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भारत-जापान रक्षा सहयोग में प्रस्तावित विस्तार फायदेमंद : पूर्व राजदूत राकेश सूद

पूर्व भारतीय राजदूत राकेश सूद का मानना है भारत और जापान के बीच रक्षा सहयोग में प्रस्तावित विस्तार दोनों देशों के लिए काफी फायदेमंद साबित होगा. सूद ने वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा को दिए इंटरव्यू में भारत-जापान वार्ता, एसीएसए और चीन कारक के महत्व के बारे में खुलकर बातचीत की.

राकेश सूद  (फाइल फोटो )
राकेश सूद (फाइल फोटो )
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Published : Dec 15, 2019, 9:01 PM IST

नई दिल्ली : पूर्व भारतीय राजदूत राकेश सूद का मानना है भारत और जापान के बीच रक्षा सहयोग में प्रस्तावित विस्तार दोनों देशों के लिए काफी फायदेमंद साबित होगा. सूद ने वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा को दिये इंटरव्यू में भारत-जापान वार्ता, एसीएसए और चीन कारक के महत्व के बारे में खुलकर बातचीत की.

गौरतलब है कि पीएम नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के बीच गुवाहाटी में 15 व 16 दिसंबर को वार्षिक शिखर सम्मेलन होना था. लेकिन संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ असम सहित सम्पूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र में फैली अशांति को देखते हुए यह शिखर वार्ता रद की जा चुकी है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्त रवीश कुमार ने कहा है कि भारत-जापान शिखर वार्ता की अगली तिथि दोनों पक्ष मिलकर जल्द तय करेंगे.

पूर्व राजदूत राकेश सूद से बातचीत में स्मिता शर्मा ने उनसे यह जानने की कोशिश की कि मोदी और आबे के बीच शिखर वार्ता के लिए गुवाहाटी को क्यों चुना गया था. इस सवाल पर सूद का कहना था कि आंशिक रूप से यह कूटनीति की शैली है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपनाया है. पहली बार चीनी राष्ट्रपति भारत आए, उस समय गुजरात में वार्ता की व्यवस्था की गई और यात्रा की शुरुआत साबरमती से की गई.

दूसरी बार तमिलनाडु में अनौपचारिक शिखर बैठक हुई. प्रधानमंत्री मोदी ने इससे पहले वाराणसी में श्री आबे का स्वतागत किया था. इसलिए वह दिल्ली से बाहर निकलना पसंद करते हैं, क्योंकि दिल्ली में राजधानी होने के नाते एक निश्चित तौर पर बाधित वातावरण रहता है. यह उत्तर-पूर्व में जापानी निवेश का प्रतिबिंब है, साथ ही प्रधानमंत्री मोदी के दृष्टिकोण के अनुसार कूटनीति और उनकी व्यक्तिगत शैली का संगम भी है.

पढ़ें- संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है नागरिकता कानून : न्यायमूर्ति धींगरा

जब सूद से पूछा गया कि आप भारत की 'एक्ट ईस्ट' नीति और जापान की इंडो-पैसिफिक रणनीति के बीच अभिसरण को कैसे देखते हैं? तो उनका कहना था, 'हमारे पहले भी 2 + 2 संवाद हुए हैं जिनमें विदेशी और परिभाषित मंत्री शामिल हुए हैं. यह उसका एक उन्नयन है. पहले यह विदेश सचिव और रक्षा सचिव और जापानी पक्ष के उप मंत्रियों के स्तर पर हुआ करता था. अब इसका उन्नयन कैबिनेट स्तर पर कर दिया गया है.'

सूद ने कहा, 'हमने संयुक्त अभ्यासों पर अधिक ध्यान दिया है, जो पहले नौसेना तक ही सीमित थे, लेकिन अब हमारे पास सेना के साथ-साथ एयरफोर्स भी हैं. हम इस संभावना को देख रहे हैं, जापान के अपने घरेलू कानून हैं जो रक्षा धारा में इस तरह की गतिविधियों को प्रतिबंधित करते हैं, लेकिन हाल ही में वहां कुछ छूट मिली है.'

