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विशेष लेख : ईरान और अमेरिका को नाराज नहीं करना चाहता भारत - ईरान में हमला

राष्ट्रपति ट्रंप के इशारे पर बगदाद में अमेरिकी ड्रोन हमले में ईरानी सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी की मौत के बाद ईरान की सरकार ने इसका बदला लेने की कसम खाई थी. ऐसे में अमेरिका-ईरान के बीच संघर्ष बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. ऐसे में भारत वस्तुतः ईरान और अमेरिका, दोनों को ही नाराज नहीं करना चाहता और यही वजह है कि भारत ने ईरानी जनरल की मौत की निंदा किये बिना उसे स्वीकार किया. इससे अमेरिका जरूर खुश होगा, लेकिन तेहरान में इस रुख को खास पसंद नहीं किया जाएगा. वो भी तब, जब ईरान ने चाबहार के शाहिद बेहेस्ती बंदरगाह के संचालन के लिए भारत को 10 साल का हक दे रखा है.

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ट्रंप, मोदी, रूहानी
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Published : Jan 8, 2020, 10:25 PM IST

पिछले शुक्रवार को अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के इशारे पर, बगदाद में अमेरीकी ड्रोन हमले में ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद ईरान की सरकार ने उनकी मौत का बदला लेने की कसम खा ली है.

सुलेमानी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी मौत ऐसे होगी. 22 साल पहले सुलेमानी ने जब ईरान की रेवोल्यूशनरी गार्ड के अल कुर्द्स की कमान संभाली थी, तभी से वो निशाने पर थे. इससे पहले भी कई बार उनपर हमले हुए थे. ऐसा लगता था कि उन्हें अपने दुश्मनों से बचाव हासिल था.

अमेरिका द्वारा इराक पर हमले और ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के बाद भी सुलेमानी पर अमेरिका से कोई खतरा नहीं रहा. सुलेमानी की हत्या के पीछे के कारणों के बारे में साफतौर पर कहने में समय लगेगा, लेकिन इतना तय है कि सुलेमानी के जाने से ईरान और कई देशों के बीच के रिश्ते बदल जाएंगे.

इसमें भारत भी कोई अपवाद नहीं है. भारत ने ईरान को हमेशा ही अपने करीबी सहयोगी की तरह देखा है. ईरान के दक्षिण पूर्व में मौजूद चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए भारत आर्थिक और तकनीकी मदद कर रहा है. इन हालातों में भारत के सामने यह पहेली बनी हुई है कि इस माहौल पर वह क्या रुख ले.

भारत वस्तुतः ईरान और अमेरिका, दोनों को ही नाराज नहीं करना चाहता और इसीलिए भारत ने ईरान के जनरल की मौत की निंदा किए बिना उसे स्वीकार किया. इससे अमेरिका जरूर खुश होगा, लेकिन तेहरान में इस रुख को खास पसंद नहीं किया जाएगा. वो भी तब, जब ईरान ने चाबहार के शाहिद बेहेस्ती बंदरगाह के संचालन के लिए भारत को 10 साल का हक दे रखा है.

पढ़ें : अमेरिका के मुकाबले किस हद तक मजबूत है ईरान की सैन्य ताकत, जानें

वहीं, चीन भी, जिसने करीबी पाकिस्तान के बलूची बंदरगाह के विकास के लिए भारी रकम खर्च की है, चाबहार को विकसित करने में दिलचस्पी दिखा रहा था, लेकिन ईरान ने अपने सामरिक कारणों के चलते इसके लिए भारत से साझेदारी की. ईरान का यह बंदरगाह ओमान के समुद्र में स्थित है और यह भारत द्वारा पहला विदेशी निवेश है. इसके साथ ही इस बंदरगाह से भारत मध्य एशिया में पहुंचाने के लिए पाकिस्तान को दरकिनार करने में कामयाब हुआ है.

चाबहार बंदरगाह लंबे समय से कई देशों की दिलचस्पी का मुद्दा रहा है. जार के रूस के समय से, रूस यहां एक बंदरगाह के निर्माण के लिए इच्छुक था, और इतिहासकार अल बेरूनी की लिखाई में, चाबहार को भारत के शुरू होने का बिंदु कहा गया है. इसलिए इस शहर में भारत का निवेश सबसे मुफ़ीद था.

