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फाइल पर बैठने वाले अधिकारियों पर कभी कार्रवाई नहीं होती : उच्चतम न्यायालय - न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी

सरकारी प्राधिकारियों द्वारा अपील दायर करने में विलंब के अनवरत सिलसिले की निन्दा करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यह विडंबना ही है कि फाइल पर बैठने वाले अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं होती. पढ़ें रिपोर्ट.

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उच्चतम न्यायालय
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Published : Dec 22, 2020, 10:59 PM IST

नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने बार बार अप्रसन्नता व्यक्त करने के बावजूद सरकारी प्राधिकारियों द्वारा अपील दायर करने में विलंब के अनवरत सिलसिले की निन्दा करते हुए कहा है कि यह विडंबना ही है कि फाइल पर बैठने वाले अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं होती.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने बंबई उच्च न्यायालय के पिछले साल फरवरी के आदेश के खिलाफ उप वन संरक्षक की अपील खारिज करते हुए विलंब से अपील दायर करने के रवैये की निन्दा की. यही नहीं, पीठ ने न्यायिक समय बर्बाद करने के लिये याचिकाकर्ता पर 15,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया.

पीठ ने अपने आदेश में कहा कि यह विडंबना ही है कि बार-बार कहने के बावजूद फाइल पर बैठने और कुछ नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

पढ़ें-भविष्य में देश का नेतृत्व करेंगे उद्धव ठाकरे : शिवसेना

पीठ ने कहा कि इस मामले में तो अपील 462 दिन के विलंब से दायर की गई और इस बार भी इसकी वजह अधिवक्ता की बदला जाना बताई गई है. हमने सिर्फ औपचारिकता के लिये इस न्यायालय आने के बार बार राज्य सरकारों के इस तरह के प्रयासों की निन्दा की है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकारी प्राधिकारी इस न्यायालय में विलंब से अपील इस तरह दाखिल करते हैं जैसे कानून में निर्धारित समय सीमा उनके लिए नहीं है.

पीठ ने कहा कि विशेष अनुमति याचिका 462 दिन के विलंब से दायर की गई है. यह एक और ऐसा ही मामला है, जिसे हमने सिर्फ औपचारिकता पूरी करने और वादकारी का बचाव करने में लगातार लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को बचाने के लिए इस न्यायालय में दायर होने वाले प्रमाणित मामलों की श्रेणी में रखा है.

शीर्ष अदालत ने इसी साल अक्टूबर में ऐसे ही एक मामले में सुनाए गए फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि उसने प्रमाणित मामलों को परिभाषित किया है, जिसका मकसद प्रकरण को इस टिप्पणी के साथ बंद करना होता है कि इसमें कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि शीर्ष अदालत ने अपील खारिज कर दी है.

याचिकाकर्ता के वकील ने जब यह दलील दी कि यह बेशकीमती जमीन का मामला है तो पीठ ने कहा कि हमारी राय में अगर यह ऐसा था तो इसके लिए जिम्मदार उन अधिकारियों को जुर्माना भरना होगा, जिन्होंने इस याचिका का बचाव किया.

पीठ ने कहा कि अत: हम इस याचिका को विलंब के आधार पर खारिज करते हुए याचिकाकता पर न्यायिक समय बर्बाद करने के लिये 15,000 रुपये का जुर्माना भी लगा रहे हैं. न्यायालय ने कहा कि जुर्माने की राशि ज्यादा निर्धारित की जाती लेकिन एक युवा अधिवक्ता हमारे सामने पेश हुआ है और हमने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह रियायत दी है. न्यायालय ने जुर्माने की राशि उन अधिकारियों से वसूल करने का निर्देश दिया है जो शीर्ष अदालत में इतने विलंब से अपील दायर करने के लिए जिम्मेदार हैं.

नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने बार बार अप्रसन्नता व्यक्त करने के बावजूद सरकारी प्राधिकारियों द्वारा अपील दायर करने में विलंब के अनवरत सिलसिले की निन्दा करते हुए कहा है कि यह विडंबना ही है कि फाइल पर बैठने वाले अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं होती.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने बंबई उच्च न्यायालय के पिछले साल फरवरी के आदेश के खिलाफ उप वन संरक्षक की अपील खारिज करते हुए विलंब से अपील दायर करने के रवैये की निन्दा की. यही नहीं, पीठ ने न्यायिक समय बर्बाद करने के लिये याचिकाकर्ता पर 15,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया.

पीठ ने अपने आदेश में कहा कि यह विडंबना ही है कि बार-बार कहने के बावजूद फाइल पर बैठने और कुछ नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

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पीठ ने कहा कि इस मामले में तो अपील 462 दिन के विलंब से दायर की गई और इस बार भी इसकी वजह अधिवक्ता की बदला जाना बताई गई है. हमने सिर्फ औपचारिकता के लिये इस न्यायालय आने के बार बार राज्य सरकारों के इस तरह के प्रयासों की निन्दा की है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकारी प्राधिकारी इस न्यायालय में विलंब से अपील इस तरह दाखिल करते हैं जैसे कानून में निर्धारित समय सीमा उनके लिए नहीं है.

पीठ ने कहा कि विशेष अनुमति याचिका 462 दिन के विलंब से दायर की गई है. यह एक और ऐसा ही मामला है, जिसे हमने सिर्फ औपचारिकता पूरी करने और वादकारी का बचाव करने में लगातार लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को बचाने के लिए इस न्यायालय में दायर होने वाले प्रमाणित मामलों की श्रेणी में रखा है.

शीर्ष अदालत ने इसी साल अक्टूबर में ऐसे ही एक मामले में सुनाए गए फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि उसने प्रमाणित मामलों को परिभाषित किया है, जिसका मकसद प्रकरण को इस टिप्पणी के साथ बंद करना होता है कि इसमें कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि शीर्ष अदालत ने अपील खारिज कर दी है.

याचिकाकर्ता के वकील ने जब यह दलील दी कि यह बेशकीमती जमीन का मामला है तो पीठ ने कहा कि हमारी राय में अगर यह ऐसा था तो इसके लिए जिम्मदार उन अधिकारियों को जुर्माना भरना होगा, जिन्होंने इस याचिका का बचाव किया.

पीठ ने कहा कि अत: हम इस याचिका को विलंब के आधार पर खारिज करते हुए याचिकाकता पर न्यायिक समय बर्बाद करने के लिये 15,000 रुपये का जुर्माना भी लगा रहे हैं. न्यायालय ने कहा कि जुर्माने की राशि ज्यादा निर्धारित की जाती लेकिन एक युवा अधिवक्ता हमारे सामने पेश हुआ है और हमने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह रियायत दी है. न्यायालय ने जुर्माने की राशि उन अधिकारियों से वसूल करने का निर्देश दिया है जो शीर्ष अदालत में इतने विलंब से अपील दायर करने के लिए जिम्मेदार हैं.

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