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विशेष : श्रम कानूनों को पूर्ण रूप से निरस्त करना मजदूरों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

ऐसे में जब भारत का लोक स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र गहरे संकट में फंसता जा रहा है, उस समय राज्य सरकारों ने श्रमिकों के कानूनी अधिकारों को खारिज करने के कदम उठाए हैं. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने कई श्रम कानूनों को निलंबित करने की घोषणा कर दी है. इसका अनुसरण कई अन्य राज्य कर सकते हैं. पढ़ें हमारी खास रिपोर्ट...

dismantling labour rights during coronavirus crisis
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Published : May 14, 2020, 8:51 PM IST

Updated : May 16, 2020, 11:58 AM IST

ऐसे में जब भारत का लोक स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र गहरे संकट में फंसता जा रहा है, उस समय राज्य सरकारों ने श्रमिकों के कानूनी अधिकारों को खारिज करने के कदम उठाए हैं. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने कई श्रम कानूनों को निलंबित करने की घोषणा कर दी है. यह 'सुधार' कारखानों, प्रतिष्ठानों और व्यवसायों को ऐसे प्रमुख नियमों से छूट देकर निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, छंटनी, व्यावसायिक सुरक्षा और काम की परिस्थितियों के बारे में कई सुरक्षा प्रदान करते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने भी काम के घंटों को बढ़ाकर श्रम नियमों में छूट देने की घोषणा की है. इसका अनुसरण कई अन्य राज्य कर सकते हैं.

श्रम कानूनों में सबसे आमूलचूल परिवर्तन उत्तर प्रदेश (यूपी) द्वारा किए गए हैं. योगी आदित्यनाथ की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर सभी श्रम कानूनों को तीन साल की अवधि के लिए पूरी तरह से निलंबित कर दिया है और इस प्रकार से उत्तर प्रदेश सरकार के क्षेत्र में आने वाले व्यवसाय और उद्योगों को अस्थाई छूट दे दी है.

श्रम कानून जिन्हें लागू रखा गया है वह हैं भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996, कर्मकार क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923, बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976, और मजदूरी भुगतान की धारा 5 अधिनियम, 1936. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 और कामकाजी परिस्थितियों को नियंत्रित करने वाले लगभग 30 अन्य कानूनों सहित अधिकांश महत्वपूर्ण श्रम कानूनों को तत्काल निलंबित कर दिया गया है.

उत्तर प्रदेश द्वारा की गई घोषणा के बाद मध्य प्रदेश और गुजरात ने भी श्रम कानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों को निलंबित कर दिया है. यह कदम मालिकों को मजदूरों को काम पर रखने और जब चाहे उन्हें नौकरी से निकालने की अनुमति देते हैं, मौजूदा सुरक्षा और स्वास्थ्य मानदंडों का पालन करने से नए प्रतिष्ठानों को छूट देते हैं, और कंपनियों को कर्मचारियों से लंबे समय तक काम करवाने की अनुमति देते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ने भी मालिकों को मजदूरों से काम करवाने के घंटों को आठ से बढ़ाकर 12 घंटे कर देने की छूट दे रखी है इस शर्त पर कि वह उन्हें ओवर टाइम के लिए ज्यादा मजदूरी दें.

श्रम अधिकार कानूनों को कमजोर करने के और विशेषकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में उन्हें पूरी तरह से निलंबित करने के निर्णय का श्रमिक संगठनों, सामाजिक कर्मियों और विपक्षी दलों ने सख्त विरोध किया है. सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियनस (सीटू) ने इसे 'उस मजदूर वर्ग को गुलाम बनाने वाला बर्बरता पूर्ण कदम बताया है, जो देश की संपत्ति बढ़ाने का काम करता है.'

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि कोरोना वायरस संकट 'मानव अधिकारों को कुचलने, असुरक्षित कार्यस्थलों की अनुमति देने, मजदूरों के शोषण और उनकी आवाज को दबाने के लिए एक बहाना नहीं बनाया जा सकता है'. यहा तक कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी इन निर्णयों का विरोध किया है.