इस शहर के दौरे के दौरान यह साफ दिखा कि वहां के लोग हिन्दुस्तानी जुबान को बिना तकलीफ बोल रहे हैं और वहां भारत के आने का स्वागत कर रहे हैं. ईरान के राजनयिक भी, पाकिस्तान से नजदीक इस सीमा पर भारत की उपस्थिति की वकालत करते आ रहे हैं. पाकिस्तान द्वारा जासूसी के आरोप में गिरफ्तार, कुलभूषण जाधव को भी पाकिस्तान ने चाबहार बंदरगाह से ही गिरफ्तार किया था.

चाबहार परियोजना के दो पहलू हैं - बंदरगाह और रेल-रोड नेटवर्क, जो बंदरगाह को ईरान और अफगानिस्तान के शहरों से जोड़ता है. 2016 में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस समझौते पर दस्तखत किए थे. इस समझौते को इस सिद्धांत पर किया गया था कि पी 5+1 देशों के साथ ईरान की परमाणु संधियों के चलते, ईरान दुनिया के अन्य देशों के साथ व्यापारिक और आर्थिक साझेदारी शुरू कर सकेगा.

पढ़ें : अमेरिका के साथ खड़ा है इजरायल, नेतन्याहू बोले- नरसंहार का वास्तुकार था सुलेमानी

इस तथ्य पर भी उस वक्त ग्रहण लग गया, जब अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता में आए. उन्होंने इस संधि से अपने हाथ खींच लिए और ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिए. प्रतिबंधों के कारण, बैंकों ने ईरान में काम करने से मना कर दिया और इस कारण, भारत बंदरगाह और सड़क का निर्माण तय गति से करने में असमर्थ हो गया. भारत को ईरान के साथ इस समझौते को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया की ज्यादा चिंता सताने लगी.

अफगानिस्तान के विकास में चाबहार की भूमिका के कारण, अमेरिका ने इसे प्रतिबंधों से बाहर रखा है, लेकिन इससे भारत की समस्याओं का अंत नहीं हुआ. हाल ही में अमेरिका में हुई 2+2 वार्ता के दौरान, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिका से 85 मिलियन डॉलर के उपकरण की खरीद के लिए लिखित करार किए हैं. भारत ने व्यापार की संख्या बढ़ाने के लिए चाबहार के साथ अन्य और बंदरगाहों को विकसित करने भी बात कही है. यह कुछ हफ्ते पहले की बात थी.

पिछले शुक्रवार को अमेरिका द्वारा कासिम सुलेमानी को मार गिराने के बाद से ही सभी व्यापारिक संधियां और करार शक के घेरे में आ गए हैं. ईरान के अपने लोकप्रिय जनरल की मौत का बदला लेने की कसम के बाद, भारत ईरान से अपने समझौतो पर किस तरह काम करेगा, यह किसी को नहीं पता. जनरल सुलेमानी एक लोकप्रिय सैन्य अधिकारी थे. उनकी इंस्टाग्राम प्रोफाइल और उसके फालोअर इस बात की तस्दीक करते हैं.

पढे़ं : सदी के उच्चतम स्तर पर पहुंचा भूराजनीतिक तनाव : UN चीफ

इराक, सीरिया और अन्य जगहों पर इस्लामिक स्टेट की हार का सेहरा सुलेमानी के सर बांधा जाता है. इस बारे में कोई शक नहीं है कि सुलेमानी ने इराक में इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का सहयोग किया था. भारतीय खुफिया तंत्र के वरिष्ठ अधिकारी, सुलेमानी की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका को याद करते है. बड़ी आंखों वाले सुलेमानी, ज्यादा नहीं बोलते थे, लेकिन सुनते और सीखते बहुत थे.

सुलेमानी भारत भी आए थे. अब राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि सुलेमानी दिल्ली तक में गतिविधियों में शामिल थे. इस रोशनी में इजराइली राजनयिक पर हमले का मामला याद आता है, जिसकी शक की सूई ईरान की तरफ गई थी. इसके लिए एक पत्रकार को गिरफ्तार किया गया था. सुलेमानी को दिल्ली से जोड़कर, ट्रंप चाहते हैं कि भारत तेहरान का साथ छोड़ दे.

