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विशेष लेख : अपर्याप्त मुआवजे के कारण आत्मविश्वास की कमी

अन्य विकासशील देशों की तुलना में, भारतीय कृषि क्षेत्र द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयां बहुत अधिक हैं. प्राकृतिक आपदाएं न केवल उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी असर डालती हैं. एक राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण अध्ययन यह दिखाता है कि देश में 50 प्रतिशत से अधिक किसान ऋण के बोझ तले दबे हुए हैं. पूर्व में, 'सेस' के अध्ययन में बताया गया था कि आंध्र प्रदेश में यह 93 प्रतिशत था.

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अपर्याप्त मुआवजे (क्षतिपूर्ति) के कारण आत्मविश्वास की कमी
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Published : Mar 1, 2020, 6:15 PM IST

Updated : Mar 3, 2020, 2:03 AM IST

फसल की क्षति.....दयनीय किसान
अन्य विकासशील देशों की तुलना में, भारतीय कृषि क्षेत्र द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयां बहुत अधिक हैं. प्राकृतिक आपदाएं न केवल उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी असर डालती है. एक राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण अध्ययन यह दिखाता है कि देश में 50 प्रतिशत से अधिक किसान ऋण के बोझ तले दबे हुए हैं. पूर्व में, 'सेस' के अध्ययन में बताया गया था कि आंध्र प्रदेश में यह 93 प्रतिशत था. अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दुगना करने के केंद्र सरकार का लक्ष्य आदर्शवादी दिखाई पड़ता है. वे किसान, जो फसल की बर्बादी के कारण ऋण के जाल में फंस जाते हैं, आखिरकार अपनी जान दे देते हैं. वर्ष 1995-2015 के दौरान, 3.10 लाख किसानों ने मौत को गले लगा लिया था. कृषि सम्बन्धी संकट ने कई राज्यों में किसानों को गरीबी में धकेल दिया था.

हालांकि, शासक किसानों की समस्या का हल करने के लिए कई उपाय करने का दंभ भरते हैं, फिर भी उनके जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी ने चार वर्ष पूर्व जनवरी 2016 को उस समय लागू फसल बीमा योजनाओं के स्थान पर 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' को आरंभ किया था. चूंकि, पिछली सरकारों की बीमा योजनाएं किसानों की सहायता करने में असफल हुई थी, इसलिए इस योजना को लागू करना अनिवार्य समझा गया. पहले की फसल बीमा योजनाओं में सीमित मुआवजे के साथ किसानों से अधिक किस्त (प्रीमियम) ली जाती थी. किश्त में सरकार का अंशदान भी कम होता था, परन्तु नई योजना पूरी तरह से अलग और अनूठी है. नुकसान का आकलन करने और किसानों के लिए जल्दी मुआवजा सुनिश्चित करने के लिए, 'रिमोट सेंसिंग स्मार्ट फोन' और ड्रोन जैसे उपकरणों का उपयोग किया जाएगा. यह योजना किसानों की आय में उतार-चढ़ावों और नौकरी के अन्य अवसरों के लिए खेत छोड़ने की आवश्यकता को रोकने में मदद करता है.

अपर्याप्त व्यवस्था
इस योजना के अंतर्गत, 2019 के खरीफ की फसल तक, किसानों से प्राप्त आवेदनों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. 2016-2017 में लगभग 5.80 करोड़, 2017-2018 में 5.25 करोड़ और 2018-2019 में 5.64 करोड़ किसान इस योजना में सम्मिलित हुए. तीन वर्षों की कुल किस्तों का संग्रह क्रमशः रु. 22,008 करोड़, रु. 25,481 करोड़ और 29,035 करोड़ था. इसके प्रमाण हैं कि हालांकि किसानों की संख्या में कमी आई थी, जबकि 'किस्त' में बढ़ोत्तरी हुई थी. किसानों का अंशदान क्रमशः रु. 4,227 करोड़, रु. 4,431 करोड़ और रु. 4,889 करोड़ था. यह अनुमान लगाया गया है कि लगभग 3.70 करोड़ लोगों ने 2019-20 की खरीफ के दौरान इस योजना में अपना नामांकन किया और उनमें से अधिकतर बैंक के ऋणदाता नहीं हैं. बीमा कम्पनियों दारा किसानों को चुकाई गई मुआवजे की राशि में उनके द्वारा ली गई किस्त की तुलना में बहुत अंतर था. इस अंतर के लिए बीमा कम्पनियों के लाभ को जिम्मेदार माना गया, जो क्रमशः पहले वर्ष में रु. 5,391 करोड़, दूसरे वर्ष में रु. 3,776 करोड़ और उससे अगले वर्ष रु. 14,789 करोड़ रहा. इससे लगता है कि बीमा कम्पनियों ने इस योजना से बहुत लाभ कमाया है. इस कारण से, किसान समितियां यह आरोप लगा रही हैं कि इस योजना को केवल बीमा कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए ही लाया गया है.