इन राज्यों द्वारा श्रम अधिकार कानूनों के निलंबन पर संवैधानिक और कानूनी गंभीर सवाल खड़े होते हैं. श्रम भारत के संविधान की सातवीं सूची के तीसरे भाग के अंतर्गत केंद्र और राज्य दोनों के ही अधिकार क्षेत्र में आता है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही श्रम कानून बना सकते हैं.

हाल में देश में श्रम संबंधी 44 केंद्रीय और 100 राज्यों द्वारा पारित कानून हैं. भारत के संविधान की धारा 254 (2) के अनुसार यदि राज्य द्वारा पारित कानून केंद्र के कानून से जब मेल न खाता हो तो उसे राष्ट्रपति की अनुमति लेनी आवश्यक है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने भारतीय संविधान की धारा 213 के तहत राज्यपाल की सत्ता का उपयोग कर ऐसे अध्यादेश जारी किए हैं, जो केंद्रीय कानून को निलंबित करते हैं. जब राज्य विधान सभा का सत्र नहीं होता है तब जो अत्यावश्यक मामलों पर अध्यादेश जारी किए जाते हैं, वह कानूनी दृष्टि से उतने ही मजबूत होते हैं.

श्रम अधिकार के कुछ प्रावधानों के निलंबन केंद्र द्वारा पारित कानूनों को प्रभावित करते हैं इसलिए उसे राष्ट्रपति की अनुमति की आवश्यकता है और राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार ही अपना निर्णय लेते हैं. इसलिए अब यह तय करना कि श्रम कानून को निलंबित करना उचित है या गलत नरेंद्र मोदी सरकार के निर्णय पर आधारित है. क्यों कि यह अध्यादेश भारत के श्रम कानून को पूरी तरह से निरस्त कर देते हैं इसलिए सामान्यतया केंद्र सरकार को इन्हें मान्यता देने में भय स्थान दिखने चाहिए. लेकिन इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों के लिए गए इन फैसलों का विरोध करेगी या नहीं.

यदि राष्ट्रपति इन फैसलों पर अपनी मुहर लगा भी देते हैं तो इन अध्यादेशों को न्यायालयों के सामने चुनौती दी जा सकती है. श्रम कानूनों का पूर्ण रूप से निरस्त किया जाना स्पष्ट रूप से संविधान द्वारा अनुच्छेद 23 में मजदूरों को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है क्योंकि यह जबरन मजदूरी करा कर उनका शोषण करता है. यहां 'जबरन मजदूरी' का मतलब केवल बंधुआ मजदूरी तक सीमित नहीं है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी और व्यापक व्याख्या की है.

एशियाई गेम्स में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को लेकर पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम केंद्र सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मार्के के फैसले में (1982) में यह कहा, 'जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपनी मजदूरी की सेवा न्यूनतम मजदूरी दर से कम पर मुहैया करता है वह अनुछेद 23 के अंतर्गत 'जबरन मजदूरी' की परिभाषा में आ जाता है.'

इसलिए, राज्यों द्वारा श्रम कानूनों को निलंबित करना, विशेष रूप से न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 जैसे कानूनों का संविधान के तहत शोषण के खिलाफ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. यह कदम अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) कंवेंशन नंबर 144 का भी उल्लंघन करते हैं, जिसमें भारत ने भी हस्ताक्षर दिए हैं. ऐसे समय में जब कोरोना वायरस के चलते कठोर लॉकडाउन के कारण श्रमिक अत्यधिक आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं, ऐसे उपायों को पेश करना न केवल कानूनी रूप से संदिग्ध है, बल्कि नैतिक रूप से घृणित भी है. स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों का कमजोर होना जैसे अग्नि सुरक्षा नियम, शौचालय की व्यवस्था, सुरक्षा उपकरण आदि, सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के समय श्रमिकों के जीवन को खतरे में डालते हैं.

हालांकि, भारत के श्रम कानून शासन में कुछ बुनियादी गलतियां हैं, जिसके परिणाम स्वरूप अनौपचारिक क्षेत्र में 90 प्रतिशत से अधिक कार्यबल हैं, राज्यों द्वारा श्रम कानूनों का निलंबन 'सुधार' नहीं है, जो इस चुनौती को संबोधित करते हैं. बल्कि यह कदम संगठित क्षेत्र के मजदूरों को और भी अधिक असुरक्षित और दयनीय स्थिति में ला देंगे.