ट्रंप साफ तौर पर चाहते हैं कि भारत अपना पक्ष चुने और मध्यम मार्ग पर न रहे. और अगर ट्रंप की बातों में सच्चाई है तो भारत चाबहार में अपनी साझेदारी जारी रखने में काफी असहजता महसूस करेगा. विश्व समुदाय द्वारा सुलेमाननी की हत्या को गैरकानूनी करार दिया गया है और अगर ऐसे में ईरान उनकी मौत का बदला लेता है तो भारत के लिए एक पक्ष चुनने के अलावा शायद कोई विकल्प न रहे.

(लेखक-संजय कपूर)

पिछले शुक्रवार को अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के इशारे पर, बगदाद में अमेरीकी ड्रोन हमले में ईरान के जनरल कासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद ईरान की सरकार ने उनकी मौत का बदला लेने की कसम खा ली है.

सुलेमानी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी मौत ऐसे होगी. 22 साल पहले सुलेमानी ने जब ईरान की रेवोल्यूशनरी गार्ड के अल कुर्द्स की कमान संभाली थी, तभी से वो निशाने पर थे. इससे पहले भी कई बार उनपर हमले हुए थे. ऐसा लगता था कि उन्हें अपने दुश्मनों से बचाव हासिल था.

अमेरिका द्वारा इराक पर हमले और ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के बाद भी सुलेमानी पर अमेरिका से कोई खतरा नहीं रहा. सुलेमानी की हत्या के पीछे के कारणों के बारे में साफतौर पर कहने में समय लगेगा, लेकिन इतना तय है कि सुलेमानी के जाने से ईरान और कई देशों के बीच के रिश्ते बदल जाएंगे.

इसमें भारत भी कोई अपवाद नहीं है. भारत ने ईरान को हमेशा ही अपने करीबी सहयोगी की तरह देखा है. ईरान के दक्षिण पूर्व में मौजूद चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए भारत आर्थिक और तकनीकी मदद कर रहा है. इन हालातों में भारत के सामने यह पहेली बनी हुई है कि इस माहौल पर वह क्या रुख ले.

भारत वस्तुतः ईरान और अमेरिका, दोनों को ही नाराज नहीं करना चाहता और इसीलिए भारत ने ईरान के जनरल की मौत की निंदा किए बिना उसे स्वीकार किया. इससे अमेरिका जरूर खुश होगा, लेकिन तेहरान में इस रुख को खास पसंद नहीं किया जाएगा. वो भी तब, जब ईरान ने चाबहार के शाहिद बेहेस्ती बंदरगाह के संचालन के लिए भारत को 10 साल का हक दे रखा है.

पढ़ें : अमेरिका के मुकाबले किस हद तक मजबूत है ईरान की सैन्य ताकत, जानें

वहीं, चीन भी, जिसने करीबी पाकिस्तान के बलूची बंदरगाह के विकास के लिए भारी रकम खर्च की है, चाबहार को विकसित करने में दिलचस्पी दिखा रहा था, लेकिन ईरान ने अपने सामरिक कारणों के चलते इसके लिए भारत से साझेदारी की. ईरान का यह बंदरगाह ओमान के समुद्र में स्थित है और यह भारत द्वारा पहला विदेशी निवेश है. इसके साथ ही इस बंदरगाह से भारत मध्य एशिया में पहुंचाने के लिए पाकिस्तान को दरकिनार करने में कामयाब हुआ है.

चाबहार बंदरगाह लंबे समय से कई देशों की दिलचस्पी का मुद्दा रहा है. जार के रूस के समय से, रूस यहां एक बंदरगाह के निर्माण के लिए इच्छुक था, और इतिहासकार अल बेरूनी की लिखाई में, चाबहार को भारत के शुरू होने का बिंदु कहा गया है. इसलिए इस शहर में भारत का निवेश सबसे मुफ़ीद था.