यह योजना व्यवस्था का एक दोष बनकर रह गई है. चूंकि कृषि मंत्रालय इस पर पूरा ध्यान देने में असफल रहा, इसलिए बीमा कम्पनियों ने वार्षिक रूप से करोड़ों रुपये का बीमा भुगतान देने में कोताही बरती. इस योजना को अपर्याप्त रूप से लागू करना इस बात का प्रमाण है कि दिसम्बर 2018 में समाप्त होने वाले खरीफ मौसम के दौरान, बीमा कम्पनियों को किसानों को पांच हजार करोड़ रुपये का मुआवजा देना था. उस वर्ष में खरीफ के मौसम के दौरान, हालांकि किसानों को इस योजना के अंतर्गत, रु. 14,813 करोड़ मुआवजे के देने थे, परन्तु जुलाई 2019 तक केवल रु. 9,799 करोड़ का ही भुगतान किया गया. यह उल्लेखनीय है कि 45 जिलों के किसानों को अब भी उनकी बीमा राशि के 50% का भुगतान किया जाना बाकी है. इस योजना के अंतर्गत, किसानों के बकायों का भुगतान खरीफ या रबी के मौसम के अंतिम दो महीनों के अंदर किया जाना चाहिए.

2018 का खरीफ मौसम दिसम्बर में समाप्त हो गया, परन्तु अगले वर्ष के अंत तक भी, किसानों का भुगतान बीमा कम्पनियों के बीच समन्वय की कमी के कारण नहीं किया गया. दूसरी तरफ, किसान शिकायत कर रहे हैं कि कुछ फसलों की बीमा किस्त अधिक है. इसके साथ, केंद्र सरकार ने 2020 के खरीफ मौसम के अंत तक उन फसलों को हटाने का निर्णय लिया है और राज्य सरकारों के साथ इस विषय पर परामर्श जारी रखा है. दूसरी ओर, बीमा कम्पनियों को लगता है कि छोटी अवधि के निर्णयों से कठिनाइयां आती हैं. उस समय, जब मराठवाड़ा क्षेत्र के किसानों ने वर्ष 2018-2019 के दौरान, मौत को गले लगा लिया था, तब 'सहकारी' अधिनियम ने स्पष्ट किया कि बीमा कम्पनियों ने इस योजना से रु. 1,237 करोड़ का लाभ कमाया है. इसका अर्थ है कि बीमा कम्पनियों ने रु. एक करोड़ प्रति खुदकुशी के औसत से लाभ कमाया है. मुआवजे का हिसाब करने के लिए बीमा कम्पनियों में पर्याप्त विशेषज्ञ की कमी बहुत परेशान करने वाली है.

केंद्र कहता है कि इस योजना के अंतर्गत, फसल का आकलन करने में कई कठिनाइयां हैं. इसके परिणामस्वरूप, समय से मुआवजे का भुगतान करना कठिन हो गया है. इस योजना के अंतर्गत, फसल की उपज का अनुमान 'फसल कटाई' के प्रयोगों द्वारा लगाया जाता है. कम समय में देश के अंदर लाखों प्रयोग करना बहुत मुश्किल होता है. अधिकारियों के अनुसार, इस उद्देश्य के लिए उपयोग किया जा रहा सॉफ्टवेयर एप 15 प्रतिशत की क्षमता से भी कार्य नहीं कर रहा है. केंद्र सरकार मुआवजे के भुगतान में देरी के लिए राज्य सरकारों की कोताही को जिम्मेदार मानती है. दूसरी ओर, किसानों को इस बात से नाराजगी है कि बैंकों द्वारा ऋण देते समय बीमा किस्तों को घटाया जा रहा है. यह समस्या महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और अन्य 10 राज्यों में सर्वाधिक है.