पूर्व राजदूत ने कहा, 'कुछ संयुक्त अनुसंधान और विकास की परियोजना की भी संभावना है, जिसमें रक्षा अनुप्रयोग होंगे. हम कुछ उभयचर विमानों की खरीद पर भी बातचीत कर रहे हैं US2-यह काफी संभव है कि यदि वह वार्ताएं आगे बढ़ती हैं तो यह पहली बार होगा जब हम जापान से रक्षा हार्डवेयर का पुर्जा खरीदेंगे. उस दिशा में एक क्रमिक कदम है. आपको एक स्वतंत्र और खुले भारत-पैसिफिक परिपेक्ष्य को जापान के नज़रिए के साथ एक्ट ईस्ट के अभिसरण को देखना होगा.'

सूद ने बताया कि जब एसीएसए पर समझौता हो जाएगा तो भारतीय नौसेना को जापानी बेस तक पहुंचने की अनुमति होगी, जबकि जापान समुद्री आत्मरक्षा बल (जेएमएसडीएफ़) को हिन्द महासागर में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर भारत के सैन्य प्रतिष्ठानों का उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी.

उन्होंने कहा कि यदि जापानी जहाज या नाव या नौसैनिक विमान हिन्द महासागर में आने वाले हैं, तो हर बार सैन्य-तं‍त्र समझौते पर बातचीत करने के बजाय अगर हमारे पास ढांचा हो और इसे एक ही बार लागू किया जाए तो बेहतर होगा. इसलिए अगर जापानी जहाज और विमान हिन्द महासागर में आने वाले हैं और हमारे विमान जापान के पूर्वी समुद्री बंदरगाह जापान सागर में जा रहे हैं, तो शायद अमेरिका, फ्रांस के साथ जिस तरह का करार किया है, उससे कहीं अधिक स्थायी व्यवस्था पूर्णतः सार्थक होगा.

पढ़ें- अमेरिका सहित कई देशों ने नागरिकों को पूर्वोत्तर भारत की यात्रा के लिए किया सचेत

भारत जापान से उभयचर विमान खरीदने के लिए बातचीत कर रहा है. जापान को अपनी परमाणु नीति पर विश्व युद्ध की छाया को देखते हुए आंतरिक परिवर्तन की कितनी आवश्यकता होगी? इस सवाल पर सूद ने कहा, 'यह जापान के लिए लंबे समय से एक आंतरिक मुद्दा रहा है. जापान में शांतिवाद का बहुत मजबूत प्रभाव है, लेकिन मुझे लगता है कि पीएम आबे को एहसास है कि शायद जापान को उस स्वरूप पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, जिसने उन्हें 1945 से निर्देशित किया है.'

सूद ने कहा, 'अमेरिकियों द्वारा जापान को हराया गया और कब्जा कर लिया गया. तो यह विशेष रूप से शांतिवादी स्थिति उस समय जापान पर थोपी गई थी. इसके बाद जापान को अमेरिकी सुरक्षा छतरी के साथ रहना आसान लगा. आज भी अमेरिकी सुरक्षा छत्र पर बहुत सारे अमेरिकी सहयोगियों द्वारा सवाल उठाए जा रहे हैं. इसलिए प्रधानमंत्री आबे बहुत सावधानी से चीजों का मूल्यांकन कर रहे हैं, क्योंकि वह जापानी आत्मरक्षा बलों के लिए थोड़ी अधिक विभेदित भूमिका को परिभाषित करना चाहते हैं.'

यह पूछे जाने पर कि क्या आज भारत और जापान एक-दूसरे को चीन के समकक्ष मानते हैं, सूद ने कहा कि जापान और भारत दोनों के लिए चीन सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. चीन में जापानी विदेशी निवेश की मात्रा किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में कहीं ज्यादा है.

