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नए राजनीतिक दलों की भूमिका उपस्थिति दर्ज कराने तक सीमित

बिहार में चुनाव आते ही नए राजनीतिक दल प्रमुख राजनीतिक दलों को चुनौती देने सामने आ जाते हैं. इन दलों में से अधिकांश जाति आधारित होते हैं और वे जाति और समुदाय विशेष के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश करते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में इनकी भूमिका पर पढ़ें ईटीवी भारत के ब्यूरो चीफ अमित भेलारी की रिपोर्ट...

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बिहार विधानसभा चुनाव
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Published : Sep 29, 2020, 4:41 PM IST

पटना : बिहार में चुनाव आते ही नए राजनीतिक दल प्रमुख राजनीतिक दलों को चुनौती देने सामने आ जाते हैं. इन दलों में से अधिकांश जाति आधारित होते हैं और वे जाति और समुदाय विशेष के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश करते हैं. हालांकि, उनकी उपस्थिति बिहार चुनाव पर मुश्किल से असर डालती है. इस बार भी बिहार चुनाव लड़ने की घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों में से कइयों का अब तक विधानसभा में खाता तक नहीं खुला है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मत है कि चुनाव के दौरान नए दलों के आगमन के पीछे मुख्य कारण वोटों में सेंध लगाना और स्थापित राजनीतिक दलों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है.

पता है जमानत राशि जब्त होगी, फिर भी लड़ना चाहते हैं चुनाव

कई नए दल इस विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं. इनमें आजाद समाज पार्टी (एएसपी), सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई), बहुजन मुक्ति पार्टी (बीएमपी), जनता दल (राष्ट्रवादी) पार्टी, जनतांत्रिक पार्टी, जनता दल (नेशनलिस्ट), राष्ट्रीय अधिकार पार्टी, संयुक्त किसान विकास पार्टी, जागो हिंदुस्तान पार्टी और कई अन्य शामिल हैं. कुछ को छोड़कर नई पार्टियों का गठन करने वाले अधिकांश नेताओं का कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं है. अधिकतर को पता है कि चुनाव में उनकी जमा राशि भी जब्त कर ली जाएगी. फिर भी चुनाव लड़ना चाहते हैं. यह चुनाव के दौरान एक दुकान खोलने जैसा है. मतदान के बाद वे अदृश्य हो जाते हैं. हालांकि, कुछ राजनीति में लंबी पारी खेलना चाहते हैं और चुनाव के बाद भी वे अपना राजनीतिक काम जारी रखते हैं.

नए राजनीतिक दलों का वोट शेयर 2 प्रतिशत से भी कम

विशेषज्ञों का मानना ​​है कि ऐसे राजनीतिक दलों को वोट कटुवा माना जाता है. यहां तक ​​कि मतदाता भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं. एक नए उम्मीदवार के लिए एक नए राजनीतिक दल के बैनर तले चुनाव जीतना बहुत कठिन है. कभी-कभी व्यक्तित्व मायने रखता है, लेकिन उन्हें लंबे समय तक संघर्ष कर खुद को साबित करना पड़ता है. कई मामलों में स्थापित राजनीतिक दलों को लगता है कि नया उम्मीदवार उसे नुकसान पहुंचा सकता है, तो वे उम्मीदवारी वापस लेने के लिए मजबूत उम्मीदवारों को रुपये भी देते हैं. आंकड़े बताते हैं कि चुनाव के समय आने वाले नए राजनीतिक दलों का वोट शेयर 2 प्रतिशत से भी कम है. नए बैनर के तहत चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों ने शायद ही कभी जीत हासिल की हो. हालांकि, कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं, जो चुनाव के बाद भी सक्रिय रहते हैं.

राजनीति में छाप छोड़ने के लिए इंतजार करना पड़ेगा

पांच कार्यकाल वाले सांसद पप्पू यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में 150 से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सके. यह साबित करता है कि मतदाता नए और पुराने राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच अंतर करने के योग्य हैं. इसी तरह, मुकेश साहनी की अगुवाई वाली विकास इंसान पार्टी (वीआईपी) को अभी भी बिहार की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. भले ही उन्होंने निषाद समुदाय के नेता के रूप में बहुत कम समय में खुद को स्थापित किया हो. 2019 के लोक सभा चुनाव में वीआईपी तीन सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन एक भी सीट नहीं जीती. कुछ उम्मीदवार विकास के मुद्दों के साथ आते हैं. ऐसा ही एक उदाहरण पुष्पम प्रिया चौधरी की पार्टी है, जिसने विकास के मुद्दे पर राजनीति में प्रवेश किया है. वह स्वयं घोषित सीएम उम्मीदवार भी हैं.

जुनूनी उम्मीदवारों से पैसे ऐंठने का एक साधन

राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार बिहार में 156 पंजीकृत राजनीतिक दल और चार मान्यता प्राप्त पार्टियां हैं. इनमें जदयू, राजद, आरएलएसपी और एलजेपी शामिल हैं, जिनका मुख्यालय पटना में है. दिलचस्प बात यह है कि हर बार चुनाव लड़ना और बार-बार हारना प्रत्याशियों को निराश नहीं करता. कई ऐसे उम्मीदवार हैं, जो चुनाव लड़ने की खातिर हर चुनाव लड़ते हैं. यह भी एक तथ्य है कि नए राजनीतिक दलों को बिहार में कोई पूछने वाला नहीं है. कभी-कभी ऐसी पार्टियां जुनूनी उम्मीदवारों से पैसे ऐंठने का एक साधन बन जाती हैं, जो किसी भी कीमत पर चुनाव लड़ना चाहते हैं.