मुआवजे का हिसाब लगाने के लिए क्या कोई नहीं!
फसल बीमा योजना में, खरीफ फसल के लिए बीमित राशि का दो प्रतिशत, रबी फसल के लिए 1.5 प्रतिशत और व्यावसायिक फसलों के लिए पांच प्रतिशत का निर्धारण किस्त के रूप में किया जाता है. पिछले सात वर्षों की वास्तविक उपज और औसत उपज के बीच के अंतर को फसल की बर्बादी के रूप में माना जाता है. दावों को निर्धारित करते समय, प्राकृतिक आपदाओं के दो वर्षों को छोड़कर, सात वर्षों में उगाई गई औसत फसल को किसान की पसंद की क्षति के प्रतिशत (हर्जाने के स्तर) से गुणा किया जाता है. यह स्तर 70-90 प्रतिशत के बीच है. बीमा किस्त में उसके अनुसार अंतर भी होता है. उदाहरण के लिए, किसी किसान ने 60 कुंतल औसत उपज का बीमा करवाया है और वास्तविक उपज 45 कुंतल होती है. यदि किसान ने फसल की बर्बादी के लिए 25% मुआवजे के दर से रु. 60,000 का बीमा करवाया है, तो मुआवजा रु. 15,000 बैठता है. इस योजना के अंतर्गत, किसान को प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए सभी तरह के नुकसानों के लिए मुआवजा दिया जाता है. तुरंत राहत के रूप में, मुआवजे की एक तिहाई राशि का भुगतान केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत, राष्ट्रीय आपदा कोष या आपदा कोष से दिया जाता है. किसान समितियां यह आरोप लगाती हैं कि सभी निजी बीमा कम्पनियां परस्पर हाथ मिला रही हैं और बीमा किस्त को ऊंचा रखकर लाभ कमा रही हैं.

इस पर ध्यान दिया जाए कि मुआवजे का लगभग 50 प्रतिशत का भुगतान देश के केवल 40 जिलों में ही किया जाता है. ये सभी जिले प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त रहते हैं और वे प्राथमिक रूप से सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में अभूतपूर्व बारिश के कारण, किसानों द्वारा बोई गई प्याज, सोयाबीन, अनार आदि जैसी फसलों को बहुत अधिक नुकसान हो गया था. कुछ कम्पनिया योजना से अलग होने के लिए गंभीर प्रयास कर रही हैं क्योंकि अभूतपूर्व बारिश और सूखे से प्रभावित क्षेत्र उनके लिए लाभकारी नहीं हैं. योजना को प्रभावशाली बनाने के लिए, सरकारों को किसानों की बीमा किस्त के कुछ भाग का भार स्वयं उठाना होगा.

यह खेदजनक है कि इस योजना में किसानों के नकली बीजों के कारण हुआ नुकसान और हाथियों, जंगली सूअरों एवं भालुओं जैसे पशुओं द्वारा किया गया नुकसान सम्मिलित नहीं है. निजी बीमा कम्पनियों पर लगाम लगाने के लिए किस्त पर अधिकतम सीमा निर्धारित की जानी चाहिए, ताकि वे कम मूल्य रख सकें. अपनी इच्छा से किस्त निर्धारित करने वाली निजी कम्पनियां सभी के लिए एक बोझ बन रही हैं. वर्तमान में, सरकारें संबंधित बीमा कम्पनियों को किस्त की राशि का भुगतान करती हैं. इसके स्थान पर, सरकारी बीमा कम्पनी के तत्वावधान में एक पृथक कोष के निर्माण और इससे किस्त के भुगतान की संभावनाओं का पता लगाया जाना चाहिए. इससे निजी बीमा कम्पनियों के लिए अनुचित लाभ उठाना बंद हो जाएगा और किसानों को अधिकतम लाभ मिलना सुनिश्चित हो सकेगा.