जापान 1980 के दशक में चीन में निवेश करने वाला पहला देश था. जापानी कम्पनियां पहले वहां गईं और उसके बाद दक्षिण कोरियाई और फिर अमेरिकियों ने वहां निवेश किए, इसलिए न तो जापान और न ही भारत इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि चीन के साथ एक निश्चित आर्थिक एकीकरण है, जो कि जीवन का एक सच है.

सूद ने यह भी कहा कि जापान की चीन के साथ एक अनसुलझी समुद्री सीमा है. भारत और चीन के बीच भूमि सीमा संबंधी मुद्दे हैं और चीन की पकिस्तान से करीबी और रक्षा मिसाइल तथा परमाणु सहयोग एक दूसरा बड़ा मुद्दा है.

उन्होंने कहा, 'चीन द्वारा की गई कुछ ऐसी गतिविधियां हैं, जो दोनों देशों के लिए सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ाए हुए हैं. हमें यह देखना होगा कि हम एक साथ कैसे बेहतर काम कर सकते हैं और किस तरह का राजनीतिक अभिसरण होता है, लेकिन यह किसी प्रकार का सैन्य गठबंधन नहीं होगा क्योंकि जापान अमेरिका का सहयोगी बना हुआ है.

नई दिल्ली : पूर्व भारतीय राजदूत राकेश सूद का मानना है भारत और जापान के बीच रक्षा सहयोग में प्रस्तावित विस्तार दोनों देशों के लिए काफी फायदेमंद साबित होगा. सूद ने वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा को दिये इंटरव्यू में भारत-जापान वार्ता, एसीएसए और चीन कारक के महत्व के बारे में खुलकर बातचीत की.

गौरतलब है कि पीएम नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के बीच गुवाहाटी में 15 व 16 दिसंबर को वार्षिक शिखर सम्मेलन होना था. लेकिन संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ असम सहित सम्पूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र में फैली अशांति को देखते हुए यह शिखर वार्ता रद की जा चुकी है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्त रवीश कुमार ने कहा है कि भारत-जापान शिखर वार्ता की अगली तिथि दोनों पक्ष मिलकर जल्द तय करेंगे.

पूर्व राजदूत राकेश सूद से बातचीत में स्मिता शर्मा ने उनसे यह जानने की कोशिश की कि मोदी और आबे के बीच शिखर वार्ता के लिए गुवाहाटी को क्यों चुना गया था. इस सवाल पर सूद का कहना था कि आंशिक रूप से यह कूटनीति की शैली है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपनाया है. पहली बार चीनी राष्ट्रपति भारत आए, उस समय गुजरात में वार्ता की व्यवस्था की गई और यात्रा की शुरुआत साबरमती से की गई.

दूसरी बार तमिलनाडु में अनौपचारिक शिखर बैठक हुई. प्रधानमंत्री मोदी ने इससे पहले वाराणसी में श्री आबे का स्वतागत किया था. इसलिए वह दिल्ली से बाहर निकलना पसंद करते हैं, क्योंकि दिल्ली में राजधानी होने के नाते एक निश्चित तौर पर बाधित वातावरण रहता है. यह उत्तर-पूर्व में जापानी निवेश का प्रतिबिंब है, साथ ही प्रधानमंत्री मोदी के दृष्टिकोण के अनुसार कूटनीति और उनकी व्यक्तिगत शैली का संगम भी है.

पढ़ें- संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है नागरिकता कानून : न्यायमूर्ति धींगरा

जब सूद से पूछा गया कि आप भारत की 'एक्ट ईस्ट' नीति और जापान की इंडो-पैसिफिक रणनीति के बीच अभिसरण को कैसे देखते हैं? तो उनका कहना था, 'हमारे पहले भी 2 + 2 संवाद हुए हैं जिनमें विदेशी और परिभाषित मंत्री शामिल हुए हैं. यह उसका एक उन्नयन है. पहले यह विदेश सचिव और रक्षा सचिव और जापानी पक्ष के उप मंत्रियों के स्तर पर हुआ करता था. अब इसका उन्नयन कैबिनेट स्तर पर कर दिया गया है.'