इस शहर के दौरे के दौरान यह साफ दिखा कि वहां के लोग हिन्दुस्तानी जुबान को बिना तकलीफ बोल रहे हैं और वहां भारत के आने का स्वागत कर रहे हैं. ईरान के राजनयिक भी, पाकिस्तान से नजदीक इस सीमा पर भारत की उपस्थिति की वकालत करते आ रहे हैं. पाकिस्तान द्वारा जासूसी के आरोप में गिरफ्तार, कुलभूषण जाधव को भी पाकिस्तान ने चाबहार बंदरगाह से ही गिरफ्तार किया था.

चाबहार परियोजना के दो पहलू हैं - बंदरगाह और रेल-रोड नेटवर्क, जो बंदरगाह को ईरान और अफगानिस्तान के शहरों से जोड़ता है. 2016 में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस समझौते पर दस्तखत किए थे. इस समझौते को इस सिद्धांत पर किया गया था कि पी 5+1 देशों के साथ ईरान की परमाणु संधियों के चलते, ईरान दुनिया के अन्य देशों के साथ व्यापारिक और आर्थिक साझेदारी शुरू कर सकेगा.

पढ़ें : अमेरिका के साथ खड़ा है इजरायल, नेतन्याहू बोले- नरसंहार का वास्तुकार था सुलेमानी

इस तथ्य पर भी उस वक्त ग्रहण लग गया, जब अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता में आए. उन्होंने इस संधि से अपने हाथ खींच लिए और ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिए. प्रतिबंधों के कारण, बैंकों ने ईरान में काम करने से मना कर दिया और इस कारण, भारत बंदरगाह और सड़क का निर्माण तय गति से करने में असमर्थ हो गया. भारत को ईरान के साथ इस समझौते को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया की ज्यादा चिंता सताने लगी.

अफगानिस्तान के विकास में चाबहार की भूमिका के कारण, अमेरिका ने इसे प्रतिबंधों से बाहर रखा है, लेकिन इससे भारत की समस्याओं का अंत नहीं हुआ. हाल ही में अमेरिका में हुई 2+2 वार्ता के दौरान, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिका से 85 मिलियन डॉलर के उपकरण की खरीद के लिए लिखित करार किए हैं. भारत ने व्यापार की संख्या बढ़ाने के लिए चाबहार के साथ अन्य और बंदरगाहों को विकसित करने भी बात कही है. यह कुछ हफ्ते पहले की बात थी.

पिछले शुक्रवार को अमेरिका द्वारा कासिम सुलेमानी को मार गिराने के बाद से ही सभी व्यापारिक संधियां और करार शक के घेरे में आ गए हैं. ईरान के अपने लोकप्रिय जनरल की मौत का बदला लेने की कसम के बाद, भारत ईरान से अपने समझौतो पर किस तरह काम करेगा, यह किसी को नहीं पता. जनरल सुलेमानी एक लोकप्रिय सैन्य अधिकारी थे. उनकी इंस्टाग्राम प्रोफाइल और उसके फालोअर इस बात की तस्दीक करते हैं.

पढे़ं : सदी के उच्चतम स्तर पर पहुंचा भूराजनीतिक तनाव : UN चीफ

इराक, सीरिया और अन्य जगहों पर इस्लामिक स्टेट की हार का सेहरा सुलेमानी के सर बांधा जाता है. इस बारे में कोई शक नहीं है कि सुलेमानी ने इराक में इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का सहयोग किया था. भारतीय खुफिया तंत्र के वरिष्ठ अधिकारी, सुलेमानी की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका को याद करते है. बड़ी आंखों वाले सुलेमानी, ज्यादा नहीं बोलते थे, लेकिन सुनते और सीखते बहुत थे.

सुलेमानी भारत भी आए थे. अब राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि सुलेमानी दिल्ली तक में गतिविधियों में शामिल थे. इस रोशनी में इजराइली राजनयिक पर हमले का मामला याद आता है, जिसकी शक की सूई ईरान की तरफ गई थी. इसके लिए एक पत्रकार को गिरफ्तार किया गया था. सुलेमानी को दिल्ली से जोड़कर, ट्रंप चाहते हैं कि भारत तेहरान का साथ छोड़ दे.

