नई दिल्ली: पिछले दशक के दौरान दुनिया के चिकित्सा क्षेत्र में कई बड़े बदलाव हुए हैं. इन बदलावों के साथ ताल मेल बनाने के लिए ही चिकित्सा शिक्षा पद्धति में भी कई बड़े बदलाव किए गए. निजी मेडिकल कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना और टीचिंग हॉस्पिटल्स का खोला जाना इस बात का जीता जागता प्रमाण है. लेकिन एक कड़वा सच ये भी है कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने मेडिकल कॉलेजों को मंजूरी तो दे दी पर उनकी निगरानी करने में कितनी सफल रही यह विषय भी सोचनीय है.
निसंदेह, एक तथ्य यह भी है कि मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया भ्रष्टाचार का अड्डा बन गयी थी और चिकित्सा शिक्षा के मानकों को काफी नुकसान पहुंचाया था. मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया में हो रहे भष्ट्राचार से निपटने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद (एनएमसी) लाने का फैसला किया लेकिन एनएमसी लागू होने से पहले ही विवाद में आ गया.
![etv bhart](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/4384726_filephoto.jpg)
भारत में चिकित्सा शिक्षा के सबसे बड़े सुधारों में से एक माने जा रहे, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) विधेयक 2019, को डाक्टरों के प्रतीरोध का सामना करना पड़ा. जूनियर डॉक्टरों (जुडास) ने इसके खिलाफ आंदोलन किया, हड़ताल की, हालांकि दोनों सदनों में पारित होने के और राष्ट्रपति से भी स्वीकृत किये जाने के बाद , यह अब एक कानूनी अधिनियम बन गया है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, हर्षवर्धन ने घोषणा की कि यह विधेयक देश के चिकित्सा क्षेत्र में प्रभावित कर सकता है और नए इतिहास बना सकता है. अगर बिल में कुछ गलत नहीं है, तो इसका विरोध क्यों हो रहा है? दूसरी ओर, सरकार का तर्क है कि बिल को दो साल पहले एक मसौदे के रूप में बिल को पेश किया गया था और कई सुझावों को ध्यान में रखते हुए, इसमें कई बदलावों को शामिल किया गया था, जिसके बाद बिलका वर्तमान खाका तैयार हुआ है.
बिल को लेकर संदेह-
भारत में कई बड़े डाक्टर हुए हैं, उनकी न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व भर में विशेषज्ञ चिकित्सा पेशेवरों के रूप में पहचान और इज्जत है.
सिर्फ कुछ राजनेताओं के समर्थन के कारण, चिकित्सा के क्षेत्र में अवैध गतिविधियां चल रही हैं. सलाहकारों का तर्क है कि केवल सरकार के नामित सदस्य ही कैसे भ्रष्टाचार मुक्त कार्य कर सकते हैं और पारदर्शिता के साथ लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप हो सकते हैं और एक वैकल्पिक ढांचा ला सकते हैं जिसे थोपा जा रहा है.
नई संरचना के साथ, राज्यों का महत्व कम हो जाएगा क्योंकि कुछ सदस्यों को बारी-बारी से नियुक्त किया जाता है. उनका तर्क है कि ऐसी संस्था जिसे कुछ राज्यों के प्रतिनिधित्व के बिना हि, दो या तीन वर्षों में एक बार बदलता है, कहां तक उचित है?
कुछ सदस्यों को बारी-बारी से नियुक्त किए जाने के कारण नई संरचनाओं के साथ राज्यों का महत्व घट जाएगा. इस पर तर्क यह है कि ऐसा होने से यह साध्य निकाय के तौर पर कैसे खड़ा होगा. क्या यह उचित है कि एक निकाय को दो या तीन सालों में एक बार बदला जाए, बिना कुछ राज्यों के प्रतिनिधित्व के.
एनएमसी के खिलाफ यह तर्क दिया जाता है कि इस अधिनियम के कार्यान्वयन के साथ, राज्य सरकारों का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा और यह संघीय भावना को आहत करता है. आपको बता दें कि इस अधिनियम के तहत निकाय के अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों को अपनी आय और संपत्ति का विवरण घोषित करना होगा. साथ ही यह अधिनियम यह भी निर्धारित करता है कि परिषद में काम करने के बाद, सदस्यों को किसी भी निजी शिक्षण अस्पतालों या संगठन में काम नहीं करना चाहिए. इस वजह से एनएमसी को भ्रष्टाचार मुक्त बताया जा रहा है.
