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परमाणु हमले का हिरोशिमा और नागासाकी के लोगों के स्वास्थ्य पर असर

छह अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया था. इसमें लाखों लोग मारे गए और लाखों इससे प्रभावित हुए थे. आज भी लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से इससे प्रभावित हैं. आइए जानते हैं कि हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमले से वहां के नागरिकों के स्वास्थ्य पर क्या असर हुआ.

परमाणु बम
परमाणु का स्वास्थ पर असर
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Published : Aug 6, 2020, 10:48 AM IST

Updated : Aug 6, 2020, 11:09 AM IST

हैदराबाद : छह अगस्त 1945 को अमेरिकी वायु सेना ने जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए थे. आज हिरोशिमा और नागासाकी पर हुई परमाणु बमबारी की 75वीं वर्षगांठ है. इस हमले में लाखों लोगों की मौत हो गई थी और लाखों लोग प्रभावित हुए थे. हमले के बाद लोगों के स्वास्थ्य पर भी असर हुआ था.

बच्चों पर परमाणु बम का असर

परमाणु बम गिरने के बाद जो भी सर्वाइवर्स थे उनके बच्चों की जांच की गई. हिरोशिमा और नागासाकी में लगभग 70 हजार नवजातों की जांच की गई, नागासाकी में 500 से 800 शिशुओं की उनके घरों में जांच की गई.

उस समय आनुवंशिक चोटों या बिमारी (जेनेटिक इंजरी) होने के कोई लक्षण नहीं पाए गए थे, लेकिन 2008 में परमाणु बम से प्रभावित लोगों और उनके बच्चों पर किए गए नए अध्ययन से उनके डीएनए में आनुवंशिक परिवर्तन और विकृतियों का पता चल रहा है. ये अध्ययन डीएनए में होने वाले बदलावों और डीएनए से प्रषित होने वाली बीमारियों का पता लगाने में मददगार साबित हो रहा है.

शारिरिक चोटों और विकिरण के अलावा परमाणु बम का सबसे ज्यादा प्रभाव हिरोशिमा और नागासाकी के लोगों के मन पर पड़ था. परमाणु हमले से लोगों में डर था. इस डर ने लोगों के मन में और दिमाग में घर कर लिया था.

हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी केवल जापान की नहीं है, बल्कि पूरे विश्व की है, इसलिए, यह सभी देशों की जिम्मेदारी है कि आने वाली पढ़ियों की सुरक्षा और उनकी भलाई के लिए किसी भी देश में परमाणु हमला न हो और हमले को रोका जाए.

दीर्घकालिक प्रभाव

परमाणु बम का दीर्घकालिक प्रभाव ल्यूकेमिया में रुप में सामने आया था. ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) का असर हमले के लगभग दो साल बाद देखा गया और लगभग चार से छह साल बाद यह असर चरम पर पहुंच गया.

बच्चे इस परमाणु हमले से गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे. परमाणु बम के संपर्क में आई आबादी और इससे बचे हुए कुछ लोगों के बीच के प्रतिशत अंतर से इस बात का पता लगाया जा सकता है कि परमाणु हमले का कितना असर ल्यूकेमिया के रुप में हुआ था.

रेडिएशन इफेक्ट्स रिसर्च फाउंडेशन के अनुसार परमाणु हमले से प्रभावित 46 प्रतिशत लोग ल्यूकेमिया के शिकार थे.

हमले के लगभग दस साल बाद कैंसर के मामलों और कैंसर के मरीजों में वृद्धि नहीं देखी गई थी. यह वृद्धि पहली बार 1956 में देखी गई थी. इसके बाद हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम से फैले रेडिएशन के कारण होने वाले कैंसर के जोखिमों पर डेटा एकत्र करने के लिए शुरू किया गया था.

हीरोसॉफ्ट इंटरनेशनल कॉरपोरेशन के डेल एल प्रेस्टन के नेतृत्व में एक टीम द्वारा सोलिड कैंसर (ल्यूकेमिया नहीं) के बारे में अध्ययन किया गया. साल 2003 में इस अध्ययन को प्रकाशित किया गया था.

अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि रेडिएशन से सोलिड कैंसर, ल्यूकेमिया की तुलना में 10.7 प्रतिशत तक कम फैला है.

परमाणु बम विस्फोट लगभग 10 सेकंड में होता है लेकिन इसका असर दशकों तक रहता है और पीढ़ियों को इससे होना वाला नुकसान भुगतना पड़ता है.

परमाणु हमले के पांच से छह साल बाद, लोगों में ल्यूकेमिया की वृद्धि हुई. लगभग एक दशक के बाद, लोग थायराइड, स्तन, फेफड़े और अन्य कैंसर से पीड़ित होने लगे, जो सामान्य दर से काफी अधिक था.