तेलुगु लेखक : प्रो.पी. वेंकटेश्वर

(आंध्र यूनिवर्सिटी, वाणिज्य विभाग)

फसल की क्षति.....दयनीय किसान
अन्य विकासशील देशों की तुलना में, भारतीय कृषि क्षेत्र द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयां बहुत अधिक हैं. प्राकृतिक आपदाएं न केवल उनकी उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी असर डालती है. एक राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण अध्ययन यह दिखाता है कि देश में 50 प्रतिशत से अधिक किसान ऋण के बोझ तले दबे हुए हैं. पूर्व में, 'सेस' के अध्ययन में बताया गया था कि आंध्र प्रदेश में यह 93 प्रतिशत था. अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दुगना करने के केंद्र सरकार का लक्ष्य आदर्शवादी दिखाई पड़ता है. वे किसान, जो फसल की बर्बादी के कारण ऋण के जाल में फंस जाते हैं, आखिरकार अपनी जान दे देते हैं. वर्ष 1995-2015 के दौरान, 3.10 लाख किसानों ने मौत को गले लगा लिया था. कृषि सम्बन्धी संकट ने कई राज्यों में किसानों को गरीबी में धकेल दिया था.

हालांकि, शासक किसानों की समस्या का हल करने के लिए कई उपाय करने का दंभ भरते हैं, फिर भी उनके जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ है. प्रधानमंत्री मोदी ने चार वर्ष पूर्व जनवरी 2016 को उस समय लागू फसल बीमा योजनाओं के स्थान पर 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' को आरंभ किया था. चूंकि, पिछली सरकारों की बीमा योजनाएं किसानों की सहायता करने में असफल हुई थी, इसलिए इस योजना को लागू करना अनिवार्य समझा गया. पहले की फसल बीमा योजनाओं में सीमित मुआवजे के साथ किसानों से अधिक किस्त (प्रीमियम) ली जाती थी. किश्त में सरकार का अंशदान भी कम होता था, परन्तु नई योजना पूरी तरह से अलग और अनूठी है. नुकसान का आकलन करने और किसानों के लिए जल्दी मुआवजा सुनिश्चित करने के लिए, 'रिमोट सेंसिंग स्मार्ट फोन' और ड्रोन जैसे उपकरणों का उपयोग किया जाएगा. यह योजना किसानों की आय में उतार-चढ़ावों और नौकरी के अन्य अवसरों के लिए खेत छोड़ने की आवश्यकता को रोकने में मदद करता है.

अपर्याप्त व्यवस्था
इस योजना के अंतर्गत, 2019 के खरीफ की फसल तक, किसानों से प्राप्त आवेदनों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. 2016-2017 में लगभग 5.80 करोड़, 2017-2018 में 5.25 करोड़ और 2018-2019 में 5.64 करोड़ किसान इस योजना में सम्मिलित हुए. तीन वर्षों की कुल किस्तों का संग्रह क्रमशः रु. 22,008 करोड़, रु. 25,481 करोड़ और 29,035 करोड़ था. इसके प्रमाण हैं कि हालांकि किसानों की संख्या में कमी आई थी, जबकि 'किस्त' में बढ़ोत्तरी हुई थी. किसानों का अंशदान क्रमशः रु. 4,227 करोड़, रु. 4,431 करोड़ और रु. 4,889 करोड़ था. यह अनुमान लगाया गया है कि लगभग 3.70 करोड़ लोगों ने 2019-20 की खरीफ के दौरान इस योजना में अपना नामांकन किया और उनमें से अधिकतर बैंक के ऋणदाता नहीं हैं. बीमा कम्पनियों दारा किसानों को चुकाई गई मुआवजे की राशि में उनके द्वारा ली गई किस्त की तुलना में बहुत अंतर था. इस अंतर के लिए बीमा कम्पनियों के लाभ को जिम्मेदार माना गया, जो क्रमशः पहले वर्ष में रु. 5,391 करोड़, दूसरे वर्ष में रु. 3,776 करोड़ और उससे अगले वर्ष रु. 14,789 करोड़ रहा. इससे लगता है कि बीमा कम्पनियों ने इस योजना से बहुत लाभ कमाया है. इस कारण से, किसान समितियां यह आरोप लगा रही हैं कि इस योजना को केवल बीमा कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए ही लाया गया है.