सूद ने कहा, 'हमने संयुक्त अभ्यासों पर अधिक ध्यान दिया है, जो पहले नौसेना तक ही सीमित थे, लेकिन अब हमारे पास सेना के साथ-साथ एयरफोर्स भी हैं. हम इस संभावना को देख रहे हैं, जापान के अपने घरेलू कानून हैं जो रक्षा धारा में इस तरह की गतिविधियों को प्रतिबंधित करते हैं, लेकिन हाल ही में वहां कुछ छूट मिली है.'

पूर्व राजदूत ने कहा, 'कुछ संयुक्त अनुसंधान और विकास की परियोजना की भी संभावना है, जिसमें रक्षा अनुप्रयोग होंगे. हम कुछ उभयचर विमानों की खरीद पर भी बातचीत कर रहे हैं US2-यह काफी संभव है कि यदि वह वार्ताएं आगे बढ़ती हैं तो यह पहली बार होगा जब हम जापान से रक्षा हार्डवेयर का पुर्जा खरीदेंगे. उस दिशा में एक क्रमिक कदम है. आपको एक स्वतंत्र और खुले भारत-पैसिफिक परिपेक्ष्य को जापान के नज़रिए के साथ एक्ट ईस्ट के अभिसरण को देखना होगा.'

सूद ने बताया कि जब एसीएसए पर समझौता हो जाएगा तो भारतीय नौसेना को जापानी बेस तक पहुंचने की अनुमति होगी, जबकि जापान समुद्री आत्मरक्षा बल (जेएमएसडीएफ़) को हिन्द महासागर में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर भारत के सैन्य प्रतिष्ठानों का उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी.

उन्होंने कहा कि यदि जापानी जहाज या नाव या नौसैनिक विमान हिन्द महासागर में आने वाले हैं, तो हर बार सैन्य-तं‍त्र समझौते पर बातचीत करने के बजाय अगर हमारे पास ढांचा हो और इसे एक ही बार लागू किया जाए तो बेहतर होगा. इसलिए अगर जापानी जहाज और विमान हिन्द महासागर में आने वाले हैं और हमारे विमान जापान के पूर्वी समुद्री बंदरगाह जापान सागर में जा रहे हैं, तो शायद अमेरिका, फ्रांस के साथ जिस तरह का करार किया है, उससे कहीं अधिक स्थायी व्यवस्था पूर्णतः सार्थक होगा.

पढ़ें- अमेरिका सहित कई देशों ने नागरिकों को पूर्वोत्तर भारत की यात्रा के लिए किया सचेत

भारत जापान से उभयचर विमान खरीदने के लिए बातचीत कर रहा है. जापान को अपनी परमाणु नीति पर विश्व युद्ध की छाया को देखते हुए आंतरिक परिवर्तन की कितनी आवश्यकता होगी? इस सवाल पर सूद ने कहा, 'यह जापान के लिए लंबे समय से एक आंतरिक मुद्दा रहा है. जापान में शांतिवाद का बहुत मजबूत प्रभाव है, लेकिन मुझे लगता है कि पीएम आबे को एहसास है कि शायद जापान को उस स्वरूप पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, जिसने उन्हें 1945 से निर्देशित किया है.'

सूद ने कहा, 'अमेरिकियों द्वारा जापान को हराया गया और कब्जा कर लिया गया. तो यह विशेष रूप से शांतिवादी स्थिति उस समय जापान पर थोपी गई थी. इसके बाद जापान को अमेरिकी सुरक्षा छतरी के साथ रहना आसान लगा. आज भी अमेरिकी सुरक्षा छत्र पर बहुत सारे अमेरिकी सहयोगियों द्वारा सवाल उठाए जा रहे हैं. इसलिए प्रधानमंत्री आबे बहुत सावधानी से चीजों का मूल्यांकन कर रहे हैं, क्योंकि वह जापानी आत्मरक्षा बलों के लिए थोड़ी अधिक विभेदित भूमिका को परिभाषित करना चाहते हैं.'