निर्णय लेने वाले सदस्य में, सिर्फ ही डॉक्टर नहीं होंगे, बल्कि आईआईटी, आईआईएम और अन्य निकायों और क्षेत्रों से भी नामित लोगों की एक टीम होगी. यह भी तर्क दिया जा रहा है कि इस तरह की रचना से, चिकित्सक अमले का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा और विविध क्षेत्रों का हस्तक्षेप होगा.
पढ़ें- NMC बिल: रेजिडेंट डॉक्टरों से डॉ. हर्षवर्धन ने की मुलाकात, बोले- गलतफहमियों को किया दूर
यह उल्लेखनीय है कि किसी भी संस्था में, विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा, यदि यह चार स्वायत्त निकायों के साथ सहयोग करने का इरादा है, तो एमसीआई को पूरी तरह से समाप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है.
अगर हम शिक्षा के व्यापारिकरण के दौर में उच्च मानकों की अपेक्षा करते हैं तो यह एक बेमानी बात होगी. अगर मैनेजमेंट कोटा जो अब तक 15 फीसदी था वो बढ़ कर 50 प्रतिशत हो जाता है तो निजी भागीदारी का हिस्सा बढ़ेगा.
इस समय पूरे देश में 536 मेडिकल कालेज हैं और उनमें लगभग 80,000 एमबीबीएस सीटें हैं. इनमें से 38000 सीटें निजी मेडिकल कालेजों के अंतर्गत आती है. अब 20,000 सीटों को मैनेजमेंट कोटा के तहत भरा जा रहा है. जिसकी वजह से मेडिकल शिक्षा आम लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही है.
![etv bhart](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/4384726_filephotoo.jpg)
सरकार को चाहिए प्रतिभा को प्रोत्साहित करें, लेकिन अगर प्राथमिकता निजी चिकित्सा शिक्षण संस्थाओं को प्रोत्साहित करने को दी जा रही है तो इसके परिणाम घातक सिद्ध होंगे.
वास्तव में, आरोप यह है कि अनुमोदन प्रक्रिया के समय एमसीआई में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ था. क्या इस नए बिल से भ्रष्टाचार पर लगाम लग पाएगा? क्या करोड़ों रुपये देकर हासिल की गई शिक्षा, समाज का भला कर सकती है और आम आदमी के आगे झुक सकती है? यह सिर्फ एक बीमार प्रणाली से अच्छे परिणाम की उम्मीद करने जैसी बात होगी.
इन प्राइवेट मेडिकल फैक्ट्रियों से निकले डाक्टरों में से कितने गांवों में काम कर सकेंगे? यह संदेह के घेरे में है. साथ ही सरकार के इस कदम से आम जनता को कितना फायदा पहुंचेगा.
सिर्फ डाक्टरों की संख्या बढ़ाने से आम आदमी की अच्छी सेहत और इलाज नहीं दिया जा सकता. कॉर्पोरेट डॉक्टर, जो पहले से ही नैतिकता को पूरी तरह समाप्त करने जैसी आलोचनाओं का सामना कर रहा है, वो भी सरकारी मेडिकल कॉलेजों का ही उत्पाद हैं. सामाजिक मूल्य केवल उस कॉलेज पर निर्भर नहीं करता है जिसका उन्होंने अध्ययन किया है. वे अच्छे परिवार की पृष्ठभूमि, परवरिश और कुछ आदर्शवादी शिक्षकों के प्रभाव पर भी निर्भर करते हैं.
इसलिए, सभी निजी मेडिकल कॉलेजों पर संदेह करने की आवश्यकता नहीं है.
पढ़ें-देश के 57.3 फीसदी डॉक्टर फर्जी, केंद्र ने स्वीकार की WHO की रिपोर्ट
एमबीबीएस पूरा करने के बाद अनिवार्य नेशनल एग्जिट टेस्ट (NEXT) एक बहुत ही महत्वपूर्ण परीक्षा है क्योंकि देश में चिकित्सा शिक्षा के मानक एक समान नहीं हैं. यह आश्चर्य की बात है कि है कि एक समान बहुविकल्पीय प्रकार के प्रश्न परीक्षण किस तरह से सभी क्षेत्रों को संतुलित करेंगे. इसके अलावा, इसमें 'मेडिकल स्किल्स' के बारे में कुछ नहीं किया गया है.