- मैथ्यू इडीकुल्ला

(अधिवक्ता और सेंटर फॉर लॉ एंड पालिसी रिसर्च, बेंगलुरु के सलाहकार)

ऐसे में जब भारत का लोक स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र गहरे संकट में फंसता जा रहा है, उस समय राज्य सरकारों ने श्रमिकों के कानूनी अधिकारों को खारिज करने के कदम उठाए हैं. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने कई श्रम कानूनों को निलंबित करने की घोषणा कर दी है. यह 'सुधार' कारखानों, प्रतिष्ठानों और व्यवसायों को ऐसे प्रमुख नियमों से छूट देकर निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, छंटनी, व्यावसायिक सुरक्षा और काम की परिस्थितियों के बारे में कई सुरक्षा प्रदान करते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों ने भी काम के घंटों को बढ़ाकर श्रम नियमों में छूट देने की घोषणा की है. इसका अनुसरण कई अन्य राज्य कर सकते हैं.

श्रम कानूनों में सबसे आमूलचूल परिवर्तन उत्तर प्रदेश (यूपी) द्वारा किए गए हैं. योगी आदित्यनाथ की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर सभी श्रम कानूनों को तीन साल की अवधि के लिए पूरी तरह से निलंबित कर दिया है और इस प्रकार से उत्तर प्रदेश सरकार के क्षेत्र में आने वाले व्यवसाय और उद्योगों को अस्थाई छूट दे दी है.

श्रम कानून जिन्हें लागू रखा गया है वह हैं भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996, कर्मकार क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923, बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976, और मजदूरी भुगतान की धारा 5 अधिनियम, 1936. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 और कामकाजी परिस्थितियों को नियंत्रित करने वाले लगभग 30 अन्य कानूनों सहित अधिकांश महत्वपूर्ण श्रम कानूनों को तत्काल निलंबित कर दिया गया है.

उत्तर प्रदेश द्वारा की गई घोषणा के बाद मध्य प्रदेश और गुजरात ने भी श्रम कानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों को निलंबित कर दिया है. यह कदम मालिकों को मजदूरों को काम पर रखने और जब चाहे उन्हें नौकरी से निकालने की अनुमति देते हैं, मौजूदा सुरक्षा और स्वास्थ्य मानदंडों का पालन करने से नए प्रतिष्ठानों को छूट देते हैं, और कंपनियों को कर्मचारियों से लंबे समय तक काम करवाने की अनुमति देते हैं. राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ने भी मालिकों को मजदूरों से काम करवाने के घंटों को आठ से बढ़ाकर 12 घंटे कर देने की छूट दे रखी है इस शर्त पर कि वह उन्हें ओवर टाइम के लिए ज्यादा मजदूरी दें.

श्रम अधिकार कानूनों को कमजोर करने के और विशेषकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में उन्हें पूरी तरह से निलंबित करने के निर्णय का श्रमिक संगठनों, सामाजिक कर्मियों और विपक्षी दलों ने सख्त विरोध किया है. सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियनस (सीटू) ने इसे 'उस मजदूर वर्ग को गुलाम बनाने वाला बर्बरता पूर्ण कदम बताया है, जो देश की संपत्ति बढ़ाने का काम करता है.'

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि कोरोना वायरस संकट 'मानव अधिकारों को कुचलने, असुरक्षित कार्यस्थलों की अनुमति देने, मजदूरों के शोषण और उनकी आवाज को दबाने के लिए एक बहाना नहीं बनाया जा सकता है'. यहा तक कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी इन निर्णयों का विरोध किया है.

इन राज्यों द्वारा श्रम अधिकार कानूनों के निलंबन पर संवैधानिक और कानूनी गंभीर सवाल खड़े होते हैं. श्रम भारत के संविधान की सातवीं सूची के तीसरे भाग के अंतर्गत केंद्र और राज्य दोनों के ही अधिकार क्षेत्र में आता है. इसलिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही श्रम कानून बना सकते हैं.