यह पूछे जाने पर कि क्या आज भारत और जापान एक-दूसरे को चीन के समकक्ष मानते हैं, सूद ने कहा कि जापान और भारत दोनों के लिए चीन सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. चीन में जापानी विदेशी निवेश की मात्रा किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में कहीं ज्यादा है.

जापान 1980 के दशक में चीन में निवेश करने वाला पहला देश था. जापानी कम्पनियां पहले वहां गईं और उसके बाद दक्षिण कोरियाई और फिर अमेरिकियों ने वहां निवेश किए, इसलिए न तो जापान और न ही भारत इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि चीन के साथ एक निश्चित आर्थिक एकीकरण है, जो कि जीवन का एक सच है.

सूद ने यह भी कहा कि जापान की चीन के साथ एक अनसुलझी समुद्री सीमा है. भारत और चीन के बीच भूमि सीमा संबंधी मुद्दे हैं और चीन की पकिस्तान से करीबी और रक्षा मिसाइल तथा परमाणु सहयोग एक दूसरा बड़ा मुद्दा है.

उन्होंने कहा, 'चीन द्वारा की गई कुछ ऐसी गतिविधियां हैं, जो दोनों देशों के लिए सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ाए हुए हैं. हमें यह देखना होगा कि हम एक साथ कैसे बेहतर काम कर सकते हैं और किस तरह का राजनीतिक अभिसरण होता है, लेकिन यह किसी प्रकार का सैन्य गठबंधन नहीं होगा क्योंकि जापान अमेरिका का सहयोगी बना हुआ है.

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नागरिक संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के चलते असम में होने वाली भारत-जापान वार्ता के स्थान को लेकर विदेश मंत्रालय की चुप्पी



नागरिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर असम में और उत्तर पूर्व में फैले हिंसक विरोध के बीच, जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे की आगामी यात्रा के लिए जगह बदलनी पड़ सकती है. भारत-जापान रणनीतिक शिखर वार्ता 15 और 16 दिसंबर को गुवाहाटी में होने वाली है, जिसमें 17 तरीक को आबे द्वारा मणिपुर में इम्फाल युद्ध कब्रिस्तान का दौरा करने की उम्मीद की जा रही है. पिछले सप्ताह अपने निर्धारित पत्र्सार में विदेश मंत्रालय  के प्रवक्ता रवीश कुमार ने शिखर बैठक की तारीखों की पुष्टि की लेकिन गुवाहाटी के आधिकारिक स्थल के रूप में चुने जाने पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. 

भले ही मीडिया रिपोर्टों ने जताया कि असम में दो शीर्ष नेताओं के बीच होने वाली वार्ता की तैयारियां चल रही थीं, जो कि भारत की 'एक्ट ईस्ट' नीति पर ध्यान केंद्रित करने और उत्तर पूर्वी राज्यों में जापानी निवेश बढ़ाने के लिए थी. सूत्रों के अनुसार, कार्यक्रम के दौरान मोदी और अबे द्वारा काजीरंगा नेशनल पार्क की यात्रा की भी उम्मीद थी. हालाँकि अब राज्य में कर्फ्यू लगा हुआ है और सेना की टुकड़ियाँ बुला ली गई हैं, नई दिल्ली को अपनी योजनाओं की तुरंत समीक्षा करनी पड़ सकती है.



हालांकि अभी तक विदेश मंत्रालय ने यात्रा की तारीखों या स्थल के बारे में कोई पुनर्विचार होने के मुद्दे पर मीडिया द्वारा लगातार सवाल पूछे जाने के बावजूद चुप्पी साधे रखी है. नई दिल्ली में जापानी दूतावास इस बीच की स्थिति पर नज़रें जमाये हुए है. 'हम मेजबान द्वारा की गई व्यवस्था में भरोसा करते हैं,' नाम न छापने की शर्तों पर एक वरिष्ठ जापानी राजनयिक ने कहा.