पहले ही इस व्यवस्था प्रणाली पर ऐसे डाक्टर देने का आरोप है, जो न तो सुई लगाना जानते हैं न ही छोटी मोटी सर्जरी करना. इससे लोग आशंकित हैं कि समस्या और तेज हो जाएगी और सार्वजनिक स्वास्थ्य को जटिल खतरा पैदा हो जाएगा.
फिर, उन लोगों के बारे में क्या है जो नेशनल एग्जिट टेस्ट को क्लियर नहीं कर पा रहे हैं? क्या उन्हें फिर से कक्षा 12 में या अगली बार परीक्षा के लिए कितना समय मिलेगा? उन्हें परीक्षा कितनी बार देने की अनुमति होगी? इन सवालों के कोई स्पष्ट उत्तर नहीं हैं.
![etv bhart](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/4384726_filephotoo.jpg)
अशावादी नजरिया-
नए अधिनियम को समझने में निश्चित रूप से कुछ और समय लगेगा. कुछ आशंकाओं को दूर किया जा सकता है. अप्रत्याशित विकास भी हो सकते हैं. एक समझदार समाज हमेशा बदलाव की तलाश में रहता है.
यदि बदलाव अच्छे के लिए होगा तो समाज निश्चित तोर पर खुश होगा. समाज में उत्साह परिवर्तन को स्वीकार करेगा आगे बढ़ेगा और विकास की दिशा की दिशा में आगे बढ़ाया जाएगा. यह उल्लेखनीय है कि जो नए अधिनियम की आलोचना करने वाले लोग वह भी बदलाव का पूरी तरह से विरोध नहीं करते हैं.
सरकार के सामने बड़ी चुनौती इस संगठन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की है. न केवल विशेषज्ञों को बल्कि सही व्यक्तियों को भी नियुक्त किया जाना चाहिए; अन्यथा, यह एक नई बोतल में पुरानी शराब जैसा होगा. निजी मेडिकल कॉलेजों की अनुमति प्रदान करने और उनके मानकों का आकलन करने के लिए निष्पक्ष नीति विकसित की जानी चाहिए. राज्यों की सरकार को सरकारी मेडिकल कॉलेजों के लिए विशेषज्ञ उपलब्ध कराने में सहयोग प्रदान करना चाहिए.
'समय पर उचित उपचार' लोगों का प्राथमिक अधिकार है. स्वस्थ नागरिक देश के विकास का हिस्सा बनेंगे. सुविधाओं की कमी के लिए इस अधिनियम के माध्यम से, 'सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाताओं" को ग्राम स्तर के लिए पेश किया गया है. आशा है कि छह महीने तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद, ये गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य प्रदान करने में सक्षम होंगे.
पढ़ें-डॉक्टर्स की हड़ताल: मरीजों का हाल-बेहाल, आपातकालीन सेवाएं भी बाधित
यह गांवों में नहीं जाने वाले विशेषज्ञों की समस्या का वैकल्पिक समाधान है. डॉक्टरों को लगता है कि इससे कई सवाल खड़े होंगे और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में उचित सुविधाएं भी नहीं मिल पाएंगी.
चूंकि मरीजों को कम गुणवत्ता वाला उपचार मिल रहा है, इसलिए सुविधाएं बढ़ाई जानी चाहिए. बहुत से डाक्टर सरकारी नौकरी की तलाश में हैं. वहीं कई सारे राज्यों में रिक्त पद भी हैं. वे कहते हैं कि पर्याप्त सुविधाएं प्रदान किए बिना, डॉक्टरों को दोष देना उचित नहीं होगा कि वे अपर्याप्त उपचार करते हैं.
कई सवाल हैं कि ग्रामीण लोग बेहतर उपचार कैसे प्राप्त कर सकते हैं जो पहले से ही ग्रामीण (आरएमपी) डॉक्टरों से इलाज करवा रहे हैं.