पटना : बिहार में चुनाव आते ही नए राजनीतिक दल प्रमुख राजनीतिक दलों को चुनौती देने सामने आ जाते हैं. इन दलों में से अधिकांश जाति आधारित होते हैं और वे जाति और समुदाय विशेष के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश करते हैं. हालांकि, उनकी उपस्थिति बिहार चुनाव पर मुश्किल से असर डालती है. इस बार भी बिहार चुनाव लड़ने की घोषणा करने वाले राजनीतिक दलों में से कइयों का अब तक विधानसभा में खाता तक नहीं खुला है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मत है कि चुनाव के दौरान नए दलों के आगमन के पीछे मुख्य कारण वोटों में सेंध लगाना और स्थापित राजनीतिक दलों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है.

पता है जमानत राशि जब्त होगी, फिर भी लड़ना चाहते हैं चुनाव

कई नए दल इस विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने जा रहे हैं. इनमें आजाद समाज पार्टी (एएसपी), सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई), बहुजन मुक्ति पार्टी (बीएमपी), जनता दल (राष्ट्रवादी) पार्टी, जनतांत्रिक पार्टी, जनता दल (नेशनलिस्ट), राष्ट्रीय अधिकार पार्टी, संयुक्त किसान विकास पार्टी, जागो हिंदुस्तान पार्टी और कई अन्य शामिल हैं. कुछ को छोड़कर नई पार्टियों का गठन करने वाले अधिकांश नेताओं का कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं है. अधिकतर को पता है कि चुनाव में उनकी जमा राशि भी जब्त कर ली जाएगी. फिर भी चुनाव लड़ना चाहते हैं. यह चुनाव के दौरान एक दुकान खोलने जैसा है. मतदान के बाद वे अदृश्य हो जाते हैं. हालांकि, कुछ राजनीति में लंबी पारी खेलना चाहते हैं और चुनाव के बाद भी वे अपना राजनीतिक काम जारी रखते हैं.

नए राजनीतिक दलों का वोट शेयर 2 प्रतिशत से भी कम

विशेषज्ञों का मानना ​​है कि ऐसे राजनीतिक दलों को वोट कटुवा माना जाता है. यहां तक ​​कि मतदाता भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं. एक नए उम्मीदवार के लिए एक नए राजनीतिक दल के बैनर तले चुनाव जीतना बहुत कठिन है. कभी-कभी व्यक्तित्व मायने रखता है, लेकिन उन्हें लंबे समय तक संघर्ष कर खुद को साबित करना पड़ता है. कई मामलों में स्थापित राजनीतिक दलों को लगता है कि नया उम्मीदवार उसे नुकसान पहुंचा सकता है, तो वे उम्मीदवारी वापस लेने के लिए मजबूत उम्मीदवारों को रुपये भी देते हैं. आंकड़े बताते हैं कि चुनाव के समय आने वाले नए राजनीतिक दलों का वोट शेयर 2 प्रतिशत से भी कम है. नए बैनर के तहत चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों ने शायद ही कभी जीत हासिल की हो. हालांकि, कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं, जो चुनाव के बाद भी सक्रिय रहते हैं.

राजनीति में छाप छोड़ने के लिए इंतजार करना पड़ेगा

पांच कार्यकाल वाले सांसद पप्पू यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में 150 से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सके. यह साबित करता है कि मतदाता नए और पुराने राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच अंतर करने के योग्य हैं. इसी तरह, मुकेश साहनी की अगुवाई वाली विकास इंसान पार्टी (वीआईपी) को अभी भी बिहार की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने के लिए इंतजार करना पड़ेगा. भले ही उन्होंने निषाद समुदाय के नेता के रूप में बहुत कम समय में खुद को स्थापित किया हो. 2019 के लोक सभा चुनाव में वीआईपी तीन सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन एक भी सीट नहीं जीती. कुछ उम्मीदवार विकास के मुद्दों के साथ आते हैं. ऐसा ही एक उदाहरण पुष्पम प्रिया चौधरी की पार्टी है, जिसने विकास के मुद्दे पर राजनीति में प्रवेश किया है. वह स्वयं घोषित सीएम उम्मीदवार भी हैं.

जुनूनी उम्मीदवारों से पैसे ऐंठने का एक साधन

राज्य निर्वाचन आयोग के अनुसार बिहार में 156 पंजीकृत राजनीतिक दल और चार मान्यता प्राप्त पार्टियां हैं. इनमें जदयू, राजद, आरएलएसपी और एलजेपी शामिल हैं, जिनका मुख्यालय पटना में है. दिलचस्प बात यह है कि हर बार चुनाव लड़ना और बार-बार हारना प्रत्याशियों को निराश नहीं करता. कई ऐसे उम्मीदवार हैं, जो चुनाव लड़ने की खातिर हर चुनाव लड़ते हैं. यह भी एक तथ्य है कि नए राजनीतिक दलों को बिहार में कोई पूछने वाला नहीं है. कभी-कभी ऐसी पार्टियां जुनूनी उम्मीदवारों से पैसे ऐंठने का एक साधन बन जाती हैं, जो किसी भी कीमत पर चुनाव लड़ना चाहते हैं.

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