ट्रंप साफ तौर पर चाहते हैं कि भारत अपना पक्ष चुने और मध्यम मार्ग पर न रहे. और अगर ट्रंप की बातों में सच्चाई है तो भारत चाबहार में अपनी साझेदारी जारी रखने में काफी असहजता महसूस करेगा. विश्व समुदाय द्वारा सुलेमाननी की हत्या को गैरकानूनी करार दिया गया है और अगर ऐसे में ईरान उनकी मौत का बदला लेता है तो भारत के लिए एक पक्ष चुनने के अलावा शायद कोई विकल्प न रहे.

(लेखक-संजय कपूर)

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पिछले शुक्रवार, अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के इशारे पर, बग़दाद में अमरीकी ड्रोन हमले में ईरान के जनरल क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद, ईरान की सरकार ने उनकी मौत क बदला लेने की क़सम खा ली है. 

सुलेमानी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी मौत ऐसे होगी. 22 साल पहले सुलेमानी ने जब ईरान की रेवोल्यूशनरी गार्ड के अल क़ुद की कमान सँभाली थी, तभी से वो निशाने पर थे. इससे पहले भी कई बार उनकी जान पर हमले हुए थे. ऐसा लगता था कि उन्हें अपने दुश्मनों से बचाव हासिल था.



अमेरिका द्वार इराक़ पर हमले और ऑपरशन डेसेर्ट स्टॉर्म के बाद भी सुलेमानी पर अमेरिका से कोई ख़तरा नहीं रहा. सुलेमानी की हत्या के पीछे के कारणों के बारे में साफ़तौर पर कहने में समय लगेगा, लेकिन इतना तय है कि सुलेमानी के जाने से ईरान और कई देशों के बीच के रिश्ते बदल जायेंगे. 



इसमें भारत भी कोई अपवाद नहीं है. भारत ने ईरान को हमेशा ही अपने करीबी सहयोगी की तरह देखा है. ईरान के दक्षिण पूर्व में मौजूद, चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिये, भारत आर्थिक और तकनीकी मदद कर रहा है. इन हालातों में भारत के सामने इस माहौल पर क्या रुख़ ले, यह पहेली बनी हुई है. 



भारत ईरान और अमेरिका, दोनों को ही नाराज़ नहीं करना चाहता है, और इसलिये ही, भारत ने ईरान के जनरल की मौत की निंदा किये बिना उसे स्वीकार किया. इससे अमेरिका ज़रूर खुश होगा, लेकिन तेहरान में इस रुख को ख़ास पसंद नहीं किया जायेगा, वो भी तब जब ईरान ने, चाबहार के शाहिद बेहेस्ती बंदरगाह के संचालन के लिये भारत को 10 साल का हक दे रखा है. 



वहीं, चीन जिसने करीबी पाकिस्तान के बलूची बंदरगाह के विकास के लिये भारी रक़म खर्च करी है, चाबहार को विकसित करने में भी दिलचस्पी दिखा रहा था, लेकिन ईरान ने अपने सामरिक कारणों के चलते, इसके लिये भारत से साझेदारी की. ईरान का यह बंदरगाह,  ओमान के समुद्र में स्थित है, और यह भारत द्वारा पहला विदेशी निवेश है. इसके साथ ही इस बंदरगाह से भारत मध्य एशिया में पहुंचाने के लिये पाकिस्तान को दरकिनार करने में कामयाब हुआ है.       



चाबहार बंदरगाह लंबे समय से कई देशों की दिलचस्पी का मुद्दा रहा है. जार के रूस के समय से, रूस यहाँ एक बंदरगाह के निर्माण के लिये इच्छुक था, और इतिहासकार अल बेरूनी की लिखाई में, चाबहार को भारत के शुरू होने का बिंदु कहा गया है. इसलिये, इस शहर में भारत का निवेश सबसे मुफ़ीद था. 



इस शहर के दौरे के दौरान, यह साफ़ दिखा कि वहां के लोग हिंदुस्तानी जुबान को बिना तकलीफ़ बोल रहे हैं और वहां भारत के आने का स्वागत कर रहे हैं. ईरान के राजनयिक भी, पाकिस्तान से नज़दीक इस सीमा पर भारत की उपस्थिति की वकालत करते आ रहे हैं. पाकिस्तान द्वारा जासूसी के आरोप में गिरफ्तार, कुलभूषण जाधव को भी पाकिस्तान ने चाबहार बंदरगाह से ही गिरफ्तार किया था.     