पढ़ें :- हिरोशिमा पर बमबारी के 75 साल, जानिए क्या कहते है अमेरिका और जापान के लोग

बम धमाकों के संपर्क में आई गर्भवती महिलाओं में गर्भपात और नवजाक की मृत्यु दर में वृद्धि हुई. बच्चों की बौद्धिक और शाररीक क्षमता पर भी असर पड़ा साथ ही कैंसर बीमारी होने का खतरा भी बढ़ गया. 75 साल भी लोगों में परमाणु बम के रेडिएशन से होने वाले खतरे और इससे फैलने वाली बीमारियों का डर है.

मनोवैज्ञानिक प्रभाव

परमाणु बम विस्फोट होने के बाद फैले रेडिएशन के संपर्क में आने वाले लोग तनाव में थे. उन पर इस हमले का शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर भी हुआ था.

रेडिएशन से हुई शरीर में जलन, हमले में मिले घावों के अलावा लोगों को एपिलेशन (बालों का झड़ना), रक्तस्राव और दस्त की शिकायतें आने लगीं. यह शिकायतें इन लोगों को भी आने लगी जो पहले स्वस्थ दिखाई दे रहे थे.

परिवार के सदस्यों की मृत्यु और प्रभावित लोगों के जीवन की सामान्य उथल-पुथल के साथ-साथ कैंसर की बढ़ती घटनाओं की रिपोर्ट और रेडिएशन के बढ़ते खतरे से लोगों की चिंता और उनका डर बढ़ गया था. इससे यह पता लगाना मुशकिल हो गया कि लोगों में परमाणु हमले का किस हद तक मनोवैज्ञानिक असर हुआ है और कितना रेडिएशन से असर हुआ है.

हालांकि1950 के दशक में, हिरोशिमा और नागासाकी में मनोचिकित्सकों ने लोगों में न्यूरोटिक लक्षणों, सामान्य थकान, भूलने की बीमारी, और एकाग्रता की कमी के साथ-साथ स्वायत्त तंत्रिका असंतुलन (ऑटोनोमिक नर्व इम्बेलेंस) जैसी शिकायतें दर्ज की.

पढ़ें :- परमाणु बम गिराने के बाद भी अमेरिका-जापान में मैत्री संबंध कैसे बने

आरईआरएफ प्रश्नावली में दी गई प्रतिक्रियाओं ने कई लक्षणों का खुलासा किया जो अब पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) में वर्णित हैं, जो कि बाढ़, भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट जैसी आपदा अनुभव करने के बाद लोगों को होता है.

हमले से प्रभावित लोगों में चक्कर आना, सिरदर्द और मतली जैसे शारीरिक लक्षणों के अलावा घटना को याद करना और परेशान होना, अशांति, गतिहीनता की बढ़ती भावना का अनुभव करना, हतोत्साहित महसूस करना शामिल था.

हैदराबाद : छह अगस्त 1945 को अमेरिकी वायु सेना ने जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए थे. आज हिरोशिमा और नागासाकी पर हुई परमाणु बमबारी की 75वीं वर्षगांठ है. इस हमले में लाखों लोगों की मौत हो गई थी और लाखों लोग प्रभावित हुए थे. हमले के बाद लोगों के स्वास्थ्य पर भी असर हुआ था.

बच्चों पर परमाणु बम का असर

परमाणु बम गिरने के बाद जो भी सर्वाइवर्स थे उनके बच्चों की जांच की गई. हिरोशिमा और नागासाकी में लगभग 70 हजार नवजातों की जांच की गई, नागासाकी में 500 से 800 शिशुओं की उनके घरों में जांच की गई.

उस समय आनुवंशिक चोटों या बिमारी (जेनेटिक इंजरी) होने के कोई लक्षण नहीं पाए गए थे, लेकिन 2008 में परमाणु बम से प्रभावित लोगों और उनके बच्चों पर किए गए नए अध्ययन से उनके डीएनए में आनुवंशिक परिवर्तन और विकृतियों का पता चल रहा है. ये अध्ययन डीएनए में होने वाले बदलावों और डीएनए से प्रषित होने वाली बीमारियों का पता लगाने में मददगार साबित हो रहा है.

शारिरिक चोटों और विकिरण के अलावा परमाणु बम का सबसे ज्यादा प्रभाव हिरोशिमा और नागासाकी के लोगों के मन पर पड़ था. परमाणु हमले से लोगों में डर था. इस डर ने लोगों के मन में और दिमाग में घर कर लिया था.

हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी केवल जापान की नहीं है, बल्कि पूरे विश्व की है, इसलिए, यह सभी देशों की जिम्मेदारी है कि आने वाली पढ़ियों की सुरक्षा और उनकी भलाई के लिए किसी भी देश में परमाणु हमला न हो और हमले को रोका जाए.

दीर्घकालिक प्रभाव

परमाणु बम का दीर्घकालिक प्रभाव ल्यूकेमिया में रुप में सामने आया था. ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) का असर हमले के लगभग दो साल बाद देखा गया और लगभग चार से छह साल बाद यह असर चरम पर पहुंच गया.