हाल में देश में श्रम संबंधी 44 केंद्रीय और 100 राज्यों द्वारा पारित कानून हैं. भारत के संविधान की धारा 254 (2) के अनुसार यदि राज्य द्वारा पारित कानून केंद्र के कानून से जब मेल न खाता हो तो उसे राष्ट्रपति की अनुमति लेनी आवश्यक है. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ने भारतीय संविधान की धारा 213 के तहत राज्यपाल की सत्ता का उपयोग कर ऐसे अध्यादेश जारी किए हैं, जो केंद्रीय कानून को निलंबित करते हैं. जब राज्य विधान सभा का सत्र नहीं होता है तब जो अत्यावश्यक मामलों पर अध्यादेश जारी किए जाते हैं, वह कानूनी दृष्टि से उतने ही मजबूत होते हैं.

श्रम अधिकार के कुछ प्रावधानों के निलंबन केंद्र द्वारा पारित कानूनों को प्रभावित करते हैं इसलिए उसे राष्ट्रपति की अनुमति की आवश्यकता है और राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार ही अपना निर्णय लेते हैं. इसलिए अब यह तय करना कि श्रम कानून को निलंबित करना उचित है या गलत नरेंद्र मोदी सरकार के निर्णय पर आधारित है. क्यों कि यह अध्यादेश भारत के श्रम कानून को पूरी तरह से निरस्त कर देते हैं इसलिए सामान्यतया केंद्र सरकार को इन्हें मान्यता देने में भय स्थान दिखने चाहिए. लेकिन इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों के लिए गए इन फैसलों का विरोध करेगी या नहीं.

यदि राष्ट्रपति इन फैसलों पर अपनी मुहर लगा भी देते हैं तो इन अध्यादेशों को न्यायालयों के सामने चुनौती दी जा सकती है. श्रम कानूनों का पूर्ण रूप से निरस्त किया जाना स्पष्ट रूप से संविधान द्वारा अनुच्छेद 23 में मजदूरों को दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है क्योंकि यह जबरन मजदूरी करा कर उनका शोषण करता है. यहां 'जबरन मजदूरी' का मतलब केवल बंधुआ मजदूरी तक सीमित नहीं है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी और व्यापक व्याख्या की है.

एशियाई गेम्स में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को लेकर पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम केंद्र सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मार्के के फैसले में (1982) में यह कहा, 'जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे को अपनी मजदूरी की सेवा न्यूनतम मजदूरी दर से कम पर मुहैया करता है वह अनुछेद 23 के अंतर्गत 'जबरन मजदूरी' की परिभाषा में आ जाता है.'

इसलिए, राज्यों द्वारा श्रम कानूनों को निलंबित करना, विशेष रूप से न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 जैसे कानूनों का संविधान के तहत शोषण के खिलाफ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. यह कदम अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) कंवेंशन नंबर 144 का भी उल्लंघन करते हैं, जिसमें भारत ने भी हस्ताक्षर दिए हैं. ऐसे समय में जब कोरोना वायरस के चलते कठोर लॉकडाउन के कारण श्रमिक अत्यधिक आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं, ऐसे उपायों को पेश करना न केवल कानूनी रूप से संदिग्ध है, बल्कि नैतिक रूप से घृणित भी है. स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों का कमजोर होना जैसे अग्नि सुरक्षा नियम, शौचालय की व्यवस्था, सुरक्षा उपकरण आदि, सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के समय श्रमिकों के जीवन को खतरे में डालते हैं.

हालांकि, भारत के श्रम कानून शासन में कुछ बुनियादी गलतियां हैं, जिसके परिणाम स्वरूप अनौपचारिक क्षेत्र में 90 प्रतिशत से अधिक कार्यबल हैं, राज्यों द्वारा श्रम कानूनों का निलंबन 'सुधार' नहीं है, जो इस चुनौती को संबोधित करते हैं. बल्कि यह कदम संगठित क्षेत्र के मजदूरों को और भी अधिक असुरक्षित और दयनीय स्थिति में ला देंगे.

- मैथ्यू इडीकुल्ला

(अधिवक्ता और सेंटर फॉर लॉ एंड पालिसी रिसर्च, बेंगलुरु के सलाहकार)

Last Updated : May 16, 2020, 11:58 AM IST
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