यह योजना व्यवस्था का एक दोष बनकर रह गई है. चूंकि कृषि मंत्रालय इस पर पूरा ध्यान देने में असफल रहा, इसलिए बीमा कम्पनियों ने वार्षिक रूप से करोड़ों रुपये का बीमा भुगतान देने में कोताही बरती. इस योजना को अपर्याप्त रूप से लागू करना इस बात का प्रमाण है कि दिसम्बर 2018 में समाप्त होने वाले खरीफ मौसम के दौरान, बीमा कम्पनियों को किसानों को पांच हजार करोड़ रुपये का मुआवजा देना था. उस वर्ष में खरीफ के मौसम के दौरान, हालांकि किसानों को इस योजना के अंतर्गत, रु. 14,813 करोड़ मुआवजे के देने थे, परन्तु जुलाई 2019 तक केवल रु. 9,799 करोड़ का ही भुगतान किया गया. यह उल्लेखनीय है कि 45 जिलों के किसानों को अब भी उनकी बीमा राशि के 50% का भुगतान किया जाना बाकी है. इस योजना के अंतर्गत, किसानों के बकायों का भुगतान खरीफ या रबी के मौसम के अंतिम दो महीनों के अंदर किया जाना चाहिए.

2018 का खरीफ मौसम दिसम्बर में समाप्त हो गया, परन्तु अगले वर्ष के अंत तक भी, किसानों का भुगतान बीमा कम्पनियों के बीच समन्वय की कमी के कारण नहीं किया गया. दूसरी तरफ, किसान शिकायत कर रहे हैं कि कुछ फसलों की बीमा किस्त अधिक है. इसके साथ, केंद्र सरकार ने 2020 के खरीफ मौसम के अंत तक उन फसलों को हटाने का निर्णय लिया है और राज्य सरकारों के साथ इस विषय पर परामर्श जारी रखा है. दूसरी ओर, बीमा कम्पनियों को लगता है कि छोटी अवधि के निर्णयों से कठिनाइयां आती हैं. उस समय, जब मराठवाड़ा क्षेत्र के किसानों ने वर्ष 2018-2019 के दौरान, मौत को गले लगा लिया था, तब 'सहकारी' अधिनियम ने स्पष्ट किया कि बीमा कम्पनियों ने इस योजना से रु. 1,237 करोड़ का लाभ कमाया है. इसका अर्थ है कि बीमा कम्पनियों ने रु. एक करोड़ प्रति खुदकुशी के औसत से लाभ कमाया है. मुआवजे का हिसाब करने के लिए बीमा कम्पनियों में पर्याप्त विशेषज्ञ की कमी बहुत परेशान करने वाली है.

केंद्र कहता है कि इस योजना के अंतर्गत, फसल का आकलन करने में कई कठिनाइयां हैं. इसके परिणामस्वरूप, समय से मुआवजे का भुगतान करना कठिन हो गया है. इस योजना के अंतर्गत, फसल की उपज का अनुमान 'फसल कटाई' के प्रयोगों द्वारा लगाया जाता है. कम समय में देश के अंदर लाखों प्रयोग करना बहुत मुश्किल होता है. अधिकारियों के अनुसार, इस उद्देश्य के लिए उपयोग किया जा रहा सॉफ्टवेयर एप 15 प्रतिशत की क्षमता से भी कार्य नहीं कर रहा है. केंद्र सरकार मुआवजे के भुगतान में देरी के लिए राज्य सरकारों की कोताही को जिम्मेदार मानती है. दूसरी ओर, किसानों को इस बात से नाराजगी है कि बैंकों द्वारा ऋण देते समय बीमा किस्तों को घटाया जा रहा है. यह समस्या महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और अन्य 10 राज्यों में सर्वाधिक है.

