हैदराबाद : वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिस्थितियों में बदलाव के कारण पूरी दुनिया में घातक आपदाएं आ रही हैं. भारत में ग्लेशियरों का पिघलना, अत्यधिक गर्मी तो कभी रिकॉर्ड बर्फबारी, अतिवृष्टि तो कभी सूखे जैसे हालात इसी जलवायु परिवर्तन के कारण बन रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया और अमेजन के वनों में धधकती आग संकेत दे रही है कि हम तबाही के कगार पर खड़े हैं.
दुख की बात है कि इन आपदाओं के बावजूद विकसित देश इस ओर उपेक्षा बनाए हुए हैं. यदि यही स्थिति रही तो समझिए कि मानव सभ्यता के लिए खतरा दूर नहीं है.
पहले बात करते हैं भारत की. उत्तराखंड स्थित गंगोत्री का सहायक ग्लेशियर चतुरंगी तेजी से पिघल रहा है. बीते 27 साल में ग्लेशियर 1172 मीटर से अधिक सिकुड़ गया है. इससे यहां बर्फ की मात्रा में काफी गिरावट आई है. वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लेशियरों के पिघलने से नई झीलों का निर्माण हो सकता है, जो खतरा साबित हो सकती हैं.
वैज्ञानिकों ने मानना है कि चतुरंगी ग्लेशियर के कुल क्षेत्र में 0.626 वर्ग किलो मीटर की कमी आई है और 0.139 घन किमी बर्फ कम हो गई है. जलवायु परिवर्तन के कारण यह ग्लेशियर प्रतिवर्ष 22.84 मीटर की दर से सिकुड़ रहा है.
वैसे यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी पर्यावरण के बिगड़ते हालात देखने को मिल रहे हैं. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग भी जलवायु परिवर्तन का नतीजा है. इस आग में करोड़ों पशुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी और एक करोड़ एकड़ से अधिक वन क्षेत्र जलकर खाक हो गया था.
जलवायु परिस्थितियों में तेजी से गिरावट के पीछे कई कारण हैं. इनमें सतत विकास योजना, लापरवाह औद्योगीकरण और जीवाश्म ईंधन से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन प्रमुख हैं. इनसे दुनियाभर में तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिससे प्रदूषण, महामारी, भोजन की कमी और अन्य आपदाएं पैदा हो रही हैं.
हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि विश्व के सभी देश हर साल 10,000 करोड़ टन प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते रहे हैं. अगले तीन दशकों में यह संख्या बढ़कर 18,400 करोड़ टन हो सकती है. इसी सर्वेक्षण ने बताया कि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति संसाधन की खपत दस गुना अधिक है.
नाइट्रस ऑक्साइड जैसे औद्योगिक उत्सर्जन 100 वर्ष तक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ, जो नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में आगे हैं.
साथ ही इसे रोकने में भी इनकी ज्यादा दिलचस्पी दिखाई नहीं दी है. दुनिया के नेताओं द्वारा जलवायु परिवर्तन कम करने के प्रयासों के बावजूद पर्यवरण का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है.
सहारा के रेगिस्तान में बर्फबारी, अमेरिका में 40 डिग्री का तापमान, फ्लैश फ्लड, साइक्लोन, भूकंप, अकाल और बेतुके मानसून की उच्च घटनाएं सभी ग्लोबल वार्मिंग की ओर इशारा कर रहे हैं. समुद्र के किनारे और निचले इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों को ग्लेशियर पिघलने और समुद्र के जलस्तर बढ़ने से एक खतरा है. पिछले एक साल में अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, एशिया, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में हुई 15 गंभीर त्रासदियों का कारण जलवायु परिवर्तन ही है.
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अमेजन वर्षावन, जो ऑस्ट्रेलिया के झाड़ी जंगलों के विपरीत हैं, विनाशकारी जंगल की आग में घिरे हुए थे. लैंसेट के शोध में कहा गया है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग का मौजूदा चलन जारी रहता है, तो फसल की पैदावार में भारी गिरावट के साथ ही मूंगफली, केला, कॉफी और आलू जैसी कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी.
खतरे की इन घंटियों के बावजूद संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन COP25 में कोई समाधान या समझौता नहीं हो सका. जब तक विकसित राष्ट्र जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संयुक्त लड़ाई की दिशा में कदम नहीं उठाते मानव सभ्यता का भविष्य संदिग्ध बना रहेगा.