मोदी और आबे ने आखिरी बार नवंबर की शुरुआत में बैंकॉक में आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान बातचीत की थी. 2 + 2 प्रारूप में दोनों देशों की पहली विदेश और रक्षा मंत्रियों की बैठक भी पिछले सप्ताह संपन्न हुई थी, जिसमें अधिग्रहण और क्रॉस-सर्विसिंग समझौते (एसीएसए) पर बातचीत को 'महत्वपूर्ण प्रगति' के रूप में बताया गयाथा. दोनों पक्ष भारतीय सेना और जापान आत्मरक्षा बल (जेएसडीएफ़) को अमेरिका और फ्रांस के साथ भारत की समझ के समान एक दूसरे के आधारों का उपयोग करने की अनुमति देने के लिए 2018 में एसीएसए पर औपचारिक बातचीत शुरू करने के लिए सहमत हुए थे.



वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने पूर्व भारतीय राजदूत राकेश सूद से इस क्षेत्र में भारत-जापान वार्ता, एसीएसए और चीन कारक के महत्व के बारे में बातचीत की. यहाँ साक्षात्कार के अंश हैं:



भारत-जापान रक्षा सहयोग में विस्तार- पूर्व राजदूत राकेश सूद



मोदी और आबे के बीच वार्ता के लिए गुवाहाटी का स्थल के तौर पर चुने जाना कितना महत्वपूर्ण है?



राकेश सूद- आंशिक रूप से यह कूटनीति की शैली है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपनाया है. पहली बार चीनी राष्ट्रपति भारत आए, वे गुजरात में वार्ता की व्यवस्था की गई और यात्रा की शुरुआत साबरमती से की गई. दूसरी बार तमिलनाडु में अनौपचारिक शिखर बैठक हुई. प्रधानमंत्री मोदी ने इससे पहले वाराणसी में श्री आबे का स्वतागत किया था. इसलिए वह दिल्ली से बाहर निकलना पसंद करते हैं, क्योंकि दिल्ली में राजधानी होने के नाते एक निश्चित तौर पर बाधित वातावरण रहता है. यह उत्तर-पूर्व में जापानी निवेश का प्रतिबिंब है, साथ ही प्रधानमंत्री मोदी के दृष्टिकोण के अनुसार कूटनीति और उनकी व्यक्तिगत शैली का संगम भी है.



आप भारत की 'एक्ट ईस्ट' नीति और जापान की इंडो-पैसिफिक रणनीति के बीच अभिसरण को कैसे देखते हैं?



राकेश सूद-हमारे पहले भी 2 + 2 संवाद हुए हैं जिनमें विदेशी और परिभाषित मंत्री शामिल हुए हैं. यह उसका एक उन्नयन है. पहले यह विदेश सचिव और रक्षा सचिव और जापानी पक्ष के उप मंत्रियों के स्तर पर हुआ करता था. अब इसका उन्नयन कैबिनेट स्तर पर कर दिया गया है. हमने संयुक्त अभ्यासों पर अधिक ध्यान दिया है जो पहले नौसेना तक ही सीमित थे, लेकिन अब हमारे पास सेना के साथ-साथ एयरफोर्स भी हैं. हम इस संभावना को देख रहे हैं, जापान के अपने घरेलू कानून हैं जो रक्षा धारा में इस तरह की गतिविधियों को प्रतिबंधित करते हैं, लेकिन हाल ही में वहां कुछ छूट मिली है. कुछ संयुक्त अनुसंधान और विकास की परियोजना की भी संभावना है, जिसमें रक्षा अनुप्रयोग होंगे. हम कुछ उभयचर विमानों की खरीद पर भी बातचीत कर रहे हैं US2-यह काफी संभव है कि यदि वे वार्ताएं आगे बढ़ती हैं तो यह पहली बार होगा जब हम जापान से रक्षा हार्डवेयर का पुर्जा खरीदेंगे. उस दिशा में एक क्रमिक कदम है. आपको एक स्वतंत्र और खुले भारत-पैसिफिक परिपेक्ष्य को जापान के नज़रिए के साथ एक्ट ईस्ट के अभिसरण को देखना होगा.



