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विशेष लेख : क्या अंतरराष्ट्रीय संबंधों का सिद्धांत दम तोड़ने की कगार पर है ?

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Published : Apr 28, 2020, 5:59 PM IST

पिछले कुछ सालों में ऐसी कई जीवंत बहस हुई कि क्या उदारवाद, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत के तौर पर क्या दम तोड़ने की कगार पर आ पहुंचा है. लोकतंत्र, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और आर्थिंक परस्पर निर्भरता, वे सभी जो दुनिया को अधिक शांतिपूर्ण बनाने के लिए काम करते हैं, तनाव में थे. दूसरी ओर, वास्तविक सिद्धांत है, जो इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को अराजक के रूप में देखता है, जिसमें संप्रभु राज्य प्राथमिक किरदार हैं. एक वैश्विक प्रभाव की अनुपस्थिति में, राज्य लगातार अपनी शक्ति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.

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लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा

आज जबकि पूरा विश्व कोविड-19 के कारण संकट से गुजर रहा है, ऐसे में भविष्य को लेकर कई सवाल हैं जिनके अबतक कोई जवाब नहीं मिल सके हैं. इनमें से एक सवाल अंतरराष्ट्रीय संबंधों और भू-राजनीतिक रुझानों पर महामारी के प्रभाव को लेकर है. क्या एक साझे शत्रु के साथ मौजूदा लड़ाई एक नए वैश्विक ढ़ांचे की ओर ले जाएगी और हाल के दिनों में हमने जितना देखा है उससे कहीं अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग देखने को मिलेगा?

जवाब ये है कि ये बदलाव बेहतर भविष्य के लिए नहीं होंगे. पिछले दशक से देखे जा रहे भू-राजनीतिक रुझानों में हमें तेजी देखने को मिल सकती है. वैश्वीकरण पहले से ही राष्ट्रवाद और 'अपना राष्ट्र पहले' जैसी नीतियों के उदय के कारण दबाव में था. सीमाएं बंद हो रही थीं और अब पूरी तरह से सील कर दी गई हैं, जिनकी निकट भविष्य में खुलने की बहुत कम संभावनाएं हैं. यह प्रवासियों, युद्ध और हिंसा से जान बचाकर भागने वाले लोगों के साथ-साथ विकसित देशों में बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश करने वालों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है.

संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठन प्रमुख शक्तियों की एकतरफा कार्रवाइयों के कारण कमजोर पड़ गए थे और अब उनका जो प्रभाव बचा है वे उसे भी खो सकते हैं. अमरीका द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी जाने वाली धनराशि रोकना उन कार्रवाइयों की श्रृंखला में केवल एक और कदम है, जिसमें अमरीका का पेरिस जलवायु समझौते से और यूनेस्को से बाहर निकलना और रूस का अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय से पीछे हटना शामिल है. चीन ने संयुक्त राष्ट्र ट्रिब्यूनल के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया था और दक्षिण चीन सागर पर उसके 2016 के फैसले को खारिज कर दिया था. यहां तक कि एक मजबूत आर्थिक संघ जैसे यूरोपीयन संघ इटली जैसे सदस्य देशों की सहायता के लिए अपनी प्रतिक्रिया में वांछित पाया गया है.

पिछले कुछ सालों में ऐसी कई जीवंत बहस हुई कि क्या उदारवाद, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत के तौर पर क्या दम तोड़ने की कगार पर आ पहुंचा है. लोकतंत्र, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और आर्थिंक परस्पर निर्भरता, वे सभी जो दुनिया को अधिक शांतिपूर्ण बनाने के लिए काम करते हैं, तनाव में थे. दूसरी ओर, वास्तविक सिद्धांत है, जो इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को अराजक के रूप में देखता है, जिसमें संप्रभु राज्य प्राथमिक किरदार हैं. एक वैश्विक प्रभाव की अनुपस्थिति में, राज्य लगातार अपनी शक्ति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.

आज जब हम अपने आसपास दुनिया को देखते हैं और कोविड के बाद के भविष्य में झांकने की कोशिश करते हैं हम तयशुदा तौर पर, दोनों क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर वर्चस्व के लिए संघर्ष को बढ़ते देखते हैं. तेल की कीमतें गिरने का गंभीर आर्थिक प्रभाव ईरान और इराक जैसे देशों को कमजोर कर सकता है और इस क्षेत्र में अधिक अस्थिरता पैदा हो सकती है. यह आतंकवाद और अधिक कट्टरता के लिए रास्ता बना सकता है, खासकर उन देशों में जहां स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति वायरस के दुर्बल प्रभाव को नहीं संभाल सकती है.

