए कर्मचारियों पर किस तरह असर डालेंगे. अगर इन सभी बातों को लागू किया जा सका तो आने वाले दिनों में रेलवे के संचालन से जुड़ी कई दिक्कतों के कम होने की उम्मीद की जा सकती है.
यह जगजाहिर बात है कि राजनीतिक दखल के कारण रेल मंत्रालय लंबे समय से पैसे और संसाधनों की बर्बादी के लिए बदनाम हो चुका है. इसके साथ ही यात्रियों के लिए सुविधाएं मुहैया न कराने और उनकी सुरक्षा में ढिलाई के साथ ही रेलवे के अन्य तंत्रों के गलत इस्तेमाल से रेलवे की साख को धक्का लगा था.
संदीप बंदोपाध्याय समिति के आंकड़े बताते हैं कि 1950-2016 के बीच में यात्रियों और माल ढोने में 1,344% और 1,642% का इजाफा हुआ है. वहीं, रेलवे नेटवर्क में इस दौरान 25% से भी कम का इजाफा हुआ है. यह रिपोर्ट रेलवे को लेकर राजनीतिक और आधिकारिक नेतृत्व के नजरिये के बारे में काफी कुछ बताती है.
मोदी सरकार ने दावा किया है कि, रेलवे में किये जाने वाले ढांचागत बदलावों के बाद, 2023 तक पूरे रेलवे नेटवर्क का बिजलीकरण कर दिया जाएगा. सरकार का यह भी दावा है कि, अप्रैल 2020 से रेलवे में एक नई सिग्नलिंग प्रणाली शुरू कर दी जाएगी.
अमेरिका, चीन और रूस के बाद भारत का विश्व में सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है, जहां यह सभी देश तकनीक और सुविधाओं के रिकॉर्ड बनाते रहते हैं, भारतीय रेल की कई योजनाएं सुबह का सूरज नहीं देख पाती हैं. भारतीय रेल में अब भी नए डिजाइन और सख्त कंट्रोल कमांड की कमी है.
मोदी सरकार ने लोगों से वादा किया है कि विकास के पहियों को वैज्ञानिक तकनीक से और तेज रफ्तार दी जाएगी. अगर भारत सरकार रेलवे की कार्यप्रणाली और क्षमता में बदलाव ला सकी तो यह देश के सामजिक और आर्थिक विकास के लिए काफी बड़ा कदम साबित होगा.
अगर रेलवे के कार्यों में और ज्यादा पारदर्शिता और कुशलता भी लाई जाएगी तो रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन रेलवे के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा. इससे यकीकन पटरी से उतरी भारतीय रेल वापस पटरी पर आ सकेगी.