बच्चे इस परमाणु हमले से गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे. परमाणु बम के संपर्क में आई आबादी और इससे बचे हुए कुछ लोगों के बीच के प्रतिशत अंतर से इस बात का पता लगाया जा सकता है कि परमाणु हमले का कितना असर ल्यूकेमिया के रुप में हुआ था.

रेडिएशन इफेक्ट्स रिसर्च फाउंडेशन के अनुसार परमाणु हमले से प्रभावित 46 प्रतिशत लोग ल्यूकेमिया के शिकार थे.

हमले के लगभग दस साल बाद कैंसर के मामलों और कैंसर के मरीजों में वृद्धि नहीं देखी गई थी. यह वृद्धि पहली बार 1956 में देखी गई थी. इसके बाद हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम से फैले रेडिएशन के कारण होने वाले कैंसर के जोखिमों पर डेटा एकत्र करने के लिए शुरू किया गया था.

हीरोसॉफ्ट इंटरनेशनल कॉरपोरेशन के डेल एल प्रेस्टन के नेतृत्व में एक टीम द्वारा सोलिड कैंसर (ल्यूकेमिया नहीं) के बारे में अध्ययन किया गया. साल 2003 में इस अध्ययन को प्रकाशित किया गया था.

अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि रेडिएशन से सोलिड कैंसर, ल्यूकेमिया की तुलना में 10.7 प्रतिशत तक कम फैला है.

परमाणु बम विस्फोट लगभग 10 सेकंड में होता है लेकिन इसका असर दशकों तक रहता है और पीढ़ियों को इससे होना वाला नुकसान भुगतना पड़ता है.

परमाणु हमले के पांच से छह साल बाद, लोगों में ल्यूकेमिया की वृद्धि हुई. लगभग एक दशक के बाद, लोग थायराइड, स्तन, फेफड़े और अन्य कैंसर से पीड़ित होने लगे, जो सामान्य दर से काफी अधिक था.

पढ़ें :- हिरोशिमा पर बमबारी के 75 साल, जानिए क्या कहते है अमेरिका और जापान के लोग

बम धमाकों के संपर्क में आई गर्भवती महिलाओं में गर्भपात और नवजाक की मृत्यु दर में वृद्धि हुई. बच्चों की बौद्धिक और शाररीक क्षमता पर भी असर पड़ा साथ ही कैंसर बीमारी होने का खतरा भी बढ़ गया. 75 साल भी लोगों में परमाणु बम के रेडिएशन से होने वाले खतरे और इससे फैलने वाली बीमारियों का डर है.

मनोवैज्ञानिक प्रभाव

परमाणु बम विस्फोट होने के बाद फैले रेडिएशन के संपर्क में आने वाले लोग तनाव में थे. उन पर इस हमले का शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर भी हुआ था.

रेडिएशन से हुई शरीर में जलन, हमले में मिले घावों के अलावा लोगों को एपिलेशन (बालों का झड़ना), रक्तस्राव और दस्त की शिकायतें आने लगीं. यह शिकायतें इन लोगों को भी आने लगी जो पहले स्वस्थ दिखाई दे रहे थे.

परिवार के सदस्यों की मृत्यु और प्रभावित लोगों के जीवन की सामान्य उथल-पुथल के साथ-साथ कैंसर की बढ़ती घटनाओं की रिपोर्ट और रेडिएशन के बढ़ते खतरे से लोगों की चिंता और उनका डर बढ़ गया था. इससे यह पता लगाना मुशकिल हो गया कि लोगों में परमाणु हमले का किस हद तक मनोवैज्ञानिक असर हुआ है और कितना रेडिएशन से असर हुआ है.

हालांकि1950 के दशक में, हिरोशिमा और नागासाकी में मनोचिकित्सकों ने लोगों में न्यूरोटिक लक्षणों, सामान्य थकान, भूलने की बीमारी, और एकाग्रता की कमी के साथ-साथ स्वायत्त तंत्रिका असंतुलन (ऑटोनोमिक नर्व इम्बेलेंस) जैसी शिकायतें दर्ज की.

पढ़ें :- परमाणु बम गिराने के बाद भी अमेरिका-जापान में मैत्री संबंध कैसे बने

आरईआरएफ प्रश्नावली में दी गई प्रतिक्रियाओं ने कई लक्षणों का खुलासा किया जो अब पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) में वर्णित हैं, जो कि बाढ़, भूकंप और ज्वालामुखी विस्फोट जैसी आपदा अनुभव करने के बाद लोगों को होता है.

हमले से प्रभावित लोगों में चक्कर आना, सिरदर्द और मतली जैसे शारीरिक लक्षणों के अलावा घटना को याद करना और परेशान होना, अशांति, गतिहीनता की बढ़ती भावना का अनुभव करना, हतोत्साहित महसूस करना शामिल था.

Last Updated : Aug 6, 2020, 11:09 AM IST
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