महान शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता और गहरा जाएगी. हमने पहले ही राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा शब्दों के युद्ध की शुरुआत देखी है जिसमें उन्होंने चीन पर महामारी के विषय में जानबूझकर जानकारी छुपाने आरोप लगाया है और और साथ ही में 'जानबूझकर जिम्मेदार' पाए जाने पर परिणामों की चेतावनी भी दे डाली है. अपनी ओर से, चीन ने वायरस को नियंत्रित करने में अपनी सफलता दिखाने के लिए एक बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान शुरू किया है और यूरोप, अफ्रीका और एशिया के देशों को चिकित्सा सहायता प्रदान करके अपनी नरम शक्ति को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहा है.

ये अक्सर कहा जाता रहा है कि अमरीका और चीन के रिश्ते ही 21वीं शताब्दी को परिभाषित करेंगे. कोरोना वायरस ने इन रिश्तों को सबसे निम्न स्तर पर ला पटका है. सीएनबीसी के साथ एक साक्षात्कार में, सिंगापुर के ली कुआन यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में एक एसोसिएट प्रोफेसर जेम्स क्रैबट्री ने अमरीका और चीन के बीच के संबंधों को '1970 के दशक से संभवतः कई दशकों तक जीवित स्मृति में अपने सबसे खराब स्तर पर होने' के रूप में वर्णित किया.

भले ही अमेरिका और चीन एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हों, लेकिन इन दोनों देशों में से किसी ने भी दुनिया भर में बहुत अधिक विश्वास हासिल नहीं किया है. अमेरिकी संकट के दौरान नेतृत्व की भूमिका निभाने में विफल रहा है और अपनी सीमाओं के भीतर महामारी से निपटने में भी इसने संकोच और अनिश्चितता दर्शाई है. दुनिया के अधिकांश लोग भी, अपनी सफलता के चीनी आख्यान पर यकीन नहीं कर रहे हैं और कई विशेषज्ञ चीनी सरकार द्वारा सामने रखे गये कोरोना वायरस के आंकड़ों पर सवाल उठा रहे हैं.

सभी देशों के आर्थिक रूप से कमजोर होने और वैश्विक सहयोग के अभाव में दुनिया अधिक से अधिक बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ सकती है. भारत जैसे देश, जो अपेक्षाकृत प्रभावी रूप से महामारी का प्रबंधन कर चुके हैं, अवसरों को हासिल करने के लिए खुद को एक लाभप्रद स्थिति में पा सकते हैं.

ऐसा ही एक क्षेत्र विनिर्माण है. विश्व को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में चीन की अत्याधिक निर्भरता के खतरे का एहसास हो गया है और यह निश्चित है कि कुछ विनिर्माण इकाईयां चीन से बाहर निकाल जाएंगी. जापान पहले ही 2.2 बिलियन डॉलर का उत्पादन चीन से बाहर ले जाने के लिए पहल कर चुका है और कई वैश्विक कंपनियां भी यही रास्ता अपना रहीं हैं. हालांकि तत्काल पलायन की संभावना नजर नहीं आ रही है. यह बताया जा रहा है कि लगभग 1000 कम्पनियां विनिर्माण प्राधिकरण स्थापित करने के लिए भारतीय अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श कर रही हैं. कई नीतिगत बदलावों और प्रोत्साहनों को लागू करना होगा, लेकिन निर्माण के क्षत्र में इतना विशाल बदलाव आर्थिक खेल का परिवर्तक सिद्ध हो सकता है.

दुनिया का भू-राजनीतिक भविष्य सौम्य प्रतीत नहीं हो रहा है. फ्रांसीसी विदेश मंत्री ने ले मोंडे अखबार को एक सटीक विवरण दिया, जिसमें उन्होंने कहा, 'मुझे ऐसा लगता है कि हम वर्षों से भंग होने की प्रक्रिया, जिसने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को दुर्बल बना दिया है, के साक्षी रहे हैं. महामारी शक्तियों के बीच संघर्ष के विभिन्न तरीकों से निरंतरता है. मेरा डर यह है कि (प्रकोप) के बाद की दुनिया दृढ़ता से पहले की दुनिया की तरह हो जाएगी, लेकिन इसका प्रारूप और भी बदतर होगा.'