जब एसीएसए पर समझौता हो जायेगा तो भारतीय नौसेना को जिबूती में एक जापानी बेस तक पहुंचने की अनुमति होगी, जबकि जापान समुद्री आत्मरक्षा बल (जेएमएसडीएफ़) को हिंद महासागर में स्थित अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर भारत के सैन्य प्रतिष्ठानों का उपयोग करने की अनुमति दी जाएगी?



राकेश सूद-यदि जापानी जहाज या नाव या नौसैनिक विमान हिंद महासागर में आने वाले हैं, तो हर बार सैन्य-तं‍त्र समझौते पर बातचीत करने के बजाय अगर हमारे पास ढांचा हो और इसे एक ही बार लागू किया जाए तो बेहतर होगा. इसलिए अगर जापानी जहाज और विमान हिंद महासागर में आने वाले हैं और हमारे विमान जापान के पूर्वी समुद्री बंदरगाह जापान सागर में जा रहे हैं, तो शायद अमेरिका, फ्रांस के साथ जिस तरह का करार किया है, उससे कहीं अधिक स्थायी व्यवस्था पूर्णतः सार्थक होगा.



भारत जापान से उभयचर विमान खरीदने के लिए बातचीत कर रहा है. जापान को अपनी परमाणु नीति पर विश्व युद्ध की छाया को देखते हुए आंतरिक परिवर्तन की कितनी आवश्यकता होगी?



राकेश सूद-यह जापान के लिए लंबे समय से एक आंतरिक मुद्दा रहा है. जापान में शांतिवाद का बहुत मजबूत प्रभाव है, लेकिन मुझे लगता है कि पीएम आबे को एहसास है कि शायद जापान को उस स्वरुप पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है जिसने उन्हें 1945 से निर्देशित किया है. अमेरिकियों द्वारा जापान को हराया गया और कब्जा कर लिया गया. तो यह विशेष रूप से शांतिवादी स्थिति उस समय जापान पर थोपी गई थी. इसके बाद जापान को अमेरिकी सुरक्षा छतरी के साथ रहना आसान लगा. आज भी अमेरिकी सुरक्षा छत्र पर बहुत सारे अमेरिकी सहयोगियों द्वारा सवाल उठाए जा रहे हैं. इसलिए प्रधानमंत्री आबे बहुत सावधानी से चीजों का मूल्यांकन कर रहे हैं क्योंकि वे जापानी आत्मरक्षा बलों के लिए थोड़ी अधिक विभेदित भूमिका को परिभाषित करना चाहते हैं.



क्या आज भारत और जापान एक-दूसरे को चीन के समकक्ष मानते हैं?



राकेश सूद-यह इससे कहीं अधिक जटिल है. जापान और भारत दोनों के लिए चीन सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. चीन में जापानी विदेशी निवेश की मात्रा किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में कहीं ज्यादा है. जापान 1980 के दशक में चीन में निवेश करने वाला पहला देश था. जापानी कंपनियां पहले वहां गयीं और उसके बाद दक्षिण कोरियाई और फिर अमेरिकियों ने वहां निवेश किये. इसलिए न तो जापान और न ही भारत इस तथ्य को अनदेखा कर सकता है कि चीन के साथ एक निश्चित आर्थिक एकीकरण है जो कि जीवन का एक सच है. उसी के साथ जापान का चीन के साथ एक अनसुलझी समुद्री सीमा है. भारत और चीन के बीच भूमि सीमा संबंधी मुद्दे हैं और चीन की पकिस्तान से करीबी और रक्षा मिसाइल तथा परमाणु सहयोग एक दूसरा बड़ा मुद्दा है. चीन द्वारा की गई कुछ ऐसी गतिविधियां हैं जो दोनों देशों के लिए सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ाये हुए हैं. हमें यह देखना होगा कि हम एक साथ कैसे बेहतर काम कर सकते हैं और किस तरह का राजनीतिक अभिसरण होता है लेकिन यह किसी प्रकार का सैन्य गठबंधन नहीं होगा क्योंकि जापान अमेरिका का सहयोगी बना हुआ है.


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