चाबहार परियोजना के दो पहलू हैं. बंदरगाह और रेल और रोड नेटवर्क, जो बंदरगाह को ईरान और अफ्गानिस्तान के शहरों से जोड़ता है. 2016 में, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ घनी ने इस समझौते पर दस्तख़त किये थे. इस समझौते को इस सिध्दांत पर किया गया था कि, पी 5+1 देशों के साथ ईरान की परमाणु संधियों के चलते, ईरान दुनिया के अन्य देशों के साथ व्यापारिक और आर्थिक साझेदारी शुरू कर सकेगा.



इस तथ्य पर भी उस वक़्त ग्रहण लग गया, जब अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप सत्ता में आये और उन्होंने इस संधि से अपने हाथ खींच लिये और ईरान पर दोबारा प्रतिबंध लगा दिये. प्रतिबंधों के कारण, बैंकों ने ईरान में काम करने से मना कर दिया और इस कारण, भारत बंदरगाह और सड़क का निर्माण तय गति से करने में असमर्थ हो गया. भारत को ईरान के साथ इस समझौते को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया की ज़्यादा चिंता सताने लगी. 



अफ़ग़ानिस्तान के विकास में चाबहार की भूमिका के कारण, अमेरिका ने इसे प्रतिबंधों से बाहर रखा है, लेकिन इससे भारत की समस्याओं का अंत नहीं हुआ. हाल ही में अमेरिका में हुई 2+2 वार्ता के दौरान, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका से 85 मिलियन डॉलर के उपकरण की ख़रीद के लिये लिखित करार किये हैं. भारत ने व्यापार की संख्या बढ़ाने के लिये चाबहार के साथ अन्य और बंदरगाहों को विकसित करने भी बात कही है. यह कुछ हफ्ते पहले की बात थी.    



पिछले शुक्रवार को अमेरिका द्वारा क़ासिम सुलेमानी को मार गिराने के बाद से ही, सभी व्यापारिक संधियाँ और करार शक के घेरे में आ गये हैं. ईरान के अपने लोकप्रिय जनरल की मौत का बदला लेने की क़सम के बाद, भारत ईरान से अपने समझौतों पर किस तरह काम करेगा यह किसी को नहीं पता. जनरल सुलेमानी एक लोकप्रिय सैन्य अधिकारी थे. उनकी इंस्टाग्राम प्रोफ़ाइल और उसके फ़ॉलोअर इस बात की तस्दीक़ करते हैं. 



इराक़, सीरिया और अन्य जगहों पर इस्लामिक स्टेट की हार का सेहरा सुलेमानी के सर बांधा जाता है.  इस बारे में कोई शक नहीं है कि, सुलेमानी ने इराक़ में इस्लामिक स्टेट और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमेरिका का सहयोग किया था. भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र के वरिष्ठ अधिकारी, सुलेमानी की अफ़ग़ानिस्तान में बड़ी भूमिका को याद करते है. बड़ी आंखों वाले सुलेमानी, ज़्यादा नहीं बोलते थे, लेकिन सुनते और सीखते बहुत थे. 



सुलेमानी भारत भी आये थे. अब राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि सुलेमानी दिल्ली तक में गतिविधियों में शामिल थे. इस रोशनी में इज़राइली राजनयिक पर हमले का मामला याद आता है, जिसकी शक की सूई ईरान की तरफ़ गई थी. इसके लिये एक पत्रकार को गिरफ्तार किया गया था. सुलेमानी को दिल्ली से जोड़कर, ट्रंप चाहते हैं कि भारत तेहरान का साथ छोड़ दे. 



ट्रंप साफ़ तौर पर चाहते हैं कि भारत अपना पक्ष चुने और मध्यम मार्ग पर न रहे. और अगर ट्रंप की बातों में सच्चाई है तो भारत चाबहार में अपनी साझेदारी जारी रखने में काफ़ी असहजता महसूस करेगा. विश्व समुदाय द्वारा सुलेमाननी की हत्या को ग़ैरक़ानूनी करार दिया गया है और अगर ऐसे में ईरान उनकी मौत का बदला लेता है तो भारत के लिये एक पक्ष चुनने के अलावा शायद कोई विकल्प न रहे.



(लेखक-संजय कपूर)


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