कई आवाजें मानव त्रासदी के भयावह पैमाने की ओर इशारा कर रहीं हैं और एकजुट होकर इस संकट से निपटने के लिए हमारे राष्ट्रीय मतभेदों को दरकिनार करने का आह्वान भी कर रहीं हैं. यह एक समझदार सुझाव है, लेकिन वास्तविकता यह है कि नेक और नैतिक विचार शायद ही कभी आत्म-संरक्षण और शक्ति के लिए राज्य के संघर्ष में सम्मिलित किए जाते हैं.

-लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा

(पूर्व उत्तरी कमान सेना प्रमुख और 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक का नेतृत्व करने वाले)

आज जबकि पूरा विश्व कोविड-19 के कारण संकट से गुजर रहा है, ऐसे में भविष्य को लेकर कई सवाल हैं जिनके अबतक कोई जवाब नहीं मिल सके हैं. इनमें से एक सवाल अंतरराष्ट्रीय संबंधों और भू-राजनीतिक रुझानों पर महामारी के प्रभाव को लेकर है. क्या एक साझे शत्रु के साथ मौजूदा लड़ाई एक नए वैश्विक ढ़ांचे की ओर ले जाएगी और हाल के दिनों में हमने जितना देखा है उससे कहीं अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग देखने को मिलेगा?

जवाब ये है कि ये बदलाव बेहतर भविष्य के लिए नहीं होंगे. पिछले दशक से देखे जा रहे भू-राजनीतिक रुझानों में हमें तेजी देखने को मिल सकती है. वैश्वीकरण पहले से ही राष्ट्रवाद और 'अपना राष्ट्र पहले' जैसी नीतियों के उदय के कारण दबाव में था. सीमाएं बंद हो रही थीं और अब पूरी तरह से सील कर दी गई हैं, जिनकी निकट भविष्य में खुलने की बहुत कम संभावनाएं हैं. यह प्रवासियों, युद्ध और हिंसा से जान बचाकर भागने वाले लोगों के साथ-साथ विकसित देशों में बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश करने वालों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है.

संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठन प्रमुख शक्तियों की एकतरफा कार्रवाइयों के कारण कमजोर पड़ गए थे और अब उनका जो प्रभाव बचा है वे उसे भी खो सकते हैं. अमरीका द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी जाने वाली धनराशि रोकना उन कार्रवाइयों की श्रृंखला में केवल एक और कदम है, जिसमें अमरीका का पेरिस जलवायु समझौते से और यूनेस्को से बाहर निकलना और रूस का अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय से पीछे हटना शामिल है. चीन ने संयुक्त राष्ट्र ट्रिब्यूनल के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया था और दक्षिण चीन सागर पर उसके 2016 के फैसले को खारिज कर दिया था. यहां तक कि एक मजबूत आर्थिक संघ जैसे यूरोपीयन संघ इटली जैसे सदस्य देशों की सहायता के लिए अपनी प्रतिक्रिया में वांछित पाया गया है.

पिछले कुछ सालों में ऐसी कई जीवंत बहस हुई कि क्या उदारवाद, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत के तौर पर क्या दम तोड़ने की कगार पर आ पहुंचा है. लोकतंत्र, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और आर्थिंक परस्पर निर्भरता, वे सभी जो दुनिया को अधिक शांतिपूर्ण बनाने के लिए काम करते हैं, तनाव में थे. दूसरी ओर, वास्तविक सिद्धांत है, जो इस अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को अराजक के रूप में देखता है, जिसमें संप्रभु राज्य प्राथमिक किरदार हैं. एक वैश्विक प्रभाव की अनुपस्थिति में, राज्य लगातार अपनी शक्ति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.

आज जब हम अपने आसपास दुनिया को देखते हैं और कोविड के बाद के भविष्य में झांकने की कोशिश करते हैं हम तयशुदा तौर पर, दोनों क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर वर्चस्व के लिए संघर्ष को बढ़ते देखते हैं. तेल की कीमतें गिरने का गंभीर आर्थिक प्रभाव ईरान और इराक जैसे देशों को कमजोर कर सकता है और इस क्षेत्र में अधिक अस्थिरता पैदा हो सकती है. यह आतंकवाद और अधिक कट्टरता के लिए रास्ता बना सकता है, खासकर उन देशों में जहां स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति वायरस के दुर्बल प्रभाव को नहीं संभाल सकती है.

महान शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता और गहरा जाएगी. हमने पहले ही राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा शब्दों के युद्ध की शुरुआत देखी है जिसमें उन्होंने चीन पर महामारी के विषय में जानबूझकर जानकारी छुपाने आरोप लगाया है और और साथ ही में 'जानबूझकर जिम्मेदार' पाए जाने पर परिणामों की चेतावनी भी दे डाली है. अपनी ओर से, चीन ने वायरस को नियंत्रित करने में अपनी सफलता दिखाने के लिए एक बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान शुरू किया है और यूरोप, अफ्रीका और एशिया के देशों को चिकित्सा सहायता प्रदान करके अपनी नरम शक्ति को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहा है.

ये अक्सर कहा जाता रहा है कि अमरीका और चीन के रिश्ते ही 21वीं शताब्दी को परिभाषित करेंगे. कोरोना वायरस ने इन रिश्तों को सबसे निम्न स्तर पर ला पटका है. सीएनबीसी के साथ एक साक्षात्कार में, सिंगापुर के ली कुआन यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में एक एसोसिएट प्रोफेसर जेम्स क्रैबट्री ने अमरीका और चीन के बीच के संबंधों को '1970 के दशक से संभवतः कई दशकों तक जीवित स्मृति में अपने सबसे खराब स्तर पर होने' के रूप में वर्णित किया.

भले ही अमेरिका और चीन एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हों, लेकिन इन दोनों देशों में से किसी ने भी दुनिया भर में बहुत अधिक विश्वास हासिल नहीं किया है. अमेरिकी संकट के दौरान नेतृत्व की भूमिका निभाने में विफल रहा है और अपनी सीमाओं के भीतर महामारी से निपटने में भी इसने संकोच और अनिश्चितता दर्शाई है. दुनिया के अधिकांश लोग भी, अपनी सफलता के चीनी आख्यान पर यकीन नहीं कर रहे हैं और कई विशेषज्ञ चीनी सरकार द्वारा सामने रखे गये कोरोना वायरस के आंकड़ों पर सवाल उठा रहे हैं.

सभी देशों के आर्थिक रूप से कमजोर होने और वैश्विक सहयोग के अभाव में दुनिया अधिक से अधिक बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ सकती है. भारत जैसे देश, जो अपेक्षाकृत प्रभावी रूप से महामारी का प्रबंधन कर चुके हैं, अवसरों को हासिल करने के लिए खुद को एक लाभप्रद स्थिति में पा सकते हैं.

ऐसा ही एक क्षेत्र विनिर्माण है. विश्व को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में चीन की अत्याधिक निर्भरता के खतरे का एहसास हो गया है और यह निश्चित है कि कुछ विनिर्माण इकाईयां चीन से बाहर निकाल जाएंगी. जापान पहले ही 2.2 बिलियन डॉलर का उत्पादन चीन से बाहर ले जाने के लिए पहल कर चुका है और कई वैश्विक कंपनियां भी यही रास्ता अपना रहीं हैं. हालांकि तत्काल पलायन की संभावना नजर नहीं आ रही है. यह बताया जा रहा है कि लगभग 1000 कम्पनियां विनिर्माण प्राधिकरण स्थापित करने के लिए भारतीय अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श कर रही हैं. कई नीतिगत बदलावों और प्रोत्साहनों को लागू करना होगा, लेकिन निर्माण के क्षत्र में इतना विशाल बदलाव आर्थिक खेल का परिवर्तक सिद्ध हो सकता है.

दुनिया का भू-राजनीतिक भविष्य सौम्य प्रतीत नहीं हो रहा है. फ्रांसीसी विदेश मंत्री ने ले मोंडे अखबार को एक सटीक विवरण दिया, जिसमें उन्होंने कहा, 'मुझे ऐसा लगता है कि हम वर्षों से भंग होने की प्रक्रिया, जिसने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को दुर्बल बना दिया है, के साक्षी रहे हैं. महामारी शक्तियों के बीच संघर्ष के विभिन्न तरीकों से निरंतरता है. मेरा डर यह है कि (प्रकोप) के बाद की दुनिया दृढ़ता से पहले की दुनिया की तरह हो जाएगी, लेकिन इसका प्रारूप और भी बदतर होगा.'

कई आवाजें मानव त्रासदी के भयावह पैमाने की ओर इशारा कर रहीं हैं और एकजुट होकर इस संकट से निपटने के लिए हमारे राष्ट्रीय मतभेदों को दरकिनार करने का आह्वान भी कर रहीं हैं. यह एक समझदार सुझाव है, लेकिन वास्तविकता यह है कि नेक और नैतिक विचार शायद ही कभी आत्म-संरक्षण और शक्ति के लिए राज्य के संघर्ष में सम्मिलित किए जाते हैं.

-लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा

(पूर्व उत्तरी कमान सेना प्रमुख और 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक का नेतृत्व करने वाले)

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