मुआवजे का हिसाब लगाने के लिए क्या कोई नहीं!
फसल बीमा योजना में, खरीफ फसल के लिए बीमित राशि का दो प्रतिशत, रबी फसल के लिए 1.5 प्रतिशत और व्यावसायिक फसलों के लिए पांच प्रतिशत का निर्धारण किस्त के रूप में किया जाता है. पिछले सात वर्षों की वास्तविक उपज और औसत उपज के बीच के अंतर को फसल की बर्बादी के रूप में माना जाता है. दावों को निर्धारित करते समय, प्राकृतिक आपदाओं के दो वर्षों को छोड़कर, सात वर्षों में उगाई गई औसत फसल को किसान की पसंद की क्षति के प्रतिशत (हर्जाने के स्तर) से गुणा किया जाता है. यह स्तर 70-90 प्रतिशत के बीच है. बीमा किस्त में उसके अनुसार अंतर भी होता है. उदाहरण के लिए, किसी किसान ने 60 कुंतल औसत उपज का बीमा करवाया है और वास्तविक उपज 45 कुंतल होती है. यदि किसान ने फसल की बर्बादी के लिए 25% मुआवजे के दर से रु. 60,000 का बीमा करवाया है, तो मुआवजा रु. 15,000 बैठता है. इस योजना के अंतर्गत, किसान को प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए सभी तरह के नुकसानों के लिए मुआवजा दिया जाता है. तुरंत राहत के रूप में, मुआवजे की एक तिहाई राशि का भुगतान केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत, राष्ट्रीय आपदा कोष या आपदा कोष से दिया जाता है. किसान समितियां यह आरोप लगाती हैं कि सभी निजी बीमा कम्पनियां परस्पर हाथ मिला रही हैं और बीमा किस्त को ऊंचा रखकर लाभ कमा रही हैं.

इस पर ध्यान दिया जाए कि मुआवजे का लगभग 50 प्रतिशत का भुगतान देश के केवल 40 जिलों में ही किया जाता है. ये सभी जिले प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त रहते हैं और वे प्राथमिक रूप से सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में अभूतपूर्व बारिश के कारण, किसानों द्वारा बोई गई प्याज, सोयाबीन, अनार आदि जैसी फसलों को बहुत अधिक नुकसान हो गया था. कुछ कम्पनिया योजना से अलग होने के लिए गंभीर प्रयास कर रही हैं क्योंकि अभूतपूर्व बारिश और सूखे से प्रभावित क्षेत्र उनके लिए लाभकारी नहीं हैं. योजना को प्रभावशाली बनाने के लिए, सरकारों को किसानों की बीमा किस्त के कुछ भाग का भार स्वयं उठाना होगा.

यह खेदजनक है कि इस योजना में किसानों के नकली बीजों के कारण हुआ नुकसान और हाथियों, जंगली सूअरों एवं भालुओं जैसे पशुओं द्वारा किया गया नुकसान सम्मिलित नहीं है. निजी बीमा कम्पनियों पर लगाम लगाने के लिए किस्त पर अधिकतम सीमा निर्धारित की जानी चाहिए, ताकि वे कम मूल्य रख सकें. अपनी इच्छा से किस्त निर्धारित करने वाली निजी कम्पनियां सभी के लिए एक बोझ बन रही हैं. वर्तमान में, सरकारें संबंधित बीमा कम्पनियों को किस्त की राशि का भुगतान करती हैं. इसके स्थान पर, सरकारी बीमा कम्पनी के तत्वावधान में एक पृथक कोष के निर्माण और इससे किस्त के भुगतान की संभावनाओं का पता लगाया जाना चाहिए. इससे निजी बीमा कम्पनियों के लिए अनुचित लाभ उठाना बंद हो जाएगा और किसानों को अधिकतम लाभ मिलना सुनिश्चित हो सकेगा.

तेलुगु लेखक : प्रो.पी. वेंकटेश्वर

(आंध्र यूनिवर्सिटी, वाणिज्य विभाग)

Last Updated : Mar 3, 2020, 2:03 